यह नया परिदृश्य भयावह है, इसके पीछे विचार का संकट है

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राजकिशोर (2 जनवरी 1947 – 4 जून 2018)

— राजकिशोर —

ज हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जिसमें अतीत के बहुत-से अच्छे शब्द निरर्थक जान पड़ते हैं। आधुनिकता का स्थान उत्तर-आधुनिकता ने ले लिया है और विकास का स्थान उपभोगवाद ने। राष्ट्रीयता का मूल्य धुँधलाता जा रहा है और विश्व नागरिकता का दावा मजबूत होता जा रहा है। बहुत-से विद्वान यह दावा करने लगे हैं कि धर्मनिरपेक्षता में भी क्या रखा है! अवधारणा के स्तर पर यह नया परिदृश्य भयावह है, क्योंकि इसके पीछे विचार का बल नहीं, बल्कि विचार का संकट है। ऐसा लगता है कि मानवता में एक तरह की वैचारिक थकावट आ गयी है।

सच तो यह है कि आधुनिकता, स्वतंत्रता, राष्ट्र, विकास आदि रूढ़ नहीं, विकासमान शब्द हैं। अतः इनमें समय-समय पर नये-नये अर्थों का समावेश होता गया है। लेकिन इनमें से कोई भी शब्द आज निरर्थक नहीं हुआ है। हाँ, प्रत्येक अवधारणा के साथ जो विकृति आ जाती है, उसे दूर करने की प्रक्रिया जरूर कुछ शिथिल हुई है। इसलिए इनमें से अनेक शब्द आज संदिग्ध जान पड़ने लगे हैं। लेकिन सिर्फ इसीलिए इन्हें त्याग दिया गया, तो हम कई सौ वर्षों की महत्त्वपूर्ण विरासत से हाथ धो बैठेंगे।

उदाहरण के लिए, आधुनिकता आज भी एक महत्त्वपूर्ण मूल्य है। यह मध्यकाल की जड़ताओं के विरुद्ध एक रचनात्मक विद्रोह के रूप में आयी थी। इसके महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं विवेकवाद, लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता। पश्चिमी समाजों ने भी आधुनिकता को पूरी तरह आत्मसात नहीं किया है। इस चुनौती से पलायन करने के लिए ही उत्तर-आधुनिक समाज की वैधता को स्वीकार कर लिया गया है। उत्तर-आधुनिक कई स्तरों पर वस्तुतः आधुनिक की पराजय है। इस पराजय के कारण ही स्वतंत्रता के नये-नये रचनात्मक रूपों का संधान बाधित दिखाई देता है। इसके स्थान पर स्वैराचार के नये रूप विकसित हो रहे हैं। भारत में अभी भी असली चुनौती एक आधुनिक समाज की स्थापना है।

मार्क्सवादियों ने गलती यह की कि आधुनिकता, स्वतंत्रता आदि को पूरी तरह पूँजीवाद के साथ नत्थी कर दिया। पूँजीवाद अपसंस्कृति की देन है, किन्तु पूँजीवादी समाज में भी मनुष्यता के बेहतर रूपों की साधना बंद नहीं हो जाती, बल्कि और उत्कट हो जाती है, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान के नये साधन उपलब्ध हो जाते हैं तथा मनुष्य की उत्पादन क्षमता में उछाल आता है। स्वयं मार्क्सवाद, पूँजीवाद के विरुद्ध एक कराह था। लेकिन साम्यवादी समाजों ने पूँजी के निजी स्वामित्व की तानाशाही से मुक्ति दिलाकर कुछ दूसरी कराहें पैदा कर दीं, जबकि उन्हें मनुष्य को और ज्यादा स्वतंत्र बनाना चाहिए था।

राष्ट्रीयता का मूल्य अब फिर पहचाना जाने लगा है, किन्तु राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को, कम से कम अपने देश में, अभी भी बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। राष्ट्रीय अखंडता की तथाकथित चिंता ने अन्य सभी राष्ट्रवादी चिंताओं को ढक लिया प्रतीत होता है। यही कारण है कि मजदूर और उद्योगपति, किसान और जमींदार, शहर और गाँव, आधुनिकता और परंपरा आदि के द्वन्द्व 15 अगस्त 1947 के पूर्व जितने तीव्र थे, बाद में उतने भी तीव्र नहीं रह गये। कुछ क्षेत्रों में और कुछ मामलों में तीखापन जरूर आया है, किन्तु उसका राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा से कोई विशेष संबंध नहीं है। अतः जरूरत इस बात की है कि न केवल इन द्वन्द्वों को फिर से और सही ढंग से तीव्र किया जाए, बल्कि राष्ट्र निर्माण के सकारात्मक तत्त्वों, जैसे पूँजी निर्माण, तकनीकी विकास, विकेन्द्रीकरण, राष्ट्रीय स्वाभिमान का पुनरोदय आदि को भी उभारा जाए। इस प्रक्रिया में हमें इस सदी के प्रारंभिक दशकों का काम हमारी काफी मदद कर सकता है। यह वह समय था, जब दुनिया भर में बड़े-बड़े विचारक प्रकट हुए। उनके चिंतन को अपने अनुभवों से जोड़ कर हम उस महास्वप्न को आज ज्यादा तार्किक और सजीव बना सकते हैं जो आधुनिक सभ्यता के रचनात्मक केन्द्र में है।

तीसरी दुनिया का संकट मूलतः विकास और नेतृत्व का संकट है। शायद चीन अकेला राष्ट्र है, जिसने लोकतांत्रिक स्वाधीनताओं की उपेक्षा के बावजूद लगभग हर क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है। बाकी देशों का नेतृत्व बहुत ही सड़ा-गला रहा है। अतः ये देश न तो सांस्कृतिक स्तर पर कोई प्रगति कर पाये और न भौतिक स्तर पर। उत्पादन की आधुनिकता हासिल किये बगैर इन्होंने उपभोग की आधुनिकता पर जोर दिया, जिसे कुछ विकृत अवधारणाओं तथा दमन तंत्र के सहारे ही चलाया जा सकता था। लेकिन इसके लिए सिर्फ इन देशों की सरकारों को ही दोष देना व्यर्थ है। दूसरी राजनीतिक धाराएँ भी कोई खास रचनात्मकता या संवेदनशीलता का परिचय नहीं दे पायीं। ऐसा लगता है कि तीसरी दुनिया में अभी ऐसे राजनीतिक-सामाजिक आर्थिक दर्शन का विकास होना बाकी है, जो उसकी मुक्ति का वाहक बन सके। अभी तो व्यापक अँधेरा और बीच-बीच में कुछ चमक जाने वाला प्रकाश ही दिखाई देता है। एशियाई चीतों का चमत्कार एक क्षणभंगुर मामला था- यह उन्होंने खुद ही साबित कर दिया है।

राष्ट्र-राज्य की आधुनिक धारणा हमने जब अपनायी, उस वक्त उसके अलावा कोई विकल्प नहीं था। कारण, यही एकमात्र ढाँचा हमारे सामने उपस्थित था तथा किसी अन्य ढाँचे की न तो कल्पना थी और न तैयारी। सिर्फ महात्मा गांधी के दिमाग में एक वैकल्पिक ढाँचा था, लेकिन उसके लिए वे कांग्रेस को और देश को तैयार न कर सके। बहरहाल, गांधी के सपनों का समाज बनाने की कोशिश शुरू होती, तब भी शायद कुछ समय तक संविधान, संसद, न्यायपालिका, सेना आदि की जरूरत होती। आज भी यही ढाँचा मोटे तौर पर स्वीकार करना पड़ेगा। जब तक दुनिया भर में राष्ट्र-राज्य के नये रूपों का विकास नहीं होता, किसी एक देश के लिए कोई अन्य रास्ता अख्तियार करना दुःसाहस ही होगा, यद्यपि व्यक्तिगत रूप से मैं मानता हूँ कि यह दुःसाहस करने योग्य है।

यह कहना गलत है कि धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी अवधारणा ने हमारे यहाँ किसी प्रकार के संकट को जन्म दिया है। पश्चिमी राज्य की धर्मनिरपेक्षता एक लंबे लोकतांत्रिक संघर्ष से पैदा हुई। हमारे यहाँ इसकी परंपरा क्षीण है। कोई भी आधुनिक या अच्छा राज्य धर्मनिरपेक्ष ही हो सकता है- पश्चिमी अर्थ में ही। हमारा संकट झूठी या बेईमान धर्मनिरपेक्षता और ऐसी ही धार्मिकता का है।

यह मान्यता भी उचित प्रतीत नहीं होती कि भारतीय संस्कृति में धर्म और राज्य के बीच किसी प्रकार का अंतर्विरोध नहीं था। अनेक हिन्दू राजाओं ने अपनी रुचि के अनुसार धार्मिक पंथों को प्रश्रय दिया। बौद्ध धर्म के प्रसार में राज्याश्रय का बहुत बड़ा हाथ है। जब राज्याश्रय हट गया, तो बौद्धों पर आक्रमण हुआ। धर्मनिरपेक्षता की परीक्षा तभी होती है, जब राज्य में कई धर्म हों या धर्म और राज्य की मान्यताएँ एक-दूसरे से टकराती हों। यह टकराहट भारत में न होना दुर्भाग्यपूर्ण है। उदाहरण के लिए, जाति प्रथा के विरुद्ध विद्रोह होता और राज्य इस विद्रोह का समर्थन करता, क्या तब भी धर्म के साथ उसका सामंजस्य बना रहता?

भारत में जातियों और नस्लों की अस्मिताओं के जिस संकट की चर्चा की जाती है, उसका कारण कम से कम बहुसंख्यकों के जनमत से चलने वाला पश्चिमी ढंग का जनतंत्र तो नहीं ही है। यह समस्या सिर्फ हिन्दू-मुसलमान या हिन्दू-ईसाई रिश्तों में दिखाई देती है। अन्य मामलों में सच यह है कि भारत में अभी तक एक प्रकार का अल्पसंख्यक शासन रहा है- पश्चिमी ढंग का दिखाई पड़ने के इच्छुक एक अस्वस्थ एलीट वर्ग का अल्पसंख्यकवाद। यही कारण है कि उसने जातियों और नस्लों की समस्या को समझा ही नहीं।

पिछड़ावाद के अभ्युदय के कारण जरूर एक प्रकार की बहुसंख्यता दिखाई देती है। किन्तु कुल मिलाकर अभी भी स्थिति यह है कि अधिकांश सरकारें, लोकतांत्रिक अर्थ में, अल्पमत सरकारें ही हैं। उनमें से किसी को पचास प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन प्राप्त नहीं है। बहुलतावाद विवेकसंगत है, किन्तु सिर्फ उसी पर जोर देना उचित नहीं है। राष्ट्रीय जीवन की तो यह एक अनिवार्य स्थिति है। उसे लक्ष्य नहीं बनाया जाना चाहिए। लक्ष्य तो एक ऐसे जीवन दर्शन की खोज होगी, जिसे सभी अपना सकें। बहुलतावाद हिन्दू-मुस्लिम समस्या को सुलझाने के लिए प्रस्तावित किया जाता है, किन्तु यह सांस्कृतिक निष्क्रियतावाद में भी बदल सकता है। सापेक्षता का सम्मान होना चाहिए, किन्तु उसका उपदेश गैर-रचनात्मक तथा यथास्थितिवादी हो सकता है- बल्कि कुछ हद तक है भी। स्वायत्तता व्यर्थ है- यदि वह स्वतंत्रता का साधन नहीं बनती।

नयी एकल विश्व व्यवस्था इसके पूर्व की द्वि-ध्रुवीय विश्व-व्यवस्था से कुछ ज्यादा बुरी है, मैं ऐसा नहीं मानता। सच तो यह है कि इस व्यवस्था के कारण तीसरी दुनिया के देश पहली बार उन वास्तविक चुनौतियों का एहसास कर रहे हैं, जो शुरू से उनके सामने थीं। द्विध्रुवीय व्यवस्था ने उन्हें काफी समय तक एक मीठे भ्रम में रखा। लेकिन मानना भी गलत है कि यह एकल विश्व व्यवस्था तीसरी दुनिया पर थोप दी गयी है। वास्तविकता यह है कि तीसरी दुनिया के दिवालिया शासक वर्ग ने इस व्यवस्था को स्वयं अंगीकार किया है। अन्यथा क्या कारण है कि एक ओर भारत अमरीकी वर्चस्ववाद का विरोध भी करता है और दूसरी ओर उसी अमरीकी शासन से माँग करता रहता है कि वह पाकिस्तान को आतंकवादी राज्य घोषित करे? गैट का नया समझौता किसी भी देश पर सैनिक या किसी भी अन्य ताकत के बल पर आरोपित नहीं किया गया है।

अविकसित देशों की जनता को अपने इस नेतृत्व की कायरता को पहचानना चाहिए और अपने-अपने देश को शक्तिशाली बनाने की कोशिश करनी चाहिए। यह मुख्यतः राष्ट्र-निर्माण की चुनौती है। साथ ही, तीसरी दुनिया की एक विश्व नीति भी होनी चाहिए, जिसका आधार स्वतंत्रता, राष्ट्रों के बीच समानता आदि तो होना ही है, जिसका एक लक्ष्य विश्व गरीबी दूर करना और एक बेहतर विश्व का निर्माण करना है।

अमरीका या किसी भी देश से संघर्ष अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं हो सकता। राष्ट्र निर्माण और विश्व की पुनर्रचना के संघर्ष में अमरीका ही नहीं, वे सभी देश संघर्ष का निशाना बनेंगे, जो शोषण और वर्चस्व के अंतरराष्ट्रीय रिश्ते बनाये रखना चाहते हैं। शीत युद्ध के कारण प्रगतिशील विश्व राजनीति में अभी तक नकारात्मक लक्ष्यों पर ज्यादा जोर दिया गया है। अब आवश्यकता सकारात्मक उद्देश्यों के लिए संघर्ष करने की है। इसके कारण जो द्वंद्वात्मकता पैदा होगी, उसका स्वागत करना चाहिए।

विचारधाराओं का अंत के शोर पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए। वस्तुतः यह शोर साम्यवादियों ने ही ज्यादा मचाया है। इसका लक्ष्य अमरीकी विचार को तर्क के स्तर पर मात देना है। इस तरह यह शीत युद्ध का ही एक अवशेष ठहरता है। किसी अमरीकी या जापानी ने कोई ऐसी बात उड़ा दी, तो उसका कुछ खंडन जरूरी हो सकता है, किन्तु जो स्वतंत्रता और समानता के पक्षधर हैं, उन्हें अपनी विचारधारा को स्पष्ट करने और उसके पक्ष में जनमत बनाने की कोशिश करनी चाहिए।

अमरीकी विचार को तर्क से परास्त करने के बजाय अपनी और अपने देश की जीवन व्यवस्था में परास्त करना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। लेकिन हम पाते यह हैं कि पिछले दो सालों में भारत में विचाधारा या इतिहास के अंत की घोषणा का विरोध ज्यादा किया गया है, मूलगामी परिवर्तन की जरूरत का प्रचार कम किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि भारत के साम्यवादियों की रुचि समाजवाद के लिए काम करने में कम, अमरीका की निंदा करते रहने में ज्यादा है। यह नकारात्मक और निष्क्रियतावादी रवैया है।

परिवर्तन एक संभावना के रूप में हमेशा बना रहता है। यह संभावना कितनी वास्तविक होती है- यह मानवीय तैयारी पर भी निर्भर करता है। मनुष्य के सामने विकल्प हमेशा खुले रहते हैं। अतः कभी भी यह नहीं कहा जा सकता कि क्रांति असंभव हो चुकी है। यह भी स्पष्ट है कि मार्क्स के इतिहास-विश्लेषण में क्रांति एक अनिवार्य स्थिति प्रतीत होती है, यो यथार्थ-सम्मत सिद्ध नहीं हुआ है। क्रांति इस अर्थ में अनिवार्य है कि मनुष्य समता चाहता है, यद्यपि यह भी उतना ही सच है कि मनुष्य विषमता भी चाहता है। अंततः मानव समाज क्या रूप ले लेता है, यह इस पर निर्भर करता है कि उसे किस प्रकार का बौद्धिक नेतृत्व मिलता है।

(वाणी प्रकाशन से 2004 में प्रकाशित ‘एक भारतीय का दुख’ में ‘वैचारिक थकावट का समय’ शीर्षक से संकलित)

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