— डॉ सुरेश खैरनार —
मधु लिमये समाजवादी आंदोलन में जन्मना प्रतिभाशाली लोगों में से एक थे ! पंद्रह साल की उम्र से पहले ही, तत्कालीन ग्यारहवीं मैट्रिक बोर्ड की परीक्षा बगैर स्कूल में गए दी ! बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष से, विशेष इजाजत लेकर, मेरिट में पास होने के बाद, इंटर कॉलेज के दिनों में, 1938-39 में, दूसरे महायुद्ध में भारत के लोगों की परवाह किए बगैर, भारत को भी उस युद्ध में घसीटने के खिलाफ, जनजागरण में जुट गए! खानदेश में सोशलिस्ट पार्टी के काम को अंजाम देने के लिए इंटर कॉलेज की शिक्षा छोड़ दी. फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. बचपन से ही अध्ययन करने की आदत और देश-दुनिया की सामयिक घटनाओं के बारे में तथा राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा तत्वज्ञान, साहित्य और इतिहास तथा आर्थिक विषयों में जानकारी हासिल करते रहने के कारण उनकी वैचारिक परिपक्वता गजब की रही ! और विश्व युद्ध से लेकर जनतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता के सारतत्व को समझना और उसपर बोलने-लिखने का अभ्यास उन्होंने तभी शुरू कर दिया था जब वह बीस साल के भी नहीं हुए थे.
और सबसे अहम बात, 1930-40 के दौरान, पुणे में स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं की सभाओं में गड़बड़ी करने के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों के कृत्य को देखते हुए, जन्मना कोकणस्थ ब्राह्मण होने के बावजूद, होश संभालने से लेकर वह अपने जीवन के अंतिम दिन तक संघ या हिंदुत्ववादियों के खिलाफ रहे ! और उसकी कीमत भी जिंदगी भर चुकाई है. भारतीय संसदीय राजनीति में संघ परिवार के चाल-चरित्र के बारे में इतनी गहरी समझ रखने वाले लोग बिरले दिखाई देते हैं.
जीवन में स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर, गोवा मुक्ति और सोशलिस्ट पार्टी के विभिन्न आंदोलनों, तथा जयप्रकाश नारायण के बिहार आंदोलन में भाग लिया, और उसके बाद आपातकाल की लागू हुआ तो जेल में रहे. फिर जनता पार्टी का गठन, और उस पार्टी के विघटन के बाद की स्थिति ! इन सभी मुद्दों पर मधु लिमये की पैनी नजर रही. और लोकसभा में उनकी भूमिका तो बेजोड़ रही. कुल मिलाकर 73 साल की जिंदगी जिए जिसमें शुरू के तेरह साल बचपन के निकाल दें तो साठ साल का सार्वजनिक जीवन जीने वाले मधु जी की अड़तीस से अधिक किताबें हैं ! और अखबारों तथा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखन को देखते हुए समाजवादी आंदोलन के पुरोधाओं में से आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया की कड़ी में चौथा नाम मधु लिमये का दिखाई देता है. 1982 में वह सक्रिय राजनीति से अलग हो गए तो उसका एक कारण दमे की उनकी बीमारी और, मेरे हिसाब से, भारतीय समाजवादी आंदोलन पतन कहीं बड़ा कारक तत्व रहा.
वह चार बार लोकसभा के लिए चुने गए और प्रखर संसदीय भूमिका के लिए वह हमेशा याद किये जाएंगे. संसद की वर्तमान स्थिति को देखते हुए वह बरबस याद आते हैं.
आज से 28 साल पहले उन्होंने अपनी ‘धर्मांधता’ नामक किताब के आमुख में, 24 जनवरी 1994 को, लिखा है : “आजकल मेरा ज्यादातर लेखन बढ़ते जा रहे धार्मिक विद्वेष और उसके कारण निर्माण हो रहे संघर्ष के ऊपर है ! और ऐसी परिस्थिति से आजादी के बाद बनाए हुए संविधान, और उसके ऊपर खड़ी सुनियोजित राज्यसंस्था के ऊपर भीषण संकट मंडरा रहा है !” उन्होंने देश की सांप्रदायिक परिस्थिति के बारे में जो कुछ भी लिखा है वह आज हूबहू घटित होता दिखाई दे रहा है. मैं खुद गत तीस सालों से, भागलपुर के 1989 के दंगों के बाद से, बोलने लिखने की कोशिश कर रहा हूँ !
मधू लिमये ने अपनी मराठी किताब ‘धर्मांधता ‘के पेज नंबर 70 पर इस विषय पर अच्छी तरह रोशनी डाली है : “यह सचमुच ही बहुत ही दुखद है कि, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद, आज हिंदू सांप्रदायिकता को आमने-सामने की लड़ाई में पराजित नहीं कर सकता ! धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद ने मुस्लिम सांप्रदायिक कट्टरपंथी तत्वों के साथ समय-समय पर सिद्धांतहीन गठबंधन किया है. यह उसी का परिणाम है ! कांग्रेस पार्टी, प्रजा समाजवादी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी इन सभी ने मुस्लिम लीग के साथ कभी केरल में तो कभी तमिलनाडु में गठबंधन किया है ! और वैसा ही अन्य सांप्रदायिक तत्वों के साथ महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ ! (1955-56) संयुक्त महाराष्ट्र और महागुजरात के आंदोलन के दौरान ! कम्युनिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने ( द्विभाषा के मुद्दे पर ) मुंबई राज्य में गठबंधन किया है. जिसमें हिंदू महासभा तथा जनसंघ को भी शामिल किया गया था ! वैसे ही गोवा मुक्ति के आंदोलन के दौरान. और 1962 में डॉ राममनोहर लोहिया के गैरकांग्रेसी गठजोड़ में तो दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ हिंदू-मुस्लिम तथा सिखों के सांप्रदायिक दलों को जगह दी गई है ! इस गठबंधन ने कांग्रेस को पराजित करने के लिए अपनी भूमिका अदा की है ! लेकिन यहीं से जनसंघ तथा मुस्लिम लीग को अपना जनाधार बढ़ाने के लिए मौका मिला है !
जनसंघ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक इकाई है ! इस कारण संघ का ‘फासिजम और एकचालकानुवर्तित्व’ इन दोनों तत्वों की नींव के ऊपर उसकी संपूर्ण इमारत खडी है ! अगर ऐसा नहीं होता तो जनसंघ के मध्यमार्गी दल बनने की संभावना बहुत थी ! इसमें कोई दो राय नहीं है ! सरदार पटेल, लोहिया और जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परिवार के आयोजन तत्वों के महत्वपूर्ण मुद्दे को ( नॉनआटोनॉमस कॅरेक्टर – कठपुतली के जैसा संघ के इशारे पर, अपनी नीयत और नीतियों की रचना करना ! और उसके अनुसार कृति करना उसकी नियति है ! ) यह बात लोहिया और जयप्रकाश नारायण के ध्यान में नहीं आने के कारण ! 1977 के सितम्बर माह में जयप्रकाश नारायण ने संघ के प्रमुख को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विसर्जित करने का सुझाव दिया था. लेकिन संघ ने उस सुझाव को ठुकरा दिया.