— पवन नागर —
आज के दौर में आधा भारत पानी की कमी से परेशानी झेल रहा है। खबरों के मुताबिक चेन्नई में 40 प्रतिशत लग पानी के अभाव में हलाकान हैं, हालांकि शहर की ही झीलों और तालाबों पर अब बड़ी-बड़ी इमारतों का निर्माण हो चुका है। कमोबेश ऐसे ही हालात महाराष्ट्र के लगभग 24 हजार गाँवों के भी हैं। जाहिर है, जनता को पर्यावरण विनाश एवं जलवायु परिवर्तन की ‘वास्तविक’ समस्या से जूझना पड़ रहा है, लेकिन इन समस्याओं के लिए न तो हमारी राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में कोई जगह है और न ही आम जनता को इसकी भयावहता का कोई अहसास है। हम सब अभी इसे कोई खतरा मान ही नहीं रहे हैं या शायद जानकर भी अनजान बने हुए हैं।
सोचने की बात है कि पानी की इतनी परेशानी क्यों आ रही है? दरअसल, हम विकास की होड़ में पागलों-जैसा व्यवहार करने लगे हैं।
परेशानी विकास में नहीं है, विकास के पश्चिमी मॉडल का अंधानुकरण करने में है। हम अपनी स्थानीय परिस्थितियों की अनदेखी करके जो विकास कर रहे हैं वह वास्तव में विनाश को बुलावा दे रहा है। पानी के मामले में भी यही बात है। पानी की समस्या के लिए जितनी जिम्मेदार सरकारें और उनके नुमाइंदे हैं उतनी ही जनता भी है।
भारत की भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप भरपूर जल एवं उसके संयमित उपयोग की जो स्थानीय एव आत्म-निर्भर संस्कृति हमारे पुरखों ने विकसित की थी, जिसके तहत जल-स्रोतों का संरक्षण-संवर्धन राजधर्म के साथ-साथ समाज-धर्म भी माना जाता था, उसे हमने आधुनिक होने की होड़ में भुला दिया। पहले के लोग अपने उपयोग के पानी की व्यवस्था स्वयं करने में विश्वास रखते थे, जबकि आज का आदमी कहता है कि यह मेरा काम नहीं, मैं तो सरकार को टैक्स देता हूँ इसलिए सरकार ही जाने कि कैसे व्यवस्था करनी है। पहले के लोग प्रकृति से सीधे जुड़े थे और जानते थे कि उसे प्रसन्न कैसे रखना है, जबकि आज के आदमी की त्रासदी ही यही है कि वह केवल और केवल उपभोक्ता हो गया है, उत्पादक होने का धर्म निभाना उसने छोड़ दिया है। वह भूल गया है कि धरती सबकी आवश्यकताएँ तो पूरी कर सकती है, परंतु एक का भी लालच नहीं।
हम जो कभी नदियों को माँ का दर्जा दिया करते थे, अब उन्हें बस एक दुधारू गाय की तरह देखने लगे हैं। असंख्य कुओं, तालाबों, बावड़ियों व अनेकानेक प्रकार की जल-संरचनाओं की समृद्ध विरासत वाले देश के लोग आज सरकारी नल-जल योजनाओं का मुँह ताक रहे हैं।
पहले पानी की इतनी समस्या नहीं थी। हर खेत में कुएँ बनाए जाते थे और गाँव-गाँव में तालाबों का निर्माण होता था, जिनमें बारिश का पानी जमा हो जाता था। इनसे पीने के पानी के साथ-साथ फसल के लिए भी पर्याप्त पानी मिल जाता था, परंतु जब से ट्यूबवेल भारत में आए हैं, तब से ही हमने परंपरागत जल-स्रोतों को खत्म कर दिया है, नतीजे में भूजल-स्तर दिन-ब-दिन गिरता ही जा रहा है। दूसरी वजह यह है कि किसानों ने ज्यादा उत्पादन के लालच में रासायनकि खादों का इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा करना शुरू कर दिया है। रासायनिक खाद की बदौलत किसान के खेत की जमीन बहुत सख्त हो गयी है जिससे बारिश का पानी जमीन में पहुँचे बिना ऊपर से ही बहकर निकल जाता है।
भारत में वैसे भी जलवायु के अनुकूल खेती होती थी। जहाँ पानी की जैसी उपलब्धता थी, वैसी ही फसलें लगायी जाती थीं। अब तो जो इलाके परंपरागत रूप से सूखे रहे हैं और वर्तमान में और भी अधिक पानी की कमी का सामना कर रहे हैं वहाँ के किसान भी धान लगा रहे हैं! प्रकृति कहाँ क्या उगाती है इससे हमें अब कोई मतलब नहीं रहा, हमें केवल अधिक मुनाफे से मतलब है।
देश की बाकी जनता भी पानी का दुरुपयोग करने और इसके संरक्षण के प्रति उदासीन रहने में किसी से पीछे नहीं है जहाँ तरह-तरह के छोटे-बड़े वाहन धोने में ही काफी पानी बर्बाद कर दिया जाता है।
सभी इमारतों में बारिश के पानी को जमीन में उतारने के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाना अनिवार्य है, परंतु शायद ही कोई लगवाता हो। एक तरफ सारी जमीन कंक्रीट से ढँक दी गयी, तिस पर रेन वाटर हार्वेस्टिंग भी नहीं की गयी तो पानी की समस्या तो आएगी ही क्योंकि जितना पानी आप जमीन से ले रहे हो उतना तो उसे लौटाना ही पड़ेगा। प्रकृति आपको भरपूर पानी दे रही है, भरपूर शुद्ध हवा दे रही है, बिलकुल शुद्ध वातावरण दे रही है, तो फिर आप उसके साथ कैसे बेईमानी कर सकते हो?
आपका परिवार जितना पानी उपयोग कर रहा है उतना ही पानी बारिश में संरक्षित करके कुदरत को लौटा दीजिए, फिर देखिए आपको पानी की कमी नहीं होगी। वैसे ही जितने पेड़ों को काटा जा रहा है या आपके उपयोग की चीजों को बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, उतने पेड़ तो कम-से-कम वापस लगाओ। यदि आप सोचते हैं कि प्रकृति का ‘कर्ज’ न चुकाने पर प्रकृति आपके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, तो आप बिलकुल गलत हैं। आप प्रकृति के साथ जितनी बेईमानी करोगे, उतनी ही अपनी कब्र खोदोगे।
यदि प्रकृति का ‘बैंक’ खाली हो गया और वो आपको ‘कर्ज’देने में असमर्थ हो गयी तब आपका क्या हाल होगा, आप समझ सकते हैं। कुदरत के साथ जितनी बेईमानी होगी, कुदरत उतनी ही भूमि, गगन, वायु, अग्नि, जल जैसी मूलभूत जरूरतों के लिए आपको तरसाएगी।
पानी की समस्या हल करने का सबसे आसान तरीका यही है कि हमें हमारे पुराने परंपरागत तरीकों को अपनाना होगा। खेतों में कुएँ और तालाब फिर से बनाने होंगे। यदि हर एक किसान यह प्रण कर ले कि मेरे पास जितनी जमीन है उसके 1/10 भाग में तालाब बनाऊँगा तो पानी की समस्या इस प्रकार से विकराल रूप नहीं लेगी। तालाब बनाने का सबसे पहला फायदा तो यह है कि भूजल स्तर कम नहीं होता। दूसरा, जहाँ तालाब बना हुआ है वहाँ आसपास की जगह में नमी बनी रहती है। तीसरा, जमीन में नमी होने से सूक्ष्म जीव जीवित रहते हैं जो जमीन को उपजाऊ बनाते हैं। इसी तरह गाँव में जगह-जगह सोख्ते गड्ढे बनाएँ ताकि पानी बिलकुल भी बर्बाद न हो।
अब यह जरूरी हो गया है कि जलवायु अनुकूल प्राकृतिक खेती की जाए। यदि कम वर्षा वाले इलाके से हैं तो ऐसी ही फसलें लें जो कम पानी में होती हों। इससे लंबे समय तक खेती से लाभ कमाया जा सकता है। प्रकृति के साथ सोने के अंडे देने वाली मुर्गी का एक बार में पेट फाड़कर सारे अंडे निकाल लेने वाला व्यवहार मत कीजिए।
(सप्रेस)