
— रामधारी सिंह दिनकर —
संस्कृति और सभ्यता- ये दोनों दो शब्द हैं और उनके मानी भी अलग-अलग होते हैं। सभ्यता मनुष्य का वह गुण है जिससे वह अपनी बाहरी तरक्की करता है। संस्कृति मनुष्य का वह गुण है जिससे वह अपनी भीतरी उन्नति करता है; दया, माया और परोपकार सीखता है; गीत-नाद, कविता, चित्र और मूर्ति से आनंद लेने की योग्यता हासिल करता है।
एक वह भी समय था जब आदमी को घर बनाना नहीं आता था, जब वह पेड़ की छाया या पहाड़ की खोह में वास करता था; जब खेती करना भी नहीं आता था और वह कन्द-मूल या जंगली जीवों का गोश्त खाकर गुजारा करता था; जब उसे कपड़ा बुनना भी नहीं आता था और वह या तो नंगा रहता था या पेड़ों की छाल या जानवरों की खाल पहनकर अपनी लाज छिपाता था। इस हालत को मनुष्य की असभ्यता की हालत कहते हैं। लेकिन, इस हालत से निकलकर आदमी ज्यों-ज्यों आगे बढ़ा, त्यों-त्यों वह सभ्य होता गया। यानी जब आदमी खेती करके अनाज उपजाने लगा, अनाज या गोश्त को आग से पकाकर खाने लगा, घर बनाकर रहने और कपड़े बुनकर उन्हें पहनने लगा, तब वह असभ्यता से निकलकर सभ्यता में आने लगा। आज भी रेलगाड़ी, मोटर और हवाई जहाज, लंबी-चौड़ी सड़कें और बड़े-बड़े मकान, अच्छा भोजन और अच्छी पोशाक, ये सभ्यता की पहचान हैं और जिस देश में इनकी जितनी ही अधिकता है उस देश को हम उतना ही सभ्य मानते हैं।
मगर, संस्कृति इन सब से कहीं बारीक चीज है। वह मोटर नहीं, मोटर बनाने की कला है; मकान नहीं, मकान बनाने की रुचि है। अच्छे भोजन का सामान हम सभ्यता के जरिये पैदा करते हैं, लेकिन जिस ढंग से हम भोजन तैयार करते हैं और जिस कला से हम उसे खाते हैं वह हमारी संस्कृति कहलाती है। हर सभ्य आदमी संस्कृत भी होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अच्छी-से-अच्छी पोशाक पहनने वाला आदमी भी तबियत से नंगा हो सकता है और नंगा होना संस्कृति के खिलाफ बात है। संस्कृति धन नहीं, गुण है। संस्कृति ठाठ-बाट नहीं, विनय और विनम्रता है।
एक कहावत है कि सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है, लेकिन संस्कृति वह गुण है जो हममें छिपा हुआ है। हमारे पास घर होता है, कपड़े-लत्ते होते हैं, गाय, भैंस, बैल, घोड़े, हाथी, मोटर और हवाई जहाज भी होते हैं। मगर ये सारी चीजें हमारी सभ्यता के सबूत हैं, जिनसे यह जाना जा सकता है कि जिंदगी की मोटी और बाहरी सुविधाएँ हमने कहाँ तक हासिल की हैं। लेकिन संस्कृति इतने मोटे तौर से दिखलाई नहीं देती;वह बहुत ही सूक्ष्म और महीन चीज है और वह हमारी हर पसंद, हर आदत में छिपी रहती है।
मकान बनाना सभ्यता का काम है, लेकिन हम मकान का कौन-सा नक्शा पसंद करते हैं- यह हमारी संस्कृति बतलाती है;कपड़ा तैयार करना सभ्यता का काम है, लेकिन उसकी डिजाइन कैसी हो- यह हमारी संस्कृति बतलाती है; हथियार गढ़ना सभ्यता का काम है, लेकिन उस हथियार से किसी को मारना ठीक है या नहीं यह बतलाना संस्कृति का काम है। आज दुनिया में बड़े-बड़े बम और दूसरे हथियार बन रहे हैं, क्योंकि सभ्यता के मामले में दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी है; लेकिन संस्कृति पुकार-पुकार कर कह रही है कि इन बमों और हथियारों को काम में मत लाओ, क्योंकि इनसे दुनिया बरबाद हो जाएगी।
एक बात और है कि आदमी के भीतर जो छह विकार (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर) हैं वे प्रकृति के दिए हुए हैं। मगर, ये विकार अगर छोड़ दिये जाएँ तो आदमी इतना गिर जाय कि उसमें और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाय। इसलिए, आदमी इन विकारों पर रोक लगाता है और कोशिश करता है कि उसमें काम को बढ़ना नहीं, घटना चाहिए, गुस्से को ज्यादा नहीं, कम होना चाहिए और लोभ, मोह, मद, मत्सर को भी एक हद में रहना चाहिए। इन दुर्गुणों पर जो आदमी जितना ज्यादा काबू कर पाता है उसकी संस्कृति भी उतनी ही ऊँची समझी जाती है।
संस्कृति का काम आदमी के दोष को कम, उसके गुण को अधिक बनाना है। आदमी भी एक तरह का जानवर ही है, लेकिन जानवर के गुण यानी पशुत्व को छोड़कर वह जितना ही आगे बढ़ता है, उसकी संस्कृति भी उतनी ही अच्छी होती जाती है।
संस्कृति का स्वभाव है कि आदान-प्रदान से बढ़ती है। जब दो देशों या जातियों के लोग आपस में मिलते हैं तब उन दोनों की संस्कृतियाँ एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। एक जाति का धार्मिक रिवाज दूसरी जाति का रिवाज बन जाता है और एक देश की आदत दूसरे देश के लोगों की आदत में समा जाती है। इसलिए, संस्कृति की दृष्टि से वह जाति या वह देश बहुत ही धनी समझा जाता है जिसने ज्यादा-से-ज्यादा देशों या जातियों की संस्कृतियों से लाभ उठाकर अपनी संस्कृति का विकास किया हो। ऐसे देशों में भारत का नाम बहुत ही आदर के साथ लिया जाता है, क्योंकि यहाँ के लोग संस्कृति के मामले में बड़े उदार रहे हैं।
यही नहीं बल्कि, हम जिसे अपनी संस्कृति कहते हैं वह एक जाति या कुछ थोड़े-से लोगों की संस्कृति नहीं है, बल्कि बहुत पुराने समय से जो अनेक जातियाँ इस देश में आती रही हैं उन सबकी संस्कृतियों के प्रभाव हमारी भारतीय संस्कृति पर पड़ते रहे हैं और उन्हीं प्रभावों को ठीक से अपने भीतर पचाकर हमारी संस्कृति इतनी विशाल और उदार हो गयी है कि आज वह सारी दुनिया की संस्कृति का आईना बन सकती है।
यह भी ध्यान देने की बात है कि भारतीय संस्कृति का जब-जब किसी विदेशी संस्कृति से मिलन हुआ, तब-तब हमारी संस्कृति में एक नयी ताजगी आ गयी।
असल में, भारतीय संस्कृति में बसंत ऋतु बड़े पैमाने पर चार बार आयी है और इन चारों मौकों पर हमारी फुलवारी में जो लहलहाहट पैदा हुई, जो फूल खिले, वे हमारी संस्कृति को आज भी ताजा बनाये हुए हैं। इन चार अध्यायों में पहला अध्याय वह है जब आर्य इस देश में आए और द्रविड़ जाति से मिलकर उन्होंने उस संस्कृति की नींव डाली जिसे हम हिन्दू अथवा भारतीय संस्कृति कहते हैं।
दूसरा अध्याय वह है जब कि यह संस्कृति कुछ पुरानी हो गयी और उसके खिलाफ महात्मा बुद्ध और महावीर ने विद्रोह किया जिसके फलस्वरूप बहुत-सी रूढ़ियाँ दूर हुईं और यह संस्कृति एक बार फिर से नवीन हो गयी। तीसरा अध्याय वह है जब इस देश में मुसलमान आए और हिन्दू-धर्म का इस्लाम से संबंध हुआ और चौथा अध्याय वह है जब भारत की मिट्टी पर ही हिन्दुत्व और इस्लाम, दोनों का संबंध ईसाई धर्म और यूरोप के विज्ञान और बुद्धिवाद से हुआ।
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