राजस्थान का स्वास्थ्य अधिकार कानून : क्या डॉक्टरों का विरोध वाजिब है?

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— छाया पचौली —

क्कीस मार्च, 2023 को राजस्थान देश का पहला ऐसा राज्य बन गया, जिसने स्वास्थ्य के अधिकार को कानूनी जामा पहनाते हुए “राजस्थान स्वास्थ्य का अधिकार विधेयक 2023’ विधानसभा में पारित किया। यह विधेयक जो कि अब कानून का रूप ले लेगा, स्वास्थ्य क्षेत्र एवं स्वास्थ्य अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में एक महत्त्वपूर्ण कदम है जिसका न केवल राजस्थान राज्य बल्कि देश के हर नागरिक को स्वागत करना चाहिए।

इस विधेयक के पारित होने से स्वास्थ्य का अधिकार, जिसको अब तक हम मुख्यतः हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित जीने के अधिकार से प्राप्त करते थे, को एक विस्तृत रूप और कानूनी प्रतिबद्धता मिल गयी है।

इस कानून को लाने की प्रक्रिया काफी लम्बी और जटिल रही है। राज्य के विभिन्न स्वयंसेवी संगठन और खासकर जन स्वास्थ्य अभियान लम्बे समय से इस कानून की मांग उठाता रहा है। अभियान द्वारा 2018 के राज्य चुनावों से पूर्व एक मुहिम चलायी गयी थी कि राजनीतिक पार्टियां अपने चुनावी घोषणापत्र में स्वास्थ्य का अधिकार कानून लाने का वायदा करें।

राज्य की वर्तमान सत्ताधारी पार्टी ने इस वायदे को तत्पश्चात अपने चुनावी घोषणापत्र में सम्मिल्लित किया था। नई सरकार बनते ही 2019 में अभियान द्वारा स्वास्थ्य का अधिकार कानून का एक मजबूत प्रारूप बनाकर सरकार के समक्ष रखा गया था जिसके आधार पर सरकार द्वारा चिकित्सकों, स्वयंसेवी संगठनों व अन्य समूहों के साथ चर्चा कर विधेयक तैयार करने की प्रक्रिया की शुरुआत की गयी थी। हालांकि कोविड19 महामारी के आते ही यह प्रक्रिया थम गयी और फिर 2021 के अंत में प्रक्रिया को वापस कुछ गति मिली।

मार्च 2022 में सरकार द्वारा सुझावों को आमंत्रित करते हुए विधेयक का प्रथम मसौदा जनता के समक्ष रखा गया था। यह मसौदा हालांकि स्वयंसेवी संगठनों द्वारा दिए गए मसौदे से काफी भिन्न और कमजोर था। प्राप्त सुझावों के आधार पर विधेयक में कुछ और बदलाव कर सरकार द्वारा इसे सितम्बर 2022 में विधानसभा में पेश किया गया, किन्तु निजी चिकित्सकों के विरोध के चलते इसे प्रवर समिति को भेजने का निर्णय लेना पड़ा।

प्रवर समिति व सरकार के उच्च अधिकारियों द्वारा चिकित्सकों के साथ कई चर्चाओं बाद उनकी मांगों को ध्यान में रखते हुए विधेयक में कई और संशोधन किये गए और 21 मार्च 2023 को प्रवर समिति द्वारा संशोधित विधेयक को पुनः विधानसभा में पेश कर सर्वसम्मति से इसे पारित किया गया।

हालांकि इन सबके बीच भी निजी चिकित्सक लगातार इस कानून का विरोध करते रहे, जो कि अब तक जारी है। इसके चलते राज्य भर में निजी स्वास्थ्य सेवाएं ठप पड़ी हैं, जिससे कि आम जन को कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। निजी चिकित्सकों की सरकार से एक ही मांग है कि इस कानून को वापस लिया जाए।

यह समझना आवश्यक है कि यह कानून मुख्य रूप से सरकारी स्वास्थ्य सेवा तंत्र को मजबूत करने पर केन्द्रित है और इसलिए कानून के तहत सरकार की अधिकतर प्रतिबद्धताएं इसी दिशा में हैं, न कि निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र को नियंत्रित करने की दिशा में, जैसा कि कई निजी चिकित्सकों द्वारा प्रचारित किया जा रहा है।

नए कानून के अंतर्गत अब राज्य में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सरकारी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र से तमाम स्वास्थ्य सेवाएं पूर्णतः निःशुल्क प्राप्त करने का अधिकार होगा। जायज है कि इस प्रतिबद्धता के चलते सरकार को कई ऐसे ठोस कदम उठाने होंगे, जिससे सरकारी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का ढांचा और सुदृढ़ तथा सुव्यवस्थित हो और लोगों को कानून के तहत उल्लेखित सभी सेवाएं गुणवत्तापूर्ण व निर्बाध रूप से बिना, किसी जेब से खर्च के, निश्चित दूरी पर, उन्हें मिल सकें।

इसके अलावा यह कानून रोगियों को कई अन्य अधिकार प्रदान करता है। जैसे- जांच व उपचार रिपोर्ट प्राप्त करने का अधिकार, उपचार के मदवार बिलों को प्राप्त करने का अधिकार, यदि किसी महिला रोगी की जांच पुरुष चिकित्सक द्वारा की जा रही है तो रोगी के साथ किसी अन्य महिला की उपस्थिति का अधिकार, स्वास्थ्य सेवाओं की दरों और शुल्कों के बारे में जानकारी प्राप्त करने का अधिकार, दवाओं या जांचों को प्राप्त करने के स्रोत का स्वयं चयन कर पाने का अधिकार इत्यादि।

कानून में यह भी कहा गया है कि इसके नियमों के अंतर्गत रोगियों की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों एवं स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के अधिकारों और जिम्मेदारियों को भी तय कर सम्मिलित किया जाएगा। साथ ही यह कानून स्वास्थ्य बजट में उचित प्रावधान करने, मानव संसाधन नीति को विकसित करने, शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने इत्यादि के लिए भी प्रतिबद्ध है। इसमें इस कानून की अवहेलना पर पेनाल्टी का भी प्रावधान है।

अधिनियम में एक प्रमुख प्रावधान ये भी है कि कुछ आपातकालीन स्थितियों जैसे- दुर्घटना, सांप/जानवर का काटना अथवा प्रसूति संबंधित आपात स्थितियों या मेडिको लीगल केसों में चिकित्सालय रोगी द्वारा पूर्व भुगतान नहीं किये जाने की स्थिति में उसे उपचार देने से मना नहीं कर सकेंगे और यदि रोगी प्राप्त-उपचार का भुगतान करने में असमर्थ होता है तो चिकित्सालय को उस खर्च का पुनर्भरण राज्य सरकार द्वारा किया जाएगा। इस प्रावधान को लेकर निजी चिकित्सकों में खासा असंतोष है।

यह निश्चित ही एक महत्त्वपूर्ण कानून है, किन्तु इसमें कुछ कमियां भी हैं। निजी चिकित्सकों की मांगों को ध्यान में रखते हुए इस कानून में कुछ ऐसे संशोधन किये गए, जिससे कानून और कमजोर हो गया। जैसे कि- कानून के तहत गठित किये जाने वाले राज्य एवं जिला स्तरीय प्राधिकरणों में केवल सरकारी अधिकारी व इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के चिकित्सकों का प्रतिनिधित्व है।

जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ, जन प्रतिनिधि, सिविल सोसायटी, परामेडिक स्टाफ इत्यादि की इन प्राधिकरणों में सदस्यता को निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र की मांग के दबाव के चलते नहीं रखा गया। इस प्रकार ये प्राधिकरण अत्यंत गैरसमावेशी व अलोकतांत्रिक सरकारी ढांचे की तरह प्रतीत होते हैं।

इन प्राधिकरणों की रोगी शिकायत निवारण प्रक्रिया में अहम भूमिका होगी। ऐसे में, ये किस प्रकार अपनी जिम्मेदारी निष्पक्ष रूप से निभा पाएंगे यह एक बड़ा प्रश्न है।

विधेयक के पूर्व-मसौदे में रोगी द्वारा किसी चिकित्सालय से संबंधित शिकायत दर्ज करने हेतु वेब पोर्टल व हेल्पलाइन के प्रावधानों की बात की गयी थी, लेकिन प्रवर समिति द्वारा इन दोनों प्रावधानों को हटाकर शिकायत दर्ज करने हेतु मात्र लिखित में शिकायत के प्रावधान को ही रखा गया है। रोगी अपनी शिकायत संबंधित चिकित्सालय के प्रभारी को देगा। ऐसे में संभव है कि कई रोगी चिकित्सालय में लिखित में शिकायत करने में असहज महसूस करेंगे।

इसके अलावा यह कानून सिर्फ राजस्थान के निवासियों पर लागू होगा, जो कि अत्यंत भेदभावपूर्ण है। इसके चलते राज्य की जनसंख्या का एक बड़ा जरूरतमंद तबका, जिसमें प्रवासी मजदूर, शरणार्थी, घुमंतू, बेघर लोग शामिल हैं, इस कानून के लाभों से वंचित रह जाएंगे।

राज्य सरकार को अतः सुनिश्चित करना होगा कि जब कानून के नियम बनाएं जाएं तो वे उपर्युक्त बिन्दुओं पर विशेष ध्यान दें और जहां तक संभव हो नियमों में इन विसंगतियों को दूर करने का प्रयत्न करें।

बिल का विरोध कर रहे निजी चिकित्सकों का यह कहना, कि इस कानून में उनकी मांगों को सम्मिलित नहीं किया गया, गलत है। प्रवर समिति द्वारा पहले ही विधेयक में निजी चिकित्सकों के कहे अनुसार कई संशोधन किये जा चुके हैं।

उनका यह भय भी बिलकुल बेबुनियाद है, कि इस कानून के लागू होने से राजस्थान का निजी चिकित्सा क्षेत्र ध्वस्त हो जाएगा, क्योंकि कानून में आपातकालीन सेवा से संबंधित एक खंड में यह कहा गया है कि रोगी द्वारा खर्च का भुगतान नहीं कर पाने की स्थिति में सरकार उसका भुगतान करेगी।

इसके अलावा अन्य कहीं भी उन पर किसी भी प्रकार के नियंत्रण की या उनके द्वारा प्रदत्त सेवाओं की दरों को सीमित करने की बात नहीं कही गयी है। खर्च के पुनर्भरण को लेकर उनकी कुछ शंकाएं हो सकती हैं, किन्तु उनमें कानून के नियम बनने की प्रक्रिया के दौरान और स्पष्टता आना निश्चित है।

चिकित्सकों को यह समझना होगा कि यह कानून जितना जनहित में है उतना ही उनके हित में भी है। सरकारी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के मजबूत होने से सरकारी चिकित्सक बेहतर संसाधनों के बीच अपनी सेवाएं प्रदान कर पाएंगे, जिससे उनकी कार्य कुशलता बढ़ेगी व रोगियों में सेवाओं के प्रति अधिक संतोष होगा।

साथ ही सरकारी व निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में पारदर्शिता व जवाबदेही बढ़ने तथा रोगी व चिकित्सकों के अधिकार, जिम्मेदारियां व कर्तव्य कानूनी रूप से निर्धारित होने से उनके बीच पारस्परिक रिश्ते भी मजबूत होंगे, जिससे स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं पर हिंसा जैसे मामलों में भी निश्चित ही कमी आएगी।

चिकित्सकों को अतः इस कानून को वापस लेने के हठ को छोड़ आगे बढ़कर इस कानून का समर्थन करना चाहिए और फिर भी अगर उनकी कुछ शंकाएं हैं तो उन्हें दूर करने के लिए सरकार से खुलकर संवाद करना चाहिए।

हम मानते हैं कि इस कानून के आने से सरकारी स्वास्थ्य सेवा तंत्र और मजबूत होगा। आम जन और खासकर निर्धन एवं वंचित आबादी को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं बिना किसी आर्थिक भार के प्रभावी रूप से मिल पाएंगी व राज्य के स्वास्थ्य सूचकांकों में सुधार आएगा।

सरकार को अविलम्ब इस कानून के नियम बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ करनी चाहिए, ताकि जल्द से जल्द आम जन को इस कानून का लाभ मिलना शुरू हो।

(down to earth से साभार; लेखिका जन स्वास्थ्य अभियान, राजस्थान से जुड़ी हुई हैं)

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