असंतुष्ट होने का समय

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राजकिशोर (2 जनवरी 1947 – 4 जून 2018)

— राजकिशोर —

क्या आप अपने जीवन से असंतुष्ट हैं? क्या आपको अपना घर छोटा, अपना टीवी खराब और अपनी गाड़ी बाबा आदम के जमाने की लगती है? क्या आप अपनी मौजूदा नौकरी या मौजूदा व्यवसाय से संतुष्ट नहीं हैं? अगर हाँ, तो आप बधाई के पात्र हैं।  आप आधुनिक हैं तथा आधुनिक सभ्यता आप ही की है। इस आधुनिक, औद्योगिक सभ्यता के पहले संतोष या संतुष्ट होना अच्छा माना जाता था। आज चक्र उलटा घूम चुका है। मौजूदा समय में जो अपनी स्थिति से संतुष्ट है, उसने अपनी तकदीर पर ताला जड़ दिया है। उसका कोई भविष्य नहीं है। वह घोड़ों के बीच गधे की रफ्तार से चलना चाहता है। इसके विपरीत, एक असंतुष्ट गधा जल्द ही सफल घोड़ा बन जाता है। जिंदगी सतत दौड़ की प्रतिद्वंद्विता है। जो बीच में थक कर बैठ गया, उसे कोई इनाम नहीं मिलेगा। कंद-मूल-फल खाकर गुजारा करना ही उसकी नियति है। वह दौड़ रहे घोड़ों को हिकारत की निगाह से देख सकता है, लेकिन ये घोड़े भी उसे कोई अच्छी निगाह से नहीं देखेंगे। खेल के नियम तय कर दिये गये हैं। जो इन नियमों की मातहती स्वीकार करने को तैयार नहीं है, वह खेल से बाहर कर दिया जाएगा।

ऐसा नहीं है कि असंतोष का तत्त्व पहली बार सभ्यता में आया है। सुकरात ने बहुत पहले कहा था कि असंतुष्ट सूअर संतुष्ट मनुष्य से बेहतर होता है। यह जरूर है कि सुकरात का असंतोष मानसिक या बौद्धिक था। वह जानना चाहता था कि सत्य क्या है, नैतिकता क्या है, राज्य का धर्म क्या होना चाहिए, यही जीवन अंतिम है या इसके बाद भी जीवन है। जिन मनुष्यों के मन में ये सवाल नहीं उठते, वे उसे सूअर से भी बदतर लगते थे- बशर्ते कोई असंतुष्ट सूअर मिल जाए।

मनुष्य के असंतोष का यह सिर्फ एक आयाम है। दूसरा आयाम है अपनी भौतिक स्थिति से असंतोष। मनुष्य इसीलिए मनुष्य बन पाया, क्योंकि दोनों तरह के असंतोष उसके भीतर थे। वह चारों पैरों से चलकर संतुष्ट नहीं था, इसलिए उसने दो पैरों का इस्तेमाल हाथों के रूप में करना शुरू कर दिया। इससे अनंत संभावनाएँ खुल गयीं- निर्माण की भी और विध्वंस की भी। वह पेड़ से तोड़ कर फल और शिकार कर पशुओं का कच्चा मांस खाकर संतुष्ट नहीं था। अतः उसने खेती का आविष्कार किया और आग जलाना सीखा। बोल कर अपनी अभिव्यक्ति करना उसे पर्याप्त नहीं लगा, जिससे लिखावट का जन्म हुआ। उसकी समझ में नहीं आता था कि पानी क्यों बरसता है, दिन और रात क्यों होते हैं तथा उसकी प्रिया के पेट में अचानक बच्चा कैसे आ जाता है। ऐसे अनेक रहस्य थे जो उसकी समझ की सीमा से परे थे।

इनकी व्याख्या करने के लिए देवी-देवताओं की कल्पना की गयी। जब सभ्यता आगे बढ़ी और इन देवी-देवताओं से उसका काम नहीं चला, तो ईश्वर आया। जो कुछ शक्की मिजाज के थे और आस्था के बजाय तर्क से काम लेते थे, उन्हें ईश्वर की जरूरत नहीं पड़ी। उन्होंने दावा किया कि ईश्वर ने हमें नहीं बनाया है, हमने ईश्वर को बनाया है। निःसंदेह यह समय था, जब मनुष्य सचमुच धरती पर बहुत कुछ बना चुका था और ईश्वर-ईश्वर खेलने लगा था। जेनोम परियोजना उसी की चरम परिणति है।

लेकिन औद्योगिक क्रांति के पूर्व असंतुष्ट होने की सीमा थी। मनुष्य भावना और विचार के क्षेत्र में तो अबाध संचरण कर सकता था, क्योंकि मन की गति प्रकाश की किरण से भी ज्यादा तीव्र है, लेकिन उसकी भौतिक उपलब्धियों की सीमा थी। खेती का हाल यह था कि किसी भी देश की लगभग तीन-चौथाई आबादी को इस सुस्त काम में लगे रहना पड़ता था। कपड़ा इतना नहीं बन पाता था कि सभी अपने को ढक कर रख सकें। संवाद के साधन सीमित थे। किताबें हाथ से लिखी जाती थीं, अतः ज्यादातर लोग अक्षरों की दुनिया से बाहर ही रहते थे। तमाम भारी काम या तो पशु करते थे या मनुष्यों को स्वयं करना पड़ता था।

ताजमहल अगर आज बनाया जाए, तो शाहजहां के समय की तुलना में समय भी कम लगेगा और कम श्रमिकों की भी जरूरत होगी। सबसे बड़ी बात यह है कि भारी-भारी पत्थर आदमी नहीं, मशीनें उठाएंगी। यह और बात है कि आज अनेक लोग दलाली खा जाएंगे और कहीं ताजमहल का टेंडर उठा, तो करोड़ों रुपयों का भ्रष्टाचार होगा। पहले एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए सबसे तेज सवारी घोड़ा थी। सबसे बड़ी बात यह है कि उत्पादन की क्षमता बहुत कम थी। अतः जिसे आज रहन-सहन का शालीन स्तर कहा जाता है, वह मुट्ठी भर लोगों को ही उपलब्ध हो सकता था। शेष लोग गरीबी का जीवन जीने को अभिशप्त थे।

विचारों पर पदार्थ की कितनी गहरी छाया होती है- यह औद्योगिक सभ्यता के पूर्व के जीवन दर्शन से पता चलता है। तब का शायद ही कोई विचार हो, जो संतोष और कम उपभोग पर जोर न देता हो। सादा जीवन उच्च विचार आज का मुहावरा है- वह भी अँग्रेजी से आया हुआ, लेकिन यह पूर्व-आधुनिक जीवन दर्शन का एक सुंदर संक्षेपण है। हमारे ऋषि-मुनियों ने भौतिकता के पीछे न भागने की सलाह दी। ईसा मसीह ने कहा कि सुई के छेद से ऊँट निकल सकता है, पर धनवान व्यक्ति स्वर्ग में नहीं जा सकता। अधिकांश धर्मों में स्वर्ग की कल्पना की गयी, जहाँ कल्पना के दायरे में आ सकने वाली सभी सुख-सुविधाएँ सहज ही उपलब्ध थीं, क्योंकि भूख-प्यास और अभाव से भरी इस धरती पर स्वर्ग नहीं बसाया जा सकता था। बौद्ध और जैन धर्मों में स्वर्ग और नरक की परिकल्पना नहीं है, पर इच्छाओं पर नियंत्रण और अपरिग्रह का संदेश जरूर है। दरअसल, वह पूरी सभ्यता इच्छाओं पर काबू पाने तथा संतोषं परम सुखं की सभ्यता थी।

अमीर उस जमाने में भी होते थे। राजा शान-शौकत से रहते थे। व्यापारी वर्ग पर लक्ष्मी की कृपा थी। इनके लिए यह आवश्यक नहीं था कि इच्छाओं पर नियंत्रण रखा जाए। यहाँ तक कि वे पूरा रनिवास बसा सकते थे। अकबर के हरम में तीन सौ रानियाँ थीं, जिनमें से एक यूरोप से लायी गयी थी। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि सबका जीवन दर्शन एक जैसा था। जो वीर थे, वे वसुंधरा का भोग करते थे। तुलसीदास की समझ में यह बात इस तरह आयी- सकल पदारथ या जग माहीं। करमहीन नर पावत नाहीं। तो क्या जो गरीब थे- यही वर्ग दुनिया भर में बहुसंख्यक था- वे निकम्मे लोग थे? नहीं, वे तो बल्कि और ज्यादा परिश्रम करते थे। लेकिन वह टेकनोलॉजी अभी तक नहीं आयी थी जो जन गरीबी को दूर कर सके।

कहा जाता है कि जिस चीज को आप बदल नहीं सकते, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। अतः व्यापक जनता अपनी गरीबी से असंतुष्ट न रहे, सीमित पदार्थों के लिए असीमित भाग-दौड़ तथा मार-धाड़ न मचे, इसके लिए संतोष का दर्शन प्रतिपादित करना जरूरी था। राजा और व्यापारी अपनी तरह से जी सकते थे, पर प्रजा को यह बताया गया कि उसे शरीर-सुख के बजाय आत्मा की उन्नति पर ध्यान देना चाहिए।

भारत के धूर्त ब्राह्मणों ने विषमता को जायज ठहराने का एक और उपाय निकाल लिया- पुनर्जन्म का सिद्धांत। अगर तुम गरीब के घर पैदा हुए हो, तो यह तुम्हारे पिछले जन्म के कर्मों का फल है। तुम्हें इस गरीबी को अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए, ताकि अगला जन्म बेहतर हो सके। अमीर और गरीब के द्वंद्व की तरह पुरुष-स्त्री के द्वंद्व को भी सुलझाने की व्यवस्था की गयी। शास्त्रों के हवाले से स्त्रियों के मन में यह बात बैठा दी गयी कि उन्हें भगवान ने ही हीन, अतः पुरुषों द्वारा शास्य बनाया है। जो स्त्री पुरुष की बराबरी करेगी, वह अपना इहलोक और परलोक, दोनों बिगाड़ेगी। पुरुषों को एक से ज्यादा स्त्रियों से विवाह करने या संबंध बनाने की छूट है, पर स्त्री के जीवन में दूसरा पुरुष कल्पना में भी नहीं आना चाहिए। पुरुष के लिए असंतोष का दर्शन था और स्त्री के लिए संतोष का।

दोनों में से कौन-सा जीवन बेहतर है- सुख के लिए छीना-झपटी का, या जो सहज सुलभ है उससे संतुष्ट रहने का? कोई सपाट निर्णय देना कठिन है, क्योंकि उस सभ्यता के ढाँचे को तो हम जानते हैं, पर व्यक्ति के तौर पर उसका अनुभव नहीं कर सकते और यह सभ्यता अभी नयी-नवेली है और इसका पूरा अर्थ अभी तक सामने नहीं आया है। फिर भी दो जीवन दृष्टियों या सभ्यताओं की तुलना शायद हो भी नहीं सकती।

आधुनिक सभ्यता के पक्ष में यह कहा जा सकता है कि मानव जाति के इतिहास में पहली बार यह स्थिति बनी है कि जन दरिद्रता दूर की जा सकती है और स्वस्थ, सुंदर तथा सुखी जीवन बिताने के लिए स्वर्ग की कल्पना जरूरी नहीं है। यह बात पुरानी सभ्यता के पक्ष में जाती है कि जीवन पर एक नैतिक अंकुश रहता है और आदमी पाप करने से बचता है, क्योंकि वह अपने अलावा किसी और से भी डरता है। ईश्वर का वध करने के बाद मनुष्य ने नैतिकता की भी हत्या कर दी। परंपरा के नरक में इच्छाओं की गुलामी नहीं थी, तो आधुनिकता के स्वर्ग में स्वार्थपरता और बेहयाई के साँप लहरा रहे हैं।

एक बात निश्चित है। हम पीछे नहीं लौट सकते। सभ्यता की गाड़ी में बैक गियर नहीं होता। यहाँ अगर कोई परित्यक्त चीज अपनायी जाती है, तो उसे नया रूप देने के बाद। इसलिए जो लोग पूरब और पच्छिम तथा धर्म और विज्ञान के समन्वय की बात करते हैं, वे शेर और हथिनी के नियोग से एक ऐसा बच्चा पैदा करने की सलाह देते हैं जिसमें दोनों के गुण हों। कोई भी सभ्यता एक आवयविक इकाई होती है। कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा लेकर कुनबा बसाने का जादू भानुमती ही कर सकती है। आज के असंतुष्ट लोग जब किसी धर्म स्थल पर जाते हैं, तो यह एक तरह की पिकनिक होती है।

लेकिन जो असंतुष्ट है वही आधुनिक है या जो आधुनिक है उसे किसी चीज से संतोष नहीं है- यह देख कर किसे संतोष हो सकता है? इच्छाओं को वहाँ तक जाना ही चाहिए जहाँ तक सुख का इंद्रधनुष लहराता है और एक का इंद्रधनुष दूसरे के इंद्रधनुष को नहीं काटता। प्राचीन सभ्यता दुख की मर्यादाओं से संचालित थी, तो आधुनिक सभ्यता सुख की मर्यादाओं से अनभिज्ञ है। जैसे संतोष की एक सीमा होनी चाहिए, नहीं तो आदमी और सूअर में फर्क नहीं रह जाएगा, उसी तरह असंतोष की भी एक सीमा होनी चाहिए। क्या यह असंतोष की इस सभ्यता से असंतुष्ट होने का समय नहीं है? आधुनिकता की शुरुआत तर्क से हुई थी। क्या उसकी परिणति विवेक में नहीं होनी चाहिए?आविष्कार का रोमांच बना रहना चाहिए, पर जिंदगी के रोमांस की कीमत पर नहीं। आज के असंतुष्टों को बताने की जरूरत है कि असंतोष का एक मानवीय संस्करण भी होता है।

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