सरकारों और अधिकारियों को श्रीमद् राजचंद्र की सीख

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— सुज्ञान मोदी —

हेनरी सोलोमन लियोन पोलॉक दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी के अनन्य मित्रों में से थे। वे ‘इण्डियन ओपीनियन’ के संपादकों में से भी थे। 26 अप्रैल 1909 को कैदी संख्या 777 के रूप में प्रिटोरिया जेल से गांधीजी ने श्री पोलॉक को एक पत्र में लिखा था कि ‘कविश्री रायचंद (श्रीमद् राजचंद्र) अपने युग के सर्वश्रेष्ठ भारतीय थे।’

श्रीमद् राजचंद्र से गांधीजी के आध्यात्मिक संवादों और संगति के विषय में तो हम जानते हैं। लेकिन उससे बहुत पहले से युवावस्था से ही शासन सत्ता के विषय में श्रीमद् राजचंद्र की अपनी एक विशेष दृष्टि विकसित हुई थी और वे एक निर्भयी संत और आचार्य की भाँति शासकों के प्रति अपने विचार व्यक्त करते रहते थे। उनकी शिक्षाओं का आधार आध्यात्मिक होते हुए भी उसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ होते थे।

उदाहरण के लिए अपने सत्रहवें वर्ष से पहले ही तरुणावस्था में ‘पुष्पमाला’ के नाम से लिखे गए अपने विचारों में श्रीमद् ने विभिन्न स्थानों पर शासन सत्ता को स्पष्ट शब्दों में संदेश दिया है। एक स्थान पर वे लिखते हैं—“तू राजा हो या रंक हो, चाहे जो हो, परंतु यह विचार करके सदाचार की ओर आ कि इस काया के पुद्गल थोड़े समय के लिए मात्र साढ़े तीन हाथ भूमि मांगनेवाला है।”

यहाँ श्रीमद् उन मनुष्यों को स्पष्ट संदेश दे रहे हैं जो येन-केन-प्रकारेण दिन-रात केवल अकूत धन संग्रह करने में ही लगे रहते हैं, चाहे उसके लिए भ्रष्ट आचरण का भी सहारा क्यों न लेना पड़े। खास करके जो शासन सत्ता में बैठे लोग हैं जिनके भ्रष्ट निर्णयों से उन्हें तो करोड़ों की अनैतिक संपत्ति हाथ लग जाती है, लेकिन आम जनता पर उसकी भारी मार पड़ती है। ऐसे मनुष्यों को श्रीमद् कहते हैं कि तुम जो यह जीवन भर कई-कई पुश्तों के लिए हाय-हाय किए रहते हो, क्या तुम्हें यह नहीं मालूम कि आखिर को केवल साढ़े तीन हाथ भूमि में ही तुम्हें जलाया या दफनाया जाएगा। भ्रष्टाचरण और घोटाले आदि से अर्जित ये सारी संपत्ति यहीं की यहीं धरी रह जाएगी। कुछ भी तुम साथ न ले जा सकोगे। अगर साथ कुछ जाएगा तो सदाचार से अर्जित पुण्य ही जाएगा। इसलिए सदाचार को ही अपना वास्तविक धन मानकर उस दिशा में लगो।

आगे पुष्पमाला क्रमांक-70 में श्रीमद् कहते हैं- “अधिकारी हो तो भी प्रजाहित को मत भूल, क्योंकि जिस राजा का तू नमक खाता है, वह भी प्रजा का सम्मानित नौकर है।” नए पाठ में सम्मानित नौकर के स्थान पर ‘प्रिय सेवक’ लिखा गया है। लेकिन श्रीमद् का यह एक कथन इतना सारगर्भित है कि आज के प्रशासनिक अधिकारी भी यदि इसे पढ़कर समझ सकें तो उनका स्वयं का जीवन भी बदल सकता है और समाज का भी हित हो सकता है। श्रीमद् कह रहे हैं कि तू अधिकारी ही हुआ तो क्या हुआ? तेरा तो काम ही है प्रजा के हित का खयाल रखना। फिर तू भी तो एक सरकारी वेतनभोगी कर्मचारी ही है। तू सरकार का नमक खाता है। सरकार भी तो जनता द्वारा दिए गए टैक्स अथवा कर के पैसे से ही चलती है। तो इस तरह तू जनता का नमक ही खाता है। इतना ही नहीं, जो सबसे ऊपर की सरकार है यानी राजा है, वह भी तो प्रजा का नौकर या सेवक मात्र ही है, भले ही वह राजा के रूप में सम्मानित हो। तो अधिकारी के रूप में तो तू प्रजा के सम्मानित नौकर का भी नौकर हुआ। फिर किस बात की अकड़न? इसलिए प्रजा का हित कभी भूलना नहीं। ऐसा श्रीमद् समझाने का प्रयास करते हैं।

पुष्पमाला क्रमांक-75 में श्रीमद् कहते हैं- “करज नीच रज (क+रज) है। करज यह यम के हाथ से उत्पन्न हुई वस्तु है। (कर+ज) कर यह राक्षसी राजा का जुल्मी कर वसूल करनेवाला है। यह हो तो आज उतारना और नया करज करते हुए अटकना (रुकना)।” इस एक विचार पुष्प में भी श्रीमद् जी ने गहरे राजनीतिक निहितार्थ की सीख दी है। इसमें कर (टैक्स) और कर्ज दोनों की बात आ गई। एक तो यह संदेश आ गया कि जो जुल्मी राजा होता है वह ज्यादा कर वसूल करता है। यह आज भी देखने में आ रहा है। दूसरा यह कि कर्ज लेकर उसे न चुकाना बहुत बड़ा पाप है और इसकी भरपाई हमें किसी-न-किसी रूप में करनी ही पड़ती है। आज तो देखा जा रहा है कि सरकारी संरक्षण में हजारों करोड़ के कर्ज लेकर लोग विदेश भाग जा रहे हैं या स्वयं को दिवालिया घोषित कर दे रहे हैं। या फिर उनका ऋण बैड लोन या एनपीए के रूप में बट्टा खाते में डाला जा रहा है। या फिर चुनावी चंदा के लिए सौदेबाजी कर उनका ऋण स्वयं सरकारों की ओर से माफ कर दिया जा रहा है जिसका बोझ आखिर को देश की अर्थव्यवस्था और मध्यम-वर्ग तथा गरीबों पर ही पड़ता है।

पुष्पमाला-21 में श्रीमद् राजचंद्र जी राजा अथवा शासन को स्पष्ट हिदायत देते हुए कहते हैं- “प्रजा के दुःख, अन्याय और कर (टैक्स) की जाँच करके आज इन्हें कम कर। तू भी हे राजन्! काल के घर आया हुआ पाहुना (अतिथि) है।” आज की स्थिति में भी श्रीमद् की सीख सरकारों के लिए अत्यंत महत्त्व की है। आज तो हर ओर से ही जनता पर दुःख, अन्याय और कर का बोझ (महंगाई के रूप में) पड़ रहा है। सरकारें आज जनता के दुःख से ज्यादा पार्टियों को चंदा देनेवाले पूंजीपतियों का हित ज्यादा देखती हैं। आज भी समाज में तरह-तरह के भेदभाव के रूप में अन्याय और शोषण कायम है। तो ऐसे में आज के संत, आचार्य भी यदि निर्भयी होकर सरकारों को लगातार यह याद दिलाते रहें कि उनका वास्तविक काम जनता पर अन्याय, शोषण, टैक्स अथवा महंगाई की मार को कम करना है, तो सरकारों को थोड़ी लाज आए और वे अपने मुख्य कार्य और उद्देश्य की ओर प्रेरित हों। पुनः श्रीमद् राज्याध्यक्षों को यह भी याद दिला रहे हैं कि यह राजपद सदाकाल के लिए नहीं रहेगा, क्योंकि मनुष्य का जीवनकाल ही सीमित है। एक दिन उससे सबकुछ छिन जाना है और इस दुनिया से ही चले जाना है।

आगे श्रीमद् ने इसी बात को विस्तार से अपने एक काव्य- काळ कोईने नहि मूके! (काल किसी को नहीं छोड़ता) में विस्तार से बताया है। दिलचस्प है कि इसमें भी उन्होंने ठाट-बाट का प्रदर्शन करनेवाले राजा का ही उदाहरण लिया है। यह पूरी गुजराती कविता और उसका भावार्थ इस प्रकार है।

काळ कोईने नहि मूके! (हरिगीत)
(काल किसीको नहीं छोड़ता!)

मोतीतणी माळा गळामां मूल्यवंती मलकती,
तणा शुभ हारथी बहु कंठकांति झळकती;
आभूषणोथी ओपता भाग्या मरणने जोईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥1॥

जिनके गले में मोतियों की मूल्यवती माला सुशोभित हो रही थी, जिनकी कंठकांति हीरे के उत्तम हार से बहुत प्रकाशित हो रही थी, और जो अनेक आभूषणों से विभूषित हो रहे थे; वे भी मृत्यु को देखकर भाग गए अर्थात् कालकवलित हो गए। इसलिए हे मनुष्यों! इसे भलीभाँति जानें और मन में ठानें कि काल किसी को नहीं छोड़ता।

मणिमय मुगट माथे धरीने कर्ण कुंडल नाखता,
कांचन कडां करमां धरी कशीये कचाश न राखता;
पळमां पड़या पृथ्वीपति ए भान भूतळ खोईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥2॥

जो मस्तक पर मणिमय मुकुट धारण करते थे, कानों में कुण्डल पहनते थे, हाथों में सोने के कड़े पहनते थे, और वस्त्रालंकार से सुशोभित होने में कोई कमी न रखते थे, ऐसे पृथ्वीपति भी क्षणभर में बेहोश होकर भूतल पर गिर पड़े। इसलिए हे मनुष्यो! इसे भलीभाँति जानें और मन में ठानें कि काल किसी को नहीं छोड़ता।

दश आंगळीमां मांगलिक मुद्रा जडित माणिक्यथी,
जे परम प्रेमे पेरता पोंची कळा बारीकथी;
ए वेढ वींटी सर्व छोडी चालिया मुख धोईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥3॥

जो दसों अंगुलियों में माणिक से जड़ित मांगलिक अँगूठियाँ पहनते थे, और कलाइयों में सूक्ष्म कलामय पहुँचियाँ परम प्रेम से पहनते थे, वे अँगूठियाँ आदि सब छोड़कर, मुँह धोकर चल बसे। इसलिए हे मनुष्यो! इसे भलीभाँति जानें और मन में ठानें कि काल किसी को नहीं छोड़ता।

मूछ वांकडी करी फांकडा थई लींबु धरता ते परे,
कापेल राखी कातरा हरकोईनां हैयां हरे;
ए सांकडीमां आविया छटक्या तजी सहु सोईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥4॥

जो मूँछें बांकी कर, फक्कड़ बनकर मूँछों पर नींबू रखते थे, और जो सुंदर कटे हुए बालों से हर किसी के मन को हरते थे, वे भी संकट में आ गए और सब सुविधाएँ छोड़कर चल दिए। इसलिए हे मनुष्यो! इसे भलीभाँति जानें और मन में ठानें कि काल किसी को नहीं छोड़ता।

छो खंडना अधिराज जे चंडे करीने नीपज्या,
ब्रह्मांडमां बळवान थईने भूप भारे ऊपज्या;
ए चतुर चक्री चालिया होता नहोता होईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥5॥

जो अपने प्रताप से छह खंड के अधिराज बने हुए थे, और ब्रह्माण्ड में बलवान होकर महान सम्राट कहलाते थे, ऐसे चतुर चक्रवर्ती भी इस तरह चल बसे कि मानो वे हुए ही न थे। इसलिए हे मनुष्यो! इसे भलीभाँति जानें और मन में ठानें कि काल किसी को नहीं छोड़ता।

जे राजनीतिनिपुणतामां न्यायवंता नीवड्या,
अवळा कर्ये जेना बधा सवळा सदा पासा पड्या;
ए भाग्यशाळी भागिया ते खटपटो सौ खोईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥6॥

जो राजनीति की निपुणता में न्यायवान् सिद्ध हुए थे, और जिनके उलटे पासे सदा सीधे ही पड़ते थे; ऐसे भाग्यशाली भी सब खटपटें छोड़कर भाग निकले। इसलिए हे मनुष्यो! इसे भलीभाँति जानें और मन में ठानें कि काल किसी को नहीं छोड़ता।

तरवार बहादुर टेकधारी पूर्णतामां पूर्णतामां पेखिया,
हाथी हणे हाथे करी ए केशरी सम देखिया;
एवा भला भडवीर ते अंते रहेला रोईने,
जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥7॥

जो तलवार चलाने में बहादुर थे; जो अपनी टेक पर मरनेवाले थे, सब प्रकार से परिपूर्ण दीखते थे, जो अपने हाथों से हाथी को मारकर केसरी के समान दिखाई देते थे; ऐसे सुभटवीर भी अंत में रोते ही रह गए। इसलिए हे मनुष्यों! इसे भली भाँति जाने और मन में ठानें कि काल किसी को नहीं छोड़ता।

ऐसी यह सुंदर सीख श्रीमद् ने राजाओं अथवा सरकारों, राज्याध्यक्षों और शासन सत्ता को चलानेवाले अधिकारियों को दी है। अपने 20वें वर्ष में जब श्रीमद् ने ‘महानीति’ के नाम से सौ विचारों की ‘वचन सप्तशती’ स्वयं को संबोधित करके लिखी तो उसके 45वें वचन में लिखा कि- ‘मैं कभी राज्यभय से त्रस्त न होऊँ।’ यह दिखाता है कि किस प्रकार श्रीमद् एक निर्भीक आचार्य की भाँति शासन-सत्ता से बिना डरे अपनी बात कहते रहने को दृढ़ थे। यह आज के बौद्धिकों और आचार्यों के लिए भी एक बड़ी सीख है।

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  1. बहुत ही सुंदर और उम्दा जानकारी प्राप्त हुआ हार्दिक बधाई

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