गांधी और आंबेडकर : विवाद, संवाद और समन्वय : पाँचवीं किस्त

0


— अरुण कुमार त्रिपाठी —

डा आंबेडकर ने गांधी के वर्णाश्रम धर्म की खिल्ली उड़ाते हुए लिखा,  “मुझे दोष न दिया जाए अगर मैं प्रश्न करूँ कि महात्मा ने अपने मामले में अपने आदर्शों की प्राप्ति के लिए कितना प्रयत्न किया है। महात्मा जन्म से बनिया हैं। उनके पूर्वजों ने व्यापार त्यागकर मंत्री बनने को प्राथमिकता दी जो ब्राह्मणों का काम है। उनके अपने जीवन में महात्मा बनने से पूर्व जब अवसर आया तो उन्होंने तराजू की जगह कानून को अपनाया। कानून छोड़ने के बाद वे आधे संत और आधे राजनीतिज्ञ बन गए। उनका सबसे छोटा पुत्र—मैं उन्हे पिता के श्रद्धावान अनुयायी के रूप में लेता हूँ—जो वैश्य पैदा हुआ उसने एक ब्राह्मण कन्या से विवाह किया और एक समाचार पत्र के समृद्ध स्वामी की सेवा का चुनाव किया। …महात्मा ने अपने पुत्र द्वारा अपना पैतृक व्यवसाय न करने के लिए उसकी भर्त्सना की हो ऐसा नहीं है।….यदि हर व्यक्ति अपने पैतृक व्यवसाय का ही अनुसरण करे तब तो एक आदमी भड़ुआ ही रहे क्योंकि उसका दादा भड़ुआ था। एक स्त्री वेश्या ही रहे क्योंकि उसकी दादी वेश्या थी। क्या महात्मा अपने सिद्धांत की तार्किक परिणति स्वीकार करने को तैयार हैं? ’’

डा आंबेडकर अपने प्रतिउत्तर में गांधीजी से सवाल करते हुए कहते हैं,  “माना कि धर्म का आकलन उसके उच्चतम अनुयायियों के कृत्यों पर होना चाहिए न कि निकृष्टतम के कृत्यों से, लेकिन क्या समस्या इससे समाप्त हो जाती है। मैं कहता हूँ कि नहीं होती। समस्या वहीं रहती हैनिकृष्ट इतने अधिक क्यों हैं और उच्च इने गिने? मेरे विचार से इस प्रश्न के दो संभावित उत्तर हो सकते हैं—

1.निकृष्टों में कुछ ऐसी मौलिक विकृति विद्यमान है कि उन्हें नैतिक स्तर पर शिक्षित करना संभव नहीं है। या

2.या धर्म का आदर्श ही पूरी तौर पर गलत आदर्श है।…………….

गांधी को लिखे जवाब में डा आंबेडकर अनीहिलेशन आफ कास्ट के मुख्य बिंदुओं को इस प्रकार रखते हैं—-

1-जाति ने हिंदुओं को बर्बाद किया है।

2-हिंदू समाज का पुनर्गठन चातुर्वर्ण्य के आधार पर असंभव है।….यह व्यवस्था गुणों के आधार पर टिकने के योग्य नहीं है।…..

3-वर्णव्यवस्था के आधार पर हिंदुओं का पुनर्गठन घातक होगा क्योंकि वह उन्हें ज्ञान प्राप्ति और शस्त्र धारण के अधिकार से वंचित करती है। इससे वह पौरुषविहीन और अप्रतिष्ठा की स्थिति में पहुँचाती है।

4- हिंदू समाज को एक धर्म के आधार पर पुनर्गठित किया जाए जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों को स्वीकृति दे।

5-इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए धार्मिक पवित्रता के नाम पर जाति और वर्ण की जो जकड़बंदी है उसे समाप्त किया जाए।

6-जाति और  वर्ण पर आरोपित धार्मिक पवित्रता की भावना को तभी समाप्त किया जा सकता जब उसे ईश्वर प्रदत्त होने को नकारा जाए।

डा आंबेडकर अपने तर्कों से हिंदू धर्म की अच्छाई में यकीन करने वाले और वर्ण और जाति की दुविधा में फँसे महात्मा गाधी को ललकारते हैं। उनके शब्द कहीं तीखे हैं तो कहीं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण लिये हुए। वे कहते हैं, महात्मा कतरा क्यों रहे हैं? वह किसे तुष्ट करना चाहते हैं? क्या संत सत्य को भाँपने में असफल रहे हैं। कहीं राजनीति तो संत के मार्ग में आड़े नहीं आ रही है? महात्मा क्यों इस उलझन में पड़े हैं इसके सही कारण शायद दो बातों में हैं। पहली बात तो महात्मा का स्वभाव है। उनकी हर बात में बच्चों जैसी सरलता देखी जा सकती है। बच्चों की आत्मप्रवंचना सहित। एक बच्चे की तरह वे जिस बात पर विश्वास करना चाहते हैं कर लेते हैं। अतः हमें तब तक प्रतीक्षा करनी चाहिए जब तक महात्मा वर्ण में अपना विश्वास त्याग न दें जैसा कि जाति के बारे में उन्होंने किया। दूसरा कारण यह है कि महात्मा दो भूमिकाएँ अदा करना चाहते हैं—-एक महात्मा की तो दूसरी राजनीतिज्ञ की। महात्मा के नाते वे राजनीति पर अध्यात्म का रंग चढ़ाना चाहते हैं वे इसमें सफल हुए हैं अथवा नहीं पर राजनीति ने उन्हें व्यावसायिक बना दिया है। …… महात्मा द्वारा जाति और वर्ण का सदा समर्थन करने के पीछे यह भय है कि यदि वे इसका विरोध करेंगे तब वह राजनीति में अपना स्थान खो देंगे।’’

गांधीजी से असहमत डा आंबेडकर ने कभी अपने विचारों को छुपाया नहीं और जहाँ भी मौका मिला गांधी पर टिप्पणी करते रहे। पुणे की गोखले अर्थशास्त्र संस्था ने जब उन्हें संघराज्य पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया तो उन्होंने 29 जनवरी 1939 को हुए इस व्याख्यान में संघ राज्य का विरोध किया और रानाडे युग और गांधी युग की तुलना करते गांधी पर टिप्पणी करते हुए कहा, रानाडे युग में नेताओं ने भारत का आधुनिकीकरण करना तय किया था। नेतागण व्यवस्थित कपड़े पहनने का ध्यान रखते थे। …..राजनीतिक नेता उत्पाती व्यक्ति माना जाता था। उस युग में जीवन की समस्याओं का अध्ययन और चिंतन करने में लोग मग्न रहते थे। वे अपने चिंतन से निकले हुए निर्णय के अनुसार अपना जीवन यापन और चरित्र गठन का प्रयास करने में लगे रहते थे। गांधीयुग में अर्द्धनग्न रहने में नेताओं को अभिमान लगने लगा। वे अतीत कालीन आदर्श के अनुसार भारत की प्रतिमा बनाने की कोशिश करने लगे। इस तरह की विचारधारा फैलाने लगे कि विद्वत्ता और अच्छे परिधान की आवश्यकता राजनीति में कार्य करने वाले व्यक्ति को जरूरी नहीं। अपने जीवन और देश के बारे में स्वतंत्रता से और वैचारिक पद्धति से विचार करने की प्रवृत्ति गांधी युग के लोगों में नहीं रही। उनकी बुद्धि का दम निकल गया। गांधी युग भारत का तमोयुग है।’’

वर्ष 1942 आंबेडकर के जीवन और भारत के इतिहास दोनों के लिए बड़ी अहमियत रखता है। इस वर्ष उनकी पचासवीं साल गिरह मनाई गई और उन्हें भारत सरकार की कार्यकारिणी यानी मंत्रिमंडल में जगह मिली। इसी वर्ष महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन का बिगुल बजाया। उस साल 14 अप्रैल को बंबई और महाराष्ट्र के कई शहरों में आंबेडकर जयंती का समारोह हुआ। 19 अप्रैल को बंबई की चौपाटी पर जयंती के स्वर्ण महोत्सव की सभा का आयोजन किया गया। उस समय के कई अखबारों ने उनकी प्रशंसा में टिप्पणियाँ लिखीं। टाइम्स आफ इंडिया ने लिखा,  “आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के बिना हरिजनों को सामाजिक सत्ता प्राप्त करना मुश्किल होगा और इसकी आंबेडकर को पूरी जानकारी है। उनके अंगीकृत कार्य के लिए उनमें काफी बुद्धि चातुर्य है।

बांबे क्रानिकल ने लिखा,  “दलित वर्ग के प्रति होने वाले अमानुष वर्ताव के बारे में आठों प्रहर चिंता करने वाले आंबेडकर की दलितों के प्रति जितनी अधिक है उतना ही अधिक दलितों के प्रति छहछद्म करने वालों के प्रति उनके मन का व्देष भी है।’’ बंबई के प्रभात ने लिखा, “आंबेडकर आधुनिक भारत के क्रांतिकारी पुरुष हैं। आंबेडकर ने दलितोद्धार का जितना कार्य किया उतना शायद ही किसा ने किया होगा। दयानंद, गांधी और सावरकर के प्रयासों को ध्यान में रखकर भी यह कहना होगा कि, आंबेडकर ने इस समस्या को जितनी गति प्रदान की उतनी किसी अन्य ने नहीं।’’ 

लेकिन उनके प्रति सबसे जोरदार शुभकामना संदेश जिस बड़े व्यक्ति ने दिया उनका नाम था विनायक दामोदर सावरकर। सावरकर ने कहा,  “आंबेडकर का व्यक्तित्व, उनकी विव्दता, संघटन चतुराई और नेतृत्व करने की सामर्थ्य इन सद्गुणों के सम्मेलन से आज वे देश के एक महान आधार स्तंभ गिने जाते। लेकिन अस्पृश्यता का उन्मूलन करने में और लाखों अस्पृश्य वर्गीयों में ढांढसी आत्मविश्वास पैदा करने में उन्होंने जो सफलता प्राप्त की है उससे स्पष्ट है कि उन्होंने भारत की अमूल्य सेवा की है। उनका कार्य चिरस्थायी, स्वदेशाभिमानी और मानवतावादी है।……….उन्हें आरोग्य और बड़ी उठापटक की आयु प्राप्त हो मैं यह सदिच्छा व्यक्त करता हूं।’’( डा बाबा साहेब आंबेडकरजीवन चरित, धनंजय कीर, पृष्ठ 329)

इस मौके पर आंबेडकर ने जो भाषण दिया वह बेहद समझदारी और समन्वय भरा है। उन्होंने कहा,  “मेरी सालगिरह मनाने की यह आदत आप सब त्याग दें क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि जो समाज किसी मनुष्य का देवता की भाँति जयघोष करता है वह विनाश के मार्ग पर खड़ा है। किसी को भी अतिमानव के गुण प्राप्त नहीं हुए हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने ही प्रयास से बढ़ता या गिरता है।’’ आगे उन्होंने कहा,  “दलितों की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में काफी प्रगति हुई है। खुशी से हो या नाखुशी , अस्पृश्य वर्ग हिंदू समाज का एक अंग है।’’

स्वर्ण जयंती समारोह के साथ ही आंबेडकर के जीवन में बड़ी घटना उन्हें इसी वर्ष वायसराय की कार्यकारिणी में चुना जाना था। दो जुलाई 1942 को कार्यकारिणी समिति घोषित की गई और उसमें आंबेडकर का नाम था। इस घोषणा पर स्वागत और विवाद दोनों हुए। कांग्रेसी पत्रों ने कटाक्ष करते हुए आलोचना की तो अंग्रेज समर्थक और अछूतों के आंदोलन को समर्थन देने वाले पत्रों ने तारीफ की। टाइम्स आफ इंडिया ने लिखा, “यह देश के इतिहास का पहला उदाहरण है जब एक अस्पृश्य हिंदू की भारत सरकार की कार्यकारिणी में नियुक्ति हुई।’’ इसके बाद 18-19 जुलाई को नागपुर में आयोजित भारतीय दलित वर्ग की बैठक में आंबेडकर ने साफ कहा कि जब तक जिन्ना मुसलमानों को अल्पसंख्यक वर्ग मानते थे तब तक तो दलितों को उनके साथ का भरोसा था। लेकिन जब वे उन्हें राष्ट्र बताने लगे तो भविष्य में मुसलमानों से दलितों का टकराव होना ही है।………..अब हम हिंदू समाज के घटक नहीं रहे। गांधी हमारे सबसे बड़े विरोधी हैं। अस्पृश्य समाज को वायसराय की कार्यकारिणी में जो स्थान मिला है वह ब्राह्मणशाही के लिए मरणप्राय प्रहार है।(धनंजय कीर—बाबा साहेबजीवन और चरित)। भारत सरकार के मजदूर मंत्री आंबेडकर वे व्दितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन का बिना शर्त समर्थन किया।

गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन के आह्वान पर उन्होंने 27 जुलाई 1942 को टाइम्स आफ इंडिया में टिप्पणी करते हुए कहा, “गांधीजी का करेंगे या मरेंगे का आदेश गैर-जिम्मेदाराना और मूर्खतापूर्ण है। उनकी राजनीतिक कूटनीतिज्ञता का दिवाला निकल जाने का द्योतक है। विश्वयुद्ध शुरू होने से कांग्रेस की गिरती साख को सँभालने का वह एक प्रयास है। बर्बर लोगों के हिंदुस्तान पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए हिंदुस्तान की सीमा के नजदीक आ जाने पर देश के कानून और व्यवस्था को कमजोर करना पागलपन है। ….ब्रिटिश अब अंतिम खंदक में लड़ रहे हैं। अगर लोकतंत्र की विजय हुई तो भारत की स्वतंत्रता में कोई बाधा नहीं डाल सकेगा।’’

 (जारी)

Leave a Comment