विकसित देशों के मुकाबले भारत के सामने जलवायु परिवर्तन ज्यादा बड़ा खतरा है

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— कश्मीर उप्पल —

हाभारत में एक स्थान पर यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा- संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, हर पल मनुष्य काल के गाल में समा रहा है किंतु वह समझता है कि वह हमेशा के लिए है और मृत्यु को अनदेखा करता है, यही सबसे बड़ा आश्चर्य है। प्रतिष्ठित पत्रिका द लांसेट और यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन के पर्यावरण पर एक शोध का निष्कर्ष है कि अमीरों की दुनिया बदरंग हो जाएगी। असुविधाओं का अंबार होगा। कदम-कदम पर बीमारियों, बाधाओं और समस्याओं से हम दो-चार होंगे। बहुत अधिक धन खर्च करने के बावजूद अमीर लोग अनिश्चित हालात का सामना करने के लिए मजबूर रहेंगे जबकि गरीब लाचार होकर बेमौत मारे जाएंगे।

पृथ्वी मानव का आवास है। इसके सिवा मानव का कोई दूसरा आवास नहीं है। यदि मानव का यह आवास खतरे में है तो मानव सभ्यता भी खतरे में है। विश्व के कई देशों की उन्नत सभ्यताएँ उनके ऊपर आए प्राकृतिक संकटों से लुप्त हो चुकी हैं। यदि पृथ्वी का संकट बढ़ता चला गया तो मानव सभ्यता का विकास भी रुक जाएगा। क्योंकि भावी पीढ़ी को अपना पूरा जीवन प्रकृति के प्रकोप से बचने के लिए ही लगा देना होगा।

ओजोन आक्सीजन का एक स्वरूप है; यह प्रत्यक्ष रूप से दिखाई न देनेवाली एक छतरी है। एक ऐसी छतरी जो सूर्य से आने वाले पैराबैंगनी किरणों को सोख लेती है। और प्राणियों की रक्षा करती है। कार्बन डाइ आक्साइड इस ओजोन परत के लिए सबसे घातक गैस है जिसे प्रमुख रूप से प्रदूषणकारी उद्योग फैलाते हैं। तीव्र औद्योगीकरण और शहरीकरण के साथ रासायनिक और मशीनी खेती से भी ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1980 से विश्व के सभी देशों के साथ मिलकर जलवायु सम्मेलन आयोजित किए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का जलवायु परिवर्तन कॉन्फ्रेंस 2010 में मैक्सिको के कानकुन शहर में हुआ था। 

विश्व के विकसित और विकासशील देश खेमों में बँटे हैं और कोई भी इस खतरनाक गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए तैयार नहीं हैं। यह सारा विनाश तीव्र औद्योगीकरण के कारण हो रहा है जिसमें विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ लगी हैं। ये कंपनियाँ विकासशील देशों में नए-नए उद्योग लगा रही हैं। जैसे जापान ने रसायन और स्टील की अपनी कंपनियों को दक्षिण एशिया के देशों में पहुँचा दिया है। भारत में भी कई विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ प्रदूषणकारी उद्योगों की स्थापना कर रही हैं।

रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग से भूमि ऊसर हो रही है। खेती के मित्र-कीट भी खत्म हो रहे हैं। नमी संरक्षित न होने से, अधिक सिंचाई करने से खेती की लागत बढ़ गयी है। इससे बिजली और डीजल का उपयोग भी बढ़ रहा है। जलवायु में हो रहे परिवर्तन से स्वास्थ्य समस्याएँ सबसे खतरनाक ढंग से बढ़ रही हैं। तापमान बढ़ने से रोगवाहक जीवों की प्रजनन शक्ति बढ़ती है। बढ़ती हुई गरमी से ये जीव रोगाणुओं के साथ नए-नए क्षेत्रों में पहुँच जाते हैं। सन 1958 में पृथ्वी पर औसत कार्बन डाइ आक्साइड गैस की मात्रा 316 पीपीएमवी (पार्ट्स पर मिलियन वाय वाल्यूम) थी, जो सन 2008 में 387 हो गयी। प्राकृतिक तौर पर इतना बड़ा परिवर्तन होने में 65 हजार वर्षों से ज्यादा का समय लगना चाहिए। परंतु प्रदूषणकारी उद्योगों, शहरीकरण और यंत्रीकरण के कारण इस गैस की मात्रा इतनी बढ़ गयी है जितनी प्रकृति ने हिमयुग तक पहुँचने में बढ़ायी थी। इस कारण पानी का संकट, बाढ़, बीमारियाँ और सूखा आदि का सामना पूरे विश्व को करना पड़ेगा।

विश्व की जलवायु परिवर्तन की परिस्थितियों और उसके खतरों को समझकर सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमरीका के सीनेटर गेलार्ड नेल्सन ने पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए 22 अप्रैल 1970 से अर्थ डे (पृथ्वी दिवस) मनाना शुरू किया था। यह दिवस अमरीका में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। सन 1990 में डेनिस हेस्स ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 141 देशों में अर्थ डे मनाने की परंपरा शुरू की थी। इसके बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ ने पूरी दुनिया में 22 अप्रैल को अंतरराष्ट्रीय माँ पृथ्वी दिवस मनाना शुरू किया। इसका उद्देश्य पर्यावरण के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाना है। लोगों को यह संदेश देना है कि पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि से ध्रुवों पर जमे हुए हिमखंड पिघल रहे हैं। इससे समुद्रों का जलस्तर एक मीटर तक ऊपर उठ सकत है। इससे विश्व के कई देशों के भाग पानी में डूब सकते हैं, नदियों में बाढ़ और मानसूनी हवाएँ प्रवाहित होने से कई देशों में लंबा सूखा पड़ सकता है। भूमिगत जल का स्तर खतरनाक स्तर तक गिर गया है। वनों की कटाई से वन्यजीव लुप्त हो गये हैं।

डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में दिसंबर 2009 में आयोजित ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2010 द्वारा जारी सूची में भारत उन प्रथम दस देशों में है जो जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। प्रोफेसर डॉ एमएम स्वामीनाथन के अनुसार भारत में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से 70 लाख टन गेहूँ के उत्पादन में कमी आएगी। तापमान में वृद्धि से फसलों में एकदम बालियाँ आ जाती हैं और दाने पतले हो जाते हैं। इससे उत्पादकता घट जाती है। फल और सब्जियों वाली फसलों में फूल तो खिलेंगे परंतु फल बहुत कम लगेंगे। विकसित देशों की तुलना में भारत के सामने जलवायु परिवर्तन एक बहुत बड़ा खतरा है।

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