पुलिस ने दरवाजा तोड़, गिरफ्तार, अधमरा कर, राजद्रोह तथा सरकार उलटने की कोशिश का आरोप लगाकर जेल में क्यों डाल दिया?
‘रचनाकारों की नजर में। (भाग 2)
— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
राजेश्वरी प्रसाद ने ‘लोहिया की इतिहास दृष्टि में’ लोहिया की पुस्तक ‘इतिहास चक्र’ को आधार बनाकर उसके दार्शनिक पक्ष की मीमांसा की है। लोहिया द्वारा अंग्रेज़ी में लिखी पुस्तक ‘व्हील ऑफ हिस्ट्री’ जिसका हिंदी अनुवाद ‘इतिहास चक्र’ की शक्ल में प्रकाशित हुआ, के बारे में कहा जा सकता है कि लोहिया के वैचारिक दर्शन को जानने के लिए यह सबसे अच्छा मार्ग है। लोहिया ने इस किताब में बताया है कि सभ्यताएं किस रास्ते को अपनाकर मानवता को उत्थान-पतन, कष्टों से छुटकारा दिलवा सकती हैं। लोहिया इसमें चेताते हैं श्रेष्ठता, जोरावरी इतिहास में बदलती रहती है जो पहले शीर्ष पर है वह नीचे और जो नीचे है उसके ऊपर जाने की प्रक्रिया मुसलसल चलती रहती है। इसमें वे कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित रैखिक विकास, दर्शन की सीमाएँ भी गिनवाते हैं।
मार्क्स और हीगेल के इतिहास दर्शन में बुनियादी एकरूपता भी दर्शाते हैं। हिंदुस्तानी संदर्भ में वर्ग और वर्ण का उदाहरण देकर ‘अस्थिर वर्ण को वर्ग कहते हैं और स्थायी वर्ग वर्ण कहलाते हैं, जो लोग मानव समाज के सभी वर्गों और वर्णों का अंत चाहते है, उन्हें मानव इतिहास की प्रेरक शक्तियों को समझना होगा। इसमें लोहिया जड़ और चेतन के संबंध पर भी रोशनी डालते हैं। लोहिया इस पुस्तक में इतिहास चक्र तोड़ने और उसकी प्रक्रिया पर विचार करते हैं, परंतु क्या यह चक्र टूटेगा इसकी कोई भविष्यवाणी लोहिया नहीं करते परंतु उन संभावनाओं को टटोलते हैं जिसमें इतिहास चक्र टूट सके।
लोहिया मानव की मुक्ति और तरक्की के लिए कुछ बातों को बेहद ज़रूरी मानते हैं : दुनिया में जो भी उपलब्ध है वह सभी इंसानों के लिए हो। इसमें क्षेत्रीयता, राष्ट्रीयता, समूहों जाति, वर्ग, लिंग, रंग किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए।
निज़ाम इस बात की गारंटी करे कि नागरिकों की मुकम्मल शख्सियत की हिफाजत के साथ-साथ उसकी इंसानियत के इजाफे़ की भी पूरी गूंजाइश हो, उसकी दिमाग़ी, रूहानी, पाक-साफ़ ज़रूरतें भी पूरी हों तथा उसकी इंसानियत से भरी इन तरंगों का विकास हो। लोहिया की नज़र में संपूर्ण कौशल पर टिका ही समाज ही सही होता है।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफे़सर रहे शिवप्रसाद सिंह हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। ‘नीला चाँद’, ‘कोहरे में युद्ध’, ‘दिल्ली दूर है’, ‘गली आगे मुड़ती है’ जैसी उनकी रचनाओं पर व्यास सम्मान, साहित्य अकादेमी पुरस्कार जैसे कई सम्मानों से उनको सम्मानित किया गया था। बौद्धिक रूप से वे लोहिया से प्रभावित थे। जवाहरलाल नेहरू के भी वे प्रशंसक थे। नवंबर 1977 में धर्मयुग में उन्होंने ‘नेहरू की प्रासंगिकता’ लेख में लिखा : “नेहरू का सांस्कृतिक व्यक्तित्व अत्यंत मनोहारी था …… संस्कृतियों के हज़ारों फूल खिलते रहे, वे इसके लिए बडे़ जागरूक और उत्सुक थे।’
परंतु लोहिया से तुलना करते हुए शिवप्रसाद सिंह लिखते हैं : “सब कुछ होते हुए भी नेहरू का सांस्कृतिक व्यक्तित्व एक स्वप्नद्रष्टा का व्यक्तित्व था, वे लोहिया की तरह ठोस धरती की बात नहीं करते और न तो उनके आचरण में ही यह प्रतिफलित हुआ, नेहरू-छायावादी व्यक्तित्व के निकट थे, उनमें गरिमा थी, सांस्कृतिक प्रेम था, व्यक्ति-स्वातंत्र्य के प्रति निष्ठा थी, पर वे वायवी (पश्चिमी) दुनिया से अपना संबंध तोड़ नहीं पाये।” किताब में शामिल किये गए लेख ‘लोहिया का सांस्कृतिक मानस’ में वे लोहिया की सांस्कृतिक दृष्टि में वे सभी बातें प्रमाण सहित पेश करते हैं।
प्रोफेसर रमा मित्रा, लोहिया की अंतरंग मित्र, निजी क्षणों की गवाह तथा साथ रहने के कारण, पल-पल की आंखों देखी लोहिया के आनंद और अवसाद के लम्हों को ज्यों का त्यों बयाँ करने की हकदार थीं। अपने लेख में रमा जी ने अनेकों ऐसे अनछुए दृश्यों, अवसरों, घटनाओं को पेश किया है जिन्हें सिर्फ वे ही बता सकती थीं। लोहिया की शख्सियत की बहुत सारी खूबियां हमें कभी पढ़ने को नहीं मिलतीं, अगर रमा जी न लिखतीं। मुझे फख्र है कि मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग में उनका छात्र रहने तथा लोहिया की मृत्यु के बाद दिल्ली की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में कुछ वक्त के लिए उनकी रहनुमाई में काम करने का मौका भी मुझे मिला। उन्होंने अपने लेख “निर्णायक वर्ष -1967” में चुनाव और लोहिया की भूमिका को हुबहू उतार दिया। लोहिया कन्नौज से खुद उम्मीदवार थे। लोहिया मुल्क भर में सोशलिस्ट उम्मीदवारों के लिए घूम-घूम कर प्रचार कर रहे थे, “मैंने (रमा मित्रा) उनसे कन्नौज को ज्यादा समय देने की विनती की- उन्होंने मुझे सख्ती से चुप करा दिया : “मत भूलो, मैं पार्टी के साथ -साथ विपक्ष के लिए भी लड़ रहा हूं और मुझे राजनीति मत सिखाओ।” फिर वे चले गए।शरीर पर बहुत भार पड़ने से उनका स्वास्थ्य गिर रहा था।
“अथक विद्रोही” की लेखिका उषा मेहता ने खुद आजादी की जंग में जान जोखिम में डालकर विद्रोही की भूमिका निभाई थी। महात्मा गांधी ने 1942 में “करो या मरो का” आह्वान हिंदुस्तानियों से कर दिया था। बड़े कांग्रेसी नेता पकड़े जाने पर जेलों में बंद थे। सुभाष बोस पहले जर्मनी बाद में जापान चले गए। उन्होंने दोनों जगह रेडियो से अंग्रेजों के खिलाफ ऐसे भाषण दिए कि हिंदुस्तानियों का खून खौल उठा। ऐसे हालात में डॉ. राममनोहर लोहिया ने हिंदुस्तान में ही भूमिगत “कांग्रेस रेडियो” चलाने का निर्णय किया। इस कार्य में उषा मेहता एक प्रमुख भूमिका निभा रही थीं। डॉक्टर लोहिया तीखी, तमतमाती आवाज में अंग्रेज़ी राज को फटकारते थे, और उषा मेहता एक एंकर का रोल निबाहती थीं। 5 महीने तक कांग्रेस रेडियो से जनता को उद्वेलित किया गया, परंतु मुखबिरी के कारण उषा मेहता पकड़ी गईं। जब उन्हें पकड़ा गया तब रेडियो से वंदे मातरम् का गीत आ रहा था, बीच में ही ऐसी आवाज आई कि कोई दरवाजा तोड़ रहा है। पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर थाने में यातनाएं दीं, यह जानने के लिए कि और नेता कहां हैं? उन्हें अधमरा कर राजद्रोह तथा सरकार उलटने की कोशिश का आरोप लगाकर जेल में डाल दिया गया।
लोहिया ने एक बार फिर प्रोफेसर कौशल्यानंद गैरोला की मदद से रेडियो चालू किया। तीसरी बार 1944 में कांग्रेस रेडियो फिर शुरू किया गया।
एक प्रतिबद्ध सोशलिस्ट, मुंबई विश्वविद्यालय की प्रोफेसर रहीं उषा मेहता ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण जानकारी कांग्रेस रेडियो पर अपने भाषणों में दी थी। डॉक्टर लोहिया ने उस समय के आंदोलन पर कहा था, “यह कोई आंदोलन नहीं है यह एक क्रांति है। आंदोलन में जीत या हार होती है, परंतु क्रांति में जीत या मृत्यु होती है, क्योंकि इसमें कोई पीछे नहीं हटता है।”
उषा जी ने अपने स्मरण में 1942 के समय हिंसा बनाम अहिंसा पर डॉक्टर लोहिया के एक भाषण का जिक्र कर बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला।
“हमारा एक नया सिद्धांत है जो एक नई दुनिया का है, जहां कोई दूसरे को नहीं मारता या दूसरों का शोषण नहीं करता है; और एक नई दुनिया के लिए हम अपना रक्त देने को तैयार हैं। गंगा रक्त से बहेगी लेकिन यह भारतीय रक्त से बहेगी। हमने जो कुछ भी झेला है उसके बदले में हम दुश्मन के खून की एक बूंद भी नहीं मांगते हैं। — अहिंसक क्रांति में क्रांति उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि अहिंसा।
लोहिया ने अपनी जिंदगी एक यायावर के रूप में गुजारी। इस सफर में उनका अनेकों अफलातून तथा सामने वाले को दोयम दर्जे का सिद्ध करने वाले लोगों से भी सामना हुआ, परंतु जो एक बार लोहिया के संपर्क में आया वह हमेशा के लिए लोहिया का प्रशंसक बन गया।
ई नारायणन, जो पेशे से पत्रकार थे तथा ‘जनता’ (जोकि सोशलिस्टों का एक मुख्य पत्र बन गया) का संपादन भी उन्होंने किया। “राममनोहर : कुछ व्यक्तिगत संस्मरण” में लोहिया की मौलामस्ती की एक नजीर पेश करते हुए उन्होंने लिखा कि 1947 में बिना बताए रात के 2:00 बजे कपड़ों की एक गठरी लिये लोहिया उनके घर पहुंच गए। लोहिया के कई रोमांचक किस्सों तथा गांधीजी के साथ उनके रिश्तों को उन्होंने अपने लेख में शब्द पहना दिये।
जेड ए अहमद, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के पोलित ब्यूरो के सदस्य तथा ऑल इंडिया किसान सभा के महासचिव रहे थे। लोहिया से 1929 में पहली बार बर्लिन (जर्मनी) में तथा 1930 में इंग्लैंड में जब अहमद ‘लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स’ के छात्र थे तथा डॉक्टर लोहिया जर्मनी की होमबोल्ट यूनिवर्सिटी के छात्र थे वह अपने रिसर्च के सिलसिले में ब्रिटिश संग्रहालय पुस्तकालय में आए हुए थे तब उनकी मुलाकात हुई। जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद इलाहाबाद में कांग्रेस के हेड क्वार्टर में डॉक्टर लोहिया को विदेश विभाग तथा जेड ए अहमद को अर्थशास्त्र विभाग का सचिव बना दिया। सचिव पद से इस्तीफा देने के कुछ समय बाद वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। बाद में वह पूर्णतया कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय हिस्सेदारी निभाने लगे।
अहमद ने अपने लेख “लोहिया के साथ मेरे दिन” में उनके कार्यों तथा कांग्रेस के वामपंथी बनाम दक्षिण दक्षिणपंथी ग्रुपों, सोशलिस्टों कम्युनिस्टों के संबंधों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। और अंत में लिखा कि मेरी उनसे मुलाकात और बातचीत परस्पर स्नेह और सम्मान की भावनाएं रखने वाले साथी की तरह हुई। विलिंगडन अस्पताल में जिंदगी मौत से संघर्ष करते हुए लोहिया ने जब प्यार से उनका हाथ छुआ, उनसे अलविदा कहते हुए मेरी आंखों मे आंसू छलक आए।
सुगत दासगुप्ता ने “लोहिया और भारतीय बुद्धिजीवी” शीर्षक से ही स्पष्ट कर दिया कि लेख में उसकी विषयवस्तु, मजमून क्या होगा? लोहिया का बुद्धिजीवी जगत से रिश्ता, टकराव तथा उसके प्रभाव को ऐतिहासिक, सैद्धांतिक आधारों पर लंबान में विवेचना की है लोहिया ने जनता को लोकतांत्रिक समाजवाद की विचारधारा में दीक्षित करने के लिए एक ऐसे स्कूल की कल्पना की थी। हालांकि उनका सपना अभी तक पूरा नहीं हुआ।
‘राममनोहर लोहिया : एक प्रशंसा’ में गोपाल कृष्ण ने लोहिया की मार्फत कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से शुरू हुए आंदोलन का सिलसिलेवार इतिहास ही दर्ज कर दिया। लोहिया की वैचारिक व निजी यात्रा के बहुत से पड़ावों का विस्तार से रेखांकन किया है। इसको किसी किताब का एक संक्षिप्त रूप भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
29 वर्ष के नौजवान रहे, राजेंद्र पुरी की मुलाकात डॉक्टर लोहिया से हुई थी। पुरी देश के प्रमुख कार्टूनिस्ट तथा पत्रकार थे। लोहिया के प्रति उनके मन में शुरू से ही आकर्षण हो गया था। “लोहिया की दो छवियां” लेख में उन्होंने लोहिया के ज्ञान, उनकी राजनीतिक रणनीति, नेहरू के साथ-साथ अपने साथ के संस्मरणों को भी लिपिबद्ध किया।
आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण के विचारों के दो भागों के संपादन, प्रकाशन के अतिरिक्त भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर द्वारा स्थापित “यंग इंडियन” के संपादक की जिम्मेदारी निभाने वाले, ब्रह्मानंद बिहार के धनबाद में कोयला खदान मजदूरों के हितों के लिए संघर्ष करने के कारण कोयला माफियाओं से भी संघर्षरत रहे थे। प्रखर बुद्धिजीवी ब्रह्मानंद ने अपने लेख “तीसरा खेमा बनाम गुटनिरपेक्षता” में विस्तार से लोहिया की विदेश नीति पर बहुत ही गहराई से विवेचना करते हुए लिखा कि डॉक्टर लोहिया ने 1950 में समाजवादी पार्टी के आठवें सम्मेलन में सर्वथा वैज्ञानिक और सुदृढ़ विदेशी नीति प्रस्तुत की थी।
भारतीय समाजवादी आंदोलन के संस्थापक सदस्य, प्रमुख अर्थशास्त्री, मुंबई से निकलने वाली सोशलिस्ट विचारों की पत्रिका के संपादक रहे रोहित दवे ने सोशलिस्ट इतिहास, विचारों पर गहन लेखन किया है। पुस्तक में प्रस्तुत लेख “मनुष्य- लोहिया की प्राथमिक चिंता” में लोहिया के आर्थिक दृष्टिकोण, पूंजीवाद और साम्यवाद के प्रति लोहिया का रवैया उनके इस दृढ़ विश्वास से प्रेरित था कि यह दर्शन यूरोप में एक विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज है। लोहिया के प्राथमिक सरोकार को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा कि – एक ऐसा मजबूत मनुष्य जो अपनी क्षमताओं और दुर्बलताओं, आकांक्षाओं और भय, योग्यता और कमजोरियों के साथ मौजूद हो और भागीदारीपूर्ण लोकतंत्र की पृष्ठभूमि में भी यही मांग है।
इस किताब में तरह तरह की छटाओं से लबरेज, कमलादेवी चट्टोपाध्याय का लेख “राममनोहर लोहिया” शामिल है। स्वतंत्रता सेनानी, कला, साहित्य, संस्कृति, महिला हकूकों की अलंबरदार सियासत में सोशलिस्ट यकीदे में विश्वास रखने की इस वीरांगना को महात्मा गांधी ने यूं ही “सुप्रीम रोमांटिक हीरोइन” का खिताब नहीं दिया था। 1930 में नमक कानून सत्याग्रह में भाग लेने के कारण कारावास भी भोगा। 1936 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के मेरठ में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन की अध्यक्षता भी इन्होंने की। हिंदुस्तान में कला के क्षेत्र में ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा’ ‘संगीत नाटक एकेडमी’ ‘ऑल इंडिया हैंडीक्राफ्ट एसोसिएशन’ ‘सेंट्रल कॉटेज एंपोरियम’ जैसे राष्ट्र के गौरव संस्थानों की तामीर भी इनके द्वारा की गई। गरीबी और गुमनामी में पड़े जुलाहे, सुनार, बुनकर, कारीगर गांवों में इनके पैरों पर अपनी पगड़ी उतार कर रख देते थे। उन्होंने इनको “हथकरघा मां” का खिताब भी दिया।
लोहिया के साथ आजादी की जंग खासतौर से इलाहाबाद प्रवास तथा सोशलिस्ट तहरीक तथा बाद में एक विद्रोही विपक्षी नेता की भूमिका को बहुत गहराई से जांचते हुए उन्होंने लिखा : “वे न केवल साहस के पारंपरिक अर्थों में बेहद निडर और शारीरिक संदर्भों में बहादुर थे, बल्कि बौद्धिक अर्थों में इससे कहीं बढ़कर थे। आजादी के बाद की लोहिया की सियासत पर कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने बहुत ही गहन परीक्षण से लिखा कि समय बीतने के साथ-साथ प्रशासन के प्रति उनका असंतोष बढ़ता गया। लोगों की बढ़ती हुई समस्याओं के सीधे अनुपात में उनकी पीड़ा भी बढ़ती गई। ऐसा नहीं है कि वह खुद को मसीहा समझते थे, लेकिन देश की जनता की आवाज उनकी कराहें और परेशानियाँ उनके लिए वास्तविकता थी। लेकिन उन राजनेताओं के प्रति जो इनका इस्तेमाल अपनी छवि निर्माण के लिए करते थे, उनकी आवाज अक्सर तिरस्कार से भरी होती थी।
( जारी है-)