संविधान और राजनीति के चलते-फिरते ज्ञानकोश थे मधु लिमये

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— बालमुकुंद ओझा —

माजवादी नेता मधु लिमये से मैं दो-तीन बार दिल्ली में मिला था। पहली मुलाकात 1975 में हुई तब मैंने समाजवादियों के भविष्य के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा देश की एकता के लिए समाजवादियों में एकता बहुत जरूरी है। राजनारायण एकता में बाधक बने हुए हैं। अंतिम मुलाकात जनता पार्टी के दिल्ली के जंतर मंतर स्थित कार्यालय में संभवतः 1979 या 80 में हुई थी। तब वे बहुत निराश थे और कह रहे थे डॉ. लोहिया के सपने पूरा होने में समाजवादी ही रोड़ा अटका रहे हैं। वे अपने विचार बेधड़क व्यक्त करते थे। बाद में उन्होंने राजनीति से ही संन्यास ले लिया।

भारत की राजनीति में मधु लिमये स्वच्छ, सादगी, ईमानदारी और वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रबल पक्षधर के रूप में सर्वविख्यात रहे हैं। उन्होंने दो बार अपने विचारों और सिद्धांतों से समझौता किया जिसका पश्चाताप जिंदगी भर रहा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपने वैचारिक मतभेद वे कभी छिपाते नहीं थे। उनके नेता डॉ. राममनोहर लोहिया कांग्रेस को सत्ताच्युत करने के लिए शैतान से भी हाथ मिलाने को तैयार थे। लोहिया के प्रयासों से ही 1967 में अनेक प्रदेशों में गैरकांग्रेस संविद सरकार बनी। उस समय मधु जी ने संघ समर्थित जनसंघ से गठजोड़ का विरोध लोहिया जी के सामने किया था। लोहिया जी ने यह कहकर उनका मुँह बंद कर दिया था कि तुम्हारा नेता कौन है। मधु जी की लोहिया के प्रति अगाध श्रद्धा थी और इस कारण वे आगे कुछ नहीं बोल पाए।

दूसरा मौका आपातकाल के बाद जनता पार्टी के गठन का था। मधु जी चाहते थे कि जनसंघ विलय के बाद संघ से अपने किसी तरह का संबंध नहीं रखे। यह संभव नहीं था। मगर लोकनायक जयप्रकाश नारायण बिना शर्त एका चाहते थे, यहाँ भी उन्हें झुकना पड़ा। दोहरी सदस्यता का मामला भी पार्टी में उन्होंने जोर-शोर से उठाया। कई लोग जनता पार्टी को तोड़ने का आरोप मधु लिमये पर लगाते हैं जिसे उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया।

डॉ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली, आचार्य नरेंद्रदेव, एसएम जोशी जैसे समाजवादी विचारकों के सान्निध्य में मधु लिमये भारत में समाजवादी आंदोलन के शख्सियत के रूप में अपनी अलग पहचान बनाई। मधु लिमये समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया के अनुयायी और राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर एवं जॉर्ज फर्नांडिस जैसे समाजवादियों के प्रखर सहयोगी थे। एक मई को मधु लिमये की जयंती है। मधु जी कोई साधारण इंसान नहीं थे। वे जाने-माने संसदविद् थे। उनके संसद में प्रवेश करते ही कई कांग्रेसजनों की भृकुटी टेढ़ी पड़ जाती और वे यह सोच में पड़ जाते कि आज वे क्या सवाल उठाएंगे?

मधु लिमये किसी भी प्रकार के पाखंड से कोसों दूर थे। वे संसद में पैदल अथवा रिक्शे से आते थे। उनकी जेब खाली रहती थी। उन्होंने कभी सांसद होने की पेंशन नहीं ली। लिमये ने जनता सरकार में मंत्रिपद नहीं लिया। उन्होंने जॉर्ज, मधु दंडवते और पुरुषोत्तम कौशिक को समाजवादी धड़े से मंत्री पद नवाजा। यह लिमये थे जिन्होंने आपातकाल में इंदिरा गांधी द्वारा लोकसभा का कार्यकाल बढ़ने के विरोध में इस्तीफा दे दिया था। वे सबसे पहले 1964 में मुंगेर से लोकसभा के लिए चुने गए थे। चार बार सासंद रहने के बाद उन्होंने 1982 में राजनीति से संन्यास ले लिया था।

रामचंद्र महादेव लिमये के पुत्र मधु लिमये का जन्म 1 मई 1922 को पुणे में हुआ था। उन्होंने प्रोफेसर चंपा लिमये से शादी की। वह पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1938-48 और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी 1938-1948 के साथ जुड़े। स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी के कारण उनकी शिक्षा बाधित हुई थी। 1940-45 के बीच 4 वर्षों के लिए उन्हें कैद कर लिया गया था। 1947 में भारतीय समाजवादी आंदोलन के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के एंटवर्प सम्मेलन में शामिल हुए। 1948 में नासिक सम्मेलन में सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य चुने गए। वे 1949-52 में सोशलिस्ट पार्टी के सचिव चुने गए। फिर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में होते हुए लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए।

वे संविधान और राजनीति के जीते-जागते ज्ञानकोश थे। मधु जी की बौद्धिक सूझबूझ लाजवाब थी। स्वयं ब्राह्मण परिवार में पैदा होकर भी उन्होंने आरक्षण के समर्थन में उस समय प्रखर लेख लिखे जब पिछड़ों के पक्ष में बोलने पर इस देश में जुबानें कट रही थीं। मधु लिमये के विचारों को अपनाकर ही राजनीति से सामाजिक मूल्यों के क्षरण को रोका जा सकता है। आज राजनीति अवसरवादी होती जा रही है और मूल्य कहीं खो गए हैं। इस स्थिति से बाहर निकलने की जरूरत है।

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