जिन्ना की आशंका को मोदी सच साबित कर रहे हैं!

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— पंकज —

भी जानते हैं कि जिन्ना को इस बात की गहरी आशंका थी कि आजाद भारत में बहुसंख्यक हिन्दू राजनीति व सत्ता के शीर्ष पर मुसलमानों को उनके हक व अवसर से वंचित कर देंगे।

आज भारत के राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिशें जारी हैं; और देश की आबादी का 15 फीसद होने के बावजूद संसद में सत्ताधारी दल के सदस्यों में एक भी मुसलमान नहीं है।

नारा तो ‘सबका साथ, सबका विकास’ का लगाया गया, फिर इसमें ‘सबका विश्वास’ जोड़ा गया, पर ऐसा लगता है कि इस ‘सबका’ में से अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों को निकाल बाहर कर दिया गया गया है। वैसे घृणा की गाज कैथोलिकों पर भी गिराई जाती रही है।

आजाद भारत में मुसलमानों की संभावित हालत के बारे में जिन्ना की प्रबल आशंका और पूर्वानुमान को मोदी व उनके संघ परिवार ने सच साबित कर दिया है।

जैसा कि हम जानते हैं कि पाकिस्तान की कल्पना व मांग के पहले 1923-24 में ही सावरकर ने भारत में दो राष्ट्रों ( हिन्दू राष्ट्र व मुस्लिम राष्ट्र) का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। मुस्लिम लीग और उसके नेता जिन्ना को भारत के बंटवारे की जवाबदेही से मुक्त नहीं किया जा सकता, पर सावरकर की घोषणा ने लीग के नेताओं को अपनी अलग राह चुनने का इशारा तो दिया ही।

मोदी और भागवत के नेतृत्व में संघ परिवार ने अपने कृत्यों से न सिर्फ हिन्दू होने को कथित गौरव और शर्मिंदगी के बीच का लटकंपु आम बना दिया है, बल्कि जिन्ना और सावरकर की आत्मा को भी बहुत राहत पहुंचाई है ।

देश और दुनिया में भारत और हिन्दू होने की छवि गिर रही है तो क्या हुआ, सावरकर की छवि तो बढ़ रही है! आखिर सावरकर के चेलों ने जिन्ना की आशंका को सच तो साबित कर ही दिया!

सावरकर का द्विराष्ट्र का विचार और जिन्ना की आशंका एक दूसरे से बुरी तरह जुड़े हैं। 1947 में जिन्ना और सावरकर दोनों की जीत हुई थी और आज फिर दूसरी बार उनकी जीत हुई है।

भारत के प्रधानमंत्री को चुनावी सभाओं में ‘जय श्रीराम’ और ‘बजरंग बली की जय’ का उद्‌घोष करते सुन-सुनकर अब जिन्ना के बारे में पहले जैसी घृणा नहीं रही।

सावरकर, जिन्ना और धर्म-सम्प्रदाय-जाति आधारित किसी भी नेता के लिए एक साधारण आदमी के मन में घृणा का होना लाजिमी है। मैं भी एक साधारण आदमी हूं, महात्मा तो नहीं। पिछले तीस वर्षों विशेषकर पिछले सात-आठ वर्षों में संघ-भाजपा के हिन्दुत्ववादियों के नफरती कृत्यों व भाषणों के कारण जिन्ना के प्रति मेरी घृणा कम हुई है। मैं मानता हूं कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के बारे में जिन्ना को जितनी आशंका थी आज दोनों तरफ उससे ज्यादा खराब हालत है।

बची हुई घृणा इस बात को लेकर है और बनी रहेगी कि अलग होने के लिए 16 अगस्त 1946 को ‘सीधी कार्रवाई’ की घोषणा की गई। एक ओर जिन्ना गांधी के असहयोग आन्दोलन और सत्याग्रह से भी असहमति व्यक्त करते थे और दूसरी ओर पाकिस्तान के लिए खून-खराबे की तारीख का एलान करते हैं। अगर यह बंटवारा प्यार से हो जाता तो 10-20 लाख लोग मारे नहीं जाते। और दुश्मनी इतनी गहरी व लम्बी नहीं होती। गांधी-जिन्ना वार्ता फेल हो जाने के बाद आखिर बंटवारे में रुकावट कहां थी जो जिन्ना को ‘सीधी कार्रवाई’ का एलान करना पड़ा?

फरहान रहमान साहब ने सावरकर/कांग्रेस/नेहरू के नाम एक ही सांस में ले लिये। उनकी कृपा हुई जो उन्होंने गांधी को बख्श दिया!

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