पयामे जम्हूरियत है ज़रा ग़ौर से सुनिए

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— अरुण कुमार त्रिपाठी —

र्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की 1999 की तरह 136 सीटों पर हुई जीत तो अहम है ही लेकिन उससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण भारतीय जनता पार्टी की पराजय है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पूरी छवि और बजरंग बली की आस्था को दांव पर न लगाया होता तो भाजपा 65 की बजाय 40 सीटों पर सिमट गई होती। क्योंकि मोदी जिस चुनाव का उग्र हिंदुत्व बनाम अल्पसंख्यक संवेदना के बहाने ध्रुवीकरण करना चाहते थे, वह 40 प्रतिशत कमीशन और महंगाई, बेरोजगारी और किसानों की समस्याओं और क्षेत्रीय स्वाभिमान की ओर मुड़ गया। देश में सबसे ज्यादा साहित्य अकादेमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले पढ़े-लिखे कन्नाडिगा समाज ने भाजपा को बता दिया है कि आप कुछ लोगों को कुछ समय के लिए बेवकूफ बना सकते हैं लेकिन सभी लोगों को सारे समय के लिए बेवकूफ नहीं बना सकते। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने ठीक ही कहा है कि मुहब्बत की दुकान खुल गई और नफरत की दुकान बंद हो गई।

ब्रांड मोदी दरक गया है और यह दावा एक मिथक साबित हुआ है कि स्थितियां कैसी भी हों जीतेगा तो मोदी ही। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है लेकिन फिर भी न जाने कैसे यह मिथक निर्मित हो गया है और इसने भारतीय लोकतंत्र की नींव हिला रखी है। कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस पार्टी की जीत से लोकतंत्र की हिलती हुई नींव कुछ स्थिर होती दिखाई दे रही है।

कांग्रेस की इस विजय ने कई संदेश दिए हैं। उनमें से एक प्रमुख संदेश सांप्रदायिक सौहार्द का है। संयोग से यह चुनाव 10 मई को हुआ था और भारत के इतिहास में दस मई का विशेष महत्त्व है। इसी दिन 1857 की क्रांति मेरठ से शुरू हुई थी और तब `अल्लाह हो अकबर’ और `हर हर महादेव’ के नारे एकसाथ लगे थे। तब हिंदुओं और मुसलमानों को अलग करने का ब्लू प्रिंट तैयार नहीं हुआ था। यानी उन्नीसवीं सदी में हिंदू मुस्लिम एकता की अद्भुत मिसाल कायम हुई थी अंग्रेजों की विभाजनकारी सांप्रदायिक नीति के विरुद्ध। आज भाजपा और पूंजीवाद के साथ मिलकर निर्मित उसके सबसे बड़े ब्रांड नरेंद्र मोदी का इकबाल दरक गया है। अब यह नहीं कहा जा सकता कि वे सत्ताविरोधी लहर से आसन्न हार के जबड़े से जीत निकाल लाते हैं। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक ने ऐसा कर दिखाया है।

भारतीय जनता पार्टी का 36 प्रतिशत वोट बरकरार देखकर मुख्यधारा के चैनलों पर विराजमान जो चुनाव विश्लेषक यह दावा करते हैं कि कांग्रेस ने भाजपा को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया बल्कि असली नुकसान तो जनता दल(सेकुलर) को पहुंचाया है, वे उस समय हकलाने लगते हैं जब यह दिखाई पड़ता है कि ग्रामीण क्षेत्र की 98 में 62 सीटें और लिंगायत बहुल क्षेत्रों में भाजपा को दो दर्जन से ज्यादा सीटों का झटका देकर कांग्रेस ने अपनी जीत दर्ज की है। यह सही है कि कांग्रेस पार्टी ने देवगौड़ा की पार्टी का किंगमेकर बनने का सपना ध्वस्त कर दिया लेकिन उससे भी ज्यादा उसने भाजपा के 2024 के उबलते मंसूबों पर पानी फेर दिया है। कर्नाटक के परिणाम के बाद 2024 का चुनाव संघ, भाजपा और केंद्र सरकार की सीबीआई, ईडी और आयकर विभाग जैसी संस्थाओं के कटघरे में बंद एक फिक्स्ड मैच न रहकर खुले मैदान का चुनाव बनता जा रहा है।

गोदी मीडिया ने अपने विश्लेषण की एक नई तकनीक निकाली है और उसमें उसने यह दर्शाने की कोशिश की है कि भाजपा की शक्ति और उसकी संभावना कायम है। नुकसान तो जेडी(एस) का ही हुआ है और कांग्रेस पार्टी ने उसे ध्वस्त करके अपना परचम लहराया है। अगर ऐसा है तो कांग्रेस को तकरीबन पांच दर्जन सीटों का लाभ और भाजपा को चार दर्जन सीटों के नुकसान का क्या विश्लेषण है?

वास्तव में कांग्रेस की विजय महज आंकड़ों की बाजीगरी नहीं है। यह भारत के विचार (आइडिया ऑफ इंडिया) की जीत है और भारत का वह विचार जेडी(एस) से नहीं भाजपा से टकरा रहा था। यह भारतीय लोकतंत्र की जीत है और यह इस उम्मीद की जीत है कि नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को हराया जा सकता है। यह इस बात की भी जीत है कि चुनाव को निजी, धार्मिक, जातिवादी और नफरती बनाने की सारी कोशिशों के बावजूद जो वास्तविक मुद्दे हैं उन्हें हमेशा के लिए दरकिनार नहीं किया जा सकता। अगर विपक्षी दल उन्हें जनता तक पहुंचाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं तो कोई कारण नहीं कि जनता उन पर सकारात्मक प्रतिक्रिया न दे। यह इस बात का भी प्रमाण है कि आंदोलन व्यर्थ नहीं जाते। अगर व्यर्थ जाते तो कर्नाटक में किसानों ने इतने बड़े पैमाने पर कांग्रेस को वोट न दिया होता।

कर्नाटक चुनाव राहुल गांधी के भारत जोड़ो यात्रा की भी जीत है। क्योंकि स्वतंत्र भारत में सांप्रदायिक जहर के शमन के लिए गांधी की शहादत के बाद संभवतः राहुल गांधी ने सबसे बड़ा अभियान चलाया था। उनका वह अभियान कर्नाटक में काफी प्रभावशाली ढंग से उपस्थित हुआ।

बरसते पानी में उनके भाषण का वीडियो और पार्टी के दो गुटों के नेता सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार को एकसाथ लेकर चलते हुए उन्होंने सांगठनिक स्तर पर भी बेहतरीन संदेश दिया था। आशंका थी वह प्रयास व्यर्थ जाएगा लेकिन जनता ने घृणा के मुकाबले प्रेम की लाज रख ली। यह एक हद तक उस समाजवादी विचार की भी जीत है जिसमें जाति और धर्म की विभिन्नता से खेलने से ज्यादा वर्गीय विभाजन को मिटाने पर जोर दिया जाता है। शहर और गांव के गरीबों ने कांग्रेस पार्टी में इसीलिए भरोसा जताया है क्योंकि कर्नाटक में नवउदारवादी नीतियों के तहत पूंजीवाद ने अपना समर्थक जो मध्यवर्ग तैयार किया था वह स्वार्थी और सांप्रदायिक हो चला है। इसीलिए कांग्रेस ने कमजोर वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पांच सूत्री अधिकार संबंधी कार्यक्रम पेश किए थे, लोगों ने उन्हें पसंद किया।

कहा जा सकता है कि भाजपा यह चुनाव पार्टी की गुटबाजी और असंतोष के कारण हारी। लेकिन इसके ठीक विपरीत भाजपा को अपने राष्ट्रीय मुद्दों और नेताओं पर इतना घमंड था कि उसने स्थानीय असंतोष को बेमानी समझा। जबकि भाजपा इसी नाते हारी क्योंकि उसने क्षेत्रीय नेतृत्व और संगठन की बजाय राष्ट्रीय नेतृत्व और संगठन पर ज्यादा भरोसा किया। यानी कर्नाटक ने भाजपा के अखिल भारतीय राष्ट्रवाद के हाथों हारने की बजाय उसे हराना ज्यादा ठीक समझा।

लेकिन यहां एक बात गौर करने लायक है कि इसके आसपास का परिणाम 2018 में भी आया था और जब कांग्रेस और जेडी(एस) की मिलीजुली सरकार बनी तो सोनिया गांधी के साथ अखिलेश यादव और मायावती समेत तमाम विपक्षी नेताओं का जमघट वहां उपस्थित था। उस वक्त भी लग रहा था कि कर्नाटक देश को एक बड़ा संदेश दे रहा है और देश 2019 में उसे ध्यान से सुनेगा। लेकिन वह संदेश और उत्साह पुलवामा धमाके के कारण इस तरह बिखरा कि 2019 भी विपक्षी दलों के हाथ से निकल गया। इसलिए विपक्षी दलों को 2023 को 2018 होने से बचाना होगा। अगर उन्होंने ऐसा किया तो आगामी 2024 बीते 2019 से भिन्न होगा। लेकिन अगर उन्होंने फिर वही गलती की तो पूंजीवाद के रथ पर भगवा लहराते हुए विजय यात्रा पर निकले ब्रांड मोदी घायल होकर भी बिखरे विपक्ष पर भारी पड़ेंगे और लोकतंत्र की एकदम नई परिभाषा गढ़ डालेंगे।

इसीलिए यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि कर्नाटक का चुनाव परिणाम जम्हूरियत का पैगाम है। वह उत्तर भारतीय आंखों पर पड़ी अहंकार, संकीर्णता और धर्मांधता की झिल्ली को उतार कर उसकी दृष्टि को दुरुस्त करने की कोशिश है।

यह चुनाव परिणाम उत्तर प्रदेश जैसे राज्य को यह बताने का भी प्रयास है कि कानून और नैतिकता के साथ इतना खिलवाड़ न कीजिए कि देश की अंतरात्मा कराहने लगे। अब विंध्य पर्वत अगस्त्य के कहने पर हमेशा के लिए झुके रहने को तैयार नहीं है। वह भी सीना तान कर खड़ा होना चाहता है और उत्तर भारत की हां में हां तभी मिलाएगा जब उसकी बात सच हो। यह सब कुछ संदेश हैं कर्नाटक चुनाव के, इसे गौर से सुनिए। कर्नाटक की जनता ने बहुत साफ कहा है, क्या बाकी देश और विपक्ष उसे सुन रहा है?

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  1. अरुण त्रिपाठी जी के इस आकलन से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि, ” देश में सबसे ज्यादा साहित्य अकादेमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले पढ़े-लिखे कन्नाडिगा समाज ने भाजपा को बता दिया है कि आप कुछ लोगों को कुछ समय के लिए बेवकूफ बना सकते हैं लेकिन सभी लोगों को सारे समय के लिए बेवकूफ नहीं बना सकते।”
    साहित्य अकादेमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार ही अगर कर्नाटक राज्य के,ये होगी कि कम पढ़े लिखे मतदाता जागरूकता सबसे ज्यादा पढ़े लिखे होने का पैमाना मान लिया गया तो यह कम पढ़े लिखे मतदाताओं की जागरूकता से इंकार माना जाएगा।

  2. अरुण त्रिपाठी जी के इस आकलन से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि, ” देश में सबसे ज्यादा साहित्य अकादेमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले पढ़े-लिखे कन्नाडिगा समाज ने भाजपा को बता दिया है कि आप कुछ लोगों को कुछ समय के लिए बेवकूफ बना सकते हैं लेकिन सभी लोगों को सारे समय के लिए बेवकूफ नहीं बना सकते।”
    साहित्य अकादेमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार ही अगर कर्नाटक राज्य के, सबसे ज्यादा पढ़े लिखे होने का पैमाना मान लिया गया तो यह कम पढ़े लिखे मतदाताओं की जागरूकता से इंकार माना जाएगा।

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