कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों का यहाँ जो विश्लेषण दिया जा रहा है वह वेब पोर्टल gaurilankeshnews.com की टीम ने तैयार किया है।
इस बार (2023) कर्नाटक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 136 सीटों के साथ अपूर्व जीत हासिल हुई। 1989 के बाद पहली बार किसी पार्टी को इतनी शानदार सफलती मिली है।
समाज को एक पिरामिड की तरह देखें तो बीजेपी को मुख्य रूप से इस पिरामिड के ऊपरी हिस्से का समर्थन मिला। भाजपा की रणनीति रही है कि इस पिरामिड के ऊपरी हिस्से के समर्थन को पूरी तरह एकजुट रखते हुए नीचे के आधे हिस्से का कई टुकड़ों में बँटवारा करा दिया जाए। इसलिए जो लोग बीजेपी के खिलाफ चुनाव अभियान चला रहे थे उन्होंने जनसाधारण को, जो कि समाज रूपी पिरामिड का निचला हिस्सा हैं, एकजुट करने के महत्त्व को समझा और इस पर जोर दिया।
चुनाव नतीजे साफतौर पर यह दिखाते हैं कि बीजेपी के खिलाफ उत्पीड़ित-शोषित समुदायों को एकजुट करने के प्रयास रंग लाए हैं। कर्नाटक में कुरुबा वोट 4 फीसद और ओबीसी वोट 5 फीसद बढ़ा है जबकि मुसलिम वोट में 10 फीसद तक की बढ़ोतरी हुई है। पूरे राज्य में इन समुदायों ने कांग्रेस के पक्ष में बढ़-चढ़कर मतदान किया। इसका विश्लेषण प्रस्तुत है –
दलित वोट
अगर निर्वाचन क्षेत्रों का विश्लेषण हर निर्वाचन क्षेत्र में दलित वोटों के अनुपात के आधार पर करें तो हमारा ध्यान उन क्षेत्रों पर जाएगा जो अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित तो नहीं हैं लेकिन जहाँ अनुसूचित जाति (एस.सी.) की आबादी अच्छी-खासी है। जिन निर्वाचन क्षेत्रों में उनकी आबादी 10 से 25 फीसद है वहाँ एस.सी. के रुझान में उल्लेखनीय बदलाव एकदम साफ दीखता है।
राज्य में ऐसी 50 विधानसभा सीटें हैं जहाँ एस.सी. आबादी 10 से 15 फीसद है। इनमें से 12 पर बीजेपी को जीत मिली, 30 पर कांग्रेस को और 7 पर जेडीएस को। जाहिर है, 2018 के मुकाबले तस्वीर काफी बदल गयी है। 2018 में इन पचास सीटों में 23 पर बीजेपी जीती थी, 16 पर कांग्रेस और 10 पर जेडीएस। इस बार के चुनाव में उपर्युक्त सीटों पर बीजेपी की संख्या घटकर आधी हो गयी, जबकि कांग्रसे की लगभग दुगुनी हो गयी। एक सीट अन्य के खाते में गयी।
इसी तरह उन सीटों को देखें जहाँ एस.सी. आबादी 15 से 20 फीसद है। राज्य में ऐसी 63 सीटें हैं। इन सीटों में बीजेपी घटकर लगभग आधे पर आ गयी; 2018 में उसे इनमें से 27 सीट मिली थी, जबकि इस बार 15 सीट मिली है। दूसरी तरफ उपर्युक्त सीटों पर कांग्रेस का आँकड़ा बढ़कर करीब-करीब दोगुना हो गया; 2018 में उसे 25 सीट मिली थी, इस बार बढ़कर वह संख्या बढ़कर 42 हो गयी। जेडीएस को भी इन सीटों का ऐसा ही लाभ मिला; 2018 में उसे 5 सीट मिली थी, इस बार 11 मिली हैं। एक सीट अन्य की झोली में गयी है।
अब उन सीटों को देखें जहाँ दलित आबादी इससे भी अधिक, 20 से 25 फीसद है। राज्य में ऐसी 44 सीटें हैं। यहाँ भी बीजेपी की सीटें 2018 की तुलना में घटकर आधी रह गयीं; 2018 में उसे 17 सीट मिली थी, इस बार केवल 8 मिली है। यहाँ भी कांग्रेस की सीटें दोगुनी हो गयीं; 2018 में उसे 15 सीट मिली थी, 2023 में बढ़कर 29 हो गयी। यहाँ जेडीएस की सीट 2018 में 12 थी, घटकर इस बार 5 रह गयी। अन्य के हिस्से में 2 सीट गयी है।
बीजेपी का वोट-शेयर (वोट प्रतिशत) लगभग उतना ही रहा जितना पिछली बार था, लेकिन कांग्रेस के वोट शेयर में औसतन 5 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। इसका सीधा रिश्ता एक निर्वाचन क्षेत्र में एस.सी. आबादी और बीजेपी के वोट शेयर से है। निर्वाचन क्षेत्र में एस.सी.आबादी में 5 फीसद की बढ़ोतरी हुई तो बीजेपी को वोट शेयर 5 फीसद नीचे गया।
कर्नाटक की एस.सी. आबादी में मोटे तौर पर मादिगा, होलेया और लंबानी तथा बंजारा जैसे ‘स्पृश्य दलित’ (टचेबल दलित) आते हैं।
अप्रैल में बीजेपी सरकार ने अनुसूचित जाति (एस.सी.) का आरक्षण बढ़ाकर 15 फीसद से 17 फीसद कर दिया और एस.सी. आरक्षण में आंतरिक विभाजन का फैसला किया, जिसके मुताबिक उपजाति-आरक्षण मादिगा को 6 फीसद, होलेया को 5.5 फीसद और स्पृश्य दलित को 4.5 फीसद (जिसमें बंजारा, लंबानी, कोरमा और कोरचा आते हैं)। इससे पहले बंजारा आरक्षण 10 फीसद था, लिहाजा बीजेपी सरकार के उपर्युक्त निर्णय के खिलाफ इस समुदाय के लोग सड़कों पर उतर आए। स्वाभाविक ही, बीजेपी सरकार से उनकी नाराजगी उन्हें कांग्रेस की तरफ ले गयी।
मादिगा परंपरागत रूप से बीजेपी का समर्थन करते आए हैं, पर इस बार कांग्रेस की तरफ मुड़ गए, बावजूद इसके कि बीजेपी सरकार ने उनके लिए 6 फीसद के आंतरिक आरक्षण की तजवीज की। इस बार कांग्रेस की तरफ रुख कर लेने की वजह कांग्रेस की वह घोषणा हो सकती है जिसमें पार्टी ने कहा कि सत्ता में आने पर वह एजे सदाशिव कमीशन की रिपोर्ट लागू करेगी, जिसमें मादिगा के लिए, जो होलेया तथा लंबानी से ज्यादा पिछड़े माने जाते हैं, अच्छे-खासे उपजाति-आरक्षण की सिफारिश की गयी है। कांग्रेस ने यह भी वादा किया कि वह नौवीं अनुसूची में डालकर कुल आरक्षण की अधिकतम सीमा बढ़ाकर 75 फीसद करेगी, जैसा कि तमिलनाडु में पहले हो चुका है।
एस.सी. का होलेया समुदाय कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़ा रहा है, कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे इसी समुदाय से आते हैं। इस चुनाव में भी कांग्रेस ने अपने इस आधार को बनाए रखा।
आदिवासी वोट
कांग्रेस ने आदिवासियों (एसटी) के लिए आरक्षित 15 में से 14 सीटें जीती हैं; 1 सीट जेडीएस को मिली है। यह गौरतलब है कि एस.टी. के लिए आरक्षित जो 6 सीटें बीजेपी ने 2018 में जीती थीं वे सभी सीटें इस बार कांग्रेस के खाते में चली गयीं।
10 से 20 फीसद एस.टी. आबादी वाले जिलों को लें, जहाँ 40 सीटें हैं। बीजेपी को यहाँ 2018 में 17 सीट मिली थी, इस बार केवल 6 सीट मिली है। जबकि कांग्रेस की सीटें दो गुनी हो गयीं। यहाँ कांग्रेस को 2018 में 15 सीट मिली थी, 2023 में 28 सीट मिली है। यहाँ जेडीएस की सीट 2018 के 7 से घटकर 2023 में 3 रह गयी। इस बार 3 सीट अन्य के खाते में गयी है। इन निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस के वोट शेयर में 9 फीसद का इजाफा हुआ, जबकि बीजेपी के वोट शेयर में 2 से 3 फीसद की कमी आयी।
अब उन निर्वाचन क्षेत्रों को लें, जहाँ अनुसूचित जनजाति (एस.टी.) आबादी 20 फीसद है। यहाँ बीजेपी का इस बार खाता भी नहीं खुला। यहाँ कांग्रेस को 9 सीट मिली, 1 सीट जेडीएस की झोली में गयी। यहाँ पिछली बार 4 सीट बीजेपी को मिली थी और 5 सीट कांग्रेस को। यहाँ कांग्रेस के वोट शेयर में 10 फीसद की बढ़ोतरी हुई, जबकि बीजेपी के वोट शेयर में 4 फीसद की गिरावट दर्ज हुई।
चित्रदुर्ग, बेल्लारी, रायचुर और सेंट्रल कर्नाटका के अन्य हिस्सों में अनुसूचित जनजाति समुदाय परंपरागत तौर पर भाजपा का समर्थन करते आए हैं, 2018 में यह खासकर हुआ था। यह रुझान इस बार बदला है। उदाहरण के लिए, चित्रदुर्ग में बीजेपी को 2018 में 5 सीट मिली थी और कांग्रेस को एक। इस बार पासा पलट गया है। यहाँ इस बार कांग्रेस को 5 सीट मिली है और भाजपा को एक।
मुसलिम वोट
अब उन निर्वाचन क्षेत्रों को लें, जहाँ मुसलिम आबादी 30 फीसद या उससे अधिक है। राज्य में ऐसी 10 विधानसभा सीटें हैं। इन सीटों पर पार्टीवार स्थिति जस की तस रही- 1 सीट बीजेपी को, 9 सीट कांग्रेस को और जेडीएस को शून्य। अलबत्ता 2018 के मुकाबले यहाँ बीजेपी का वोट शेयर 4 फीसद कम हो गया और जेडीएस का 2 फीसद बढ़ गया। कांग्रेस का वोट शेयर यहाँ पहले जितना ही रहा।
कर्नाटक में जो हुआ वह आमतौर पर नहीं होता है। मसलन बिहार जैसे अन्य राज्यों में, मुसलिम आबादी बढ़ने के साथ ही भाजपा का वोट शेयर भी बढ़ता है। यह ध्रुवीकरण के चलते होता है, जहाँ गैर-मुसलिम समुदाय मुसलिम-उम्मीदवार के खिलाफ वोट देते हैं।
हालांकि कर्नाटक में इस तरह का ध्रुवीकरण उन निर्वाचन क्षेत्रों में नहीं दीखता जहाँ 30 फीसद या उससे अधिक मुसलिम आबादी है, लेकिन यह उन क्षेत्रों में जरूर दीखता है जहाँ मुसलिम आबादी 20 से 30 फीसद है। यहाँ बीजेपी और कांग्रेस का वोट बराबर-बराबर बँटा हुआ दीखता है। यहाँ 43 फीसद वोट के साथ बीजेपी को 9 सीट मिली, और 42 फीसद वोट के साथ कांग्रेस को 7 सीट। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के चलते पूरे देश में मुसलिम प्रतिनिधित्व घटा है, पार्टियाँ मुसलिम उम्मीदवार उतारने से बचती हैं, इस डर से कि कहीं गैर-मुसलिम समुदाय मुसलिम-प्रत्याशी के विरुद्ध एकजुट न हो जाएँ।
कांग्रेस ने 15 मुसलिम उम्मीदवार उतारे थे, उनमें से 9 को कामयाबी मिली है, जबकि जेडीएस के 22 मुसलिम उम्मीदवारों में से कोई भी जीत नहीं सका। 2018 में जो 7 मुसलिम उम्मीदवार जीते थे उनमें से 5 कांग्रेस के थे और 2 जेडीएस के।
उन सभी निर्वाचन क्षेत्रों में जहाँ मुसलिम आबादी अच्छी-खासी है, कांग्रेस के वोट शेयर में इजाफा हुआ और जेडीएस के वोट शेयर में कमी आयी है। जाहिर है कि कर्नाटक में मुसलिम मतदाता, जो कि कुल मतदाताओं के 13 फीसद हैं, पूरी तरह कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद हो गए। इसका एक बड़ा कारण कांग्रेस पार्टी का यह वादा रहा होगा कि वह सत्ता में आयी तो ओबीसी कोटे के तहत मुसलिम समुदाय के लिए 4 फीसद आरक्षण बहाल करेगी और बजरंग दल जैसे संगठनों पर पाबंदी लगाएगी। फिर, यह अंदेशा भी रहा होगा कि कुर्सी के लिए जेडीएस बीजेपी से हाथ मिला सकता है।
अनुवाद : राजेन्द्र राजन