सेन्ट्रल विस्टा का नाजायज लोकार्पण?

0

— कनक तिवारी —

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जिद और पहल से लोकधन का अनापशनाप खर्च कर नया संसद भवन, सेन्ट्रल विस्टा बन गया है। उसका उदघाटन या लोकार्पण प्रधानमंत्री 28 मई को करेंगे। संयोग खोजा गया कि उस दिन विनायक दामोदर सावरकर का जन्मदिन और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अंतिम संस्कार का दिन है। संसद के नए भवन से सावरकर का रिश्ता इतिहास थक कर बेहोश हो जाएगा, तो भी ढूंढ़ नहीं सकेगा। संसद का सबसे पहला और लम्बा रिश्ता तो नेहरू से है। फिर भी बेतुका संयोग ढूंढ़ा गया।

संविधान के नजरिए से नए संसद भवन के लोकार्पण का अधिकार और दायित्व किसका है? संविधान के अनुच्छेद 1 के मुताबिक भारत अर्थात् इंडिया राज्यों का संघ है। भौगोलिक, राजनीतिक और संवैधानिक इकाई भारत राष्ट्रीय एकता में परिभाषित है। अनुच्छेद 52 के अनुसार भारत का एक राष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ अर्थात् भारत की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है। इस अधिकार का प्रयोग राष्ट्रपति संविधान के मुताबिक खुद या मातहत अधिकारियों के जरिए करेगा। ‘अधिकारी’ शब्द की परिभाषा का व्यापक अर्थ यही है कि अनुच्छेद 74 के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को सलाह और सहायता देने के लिए मुकर्रर है। मंत्रिपरिषद का मुखिया प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति द्वारा ही नियुक्त होगा। अनुच्छेद 53 (2) के अनुसार देश के सुरक्षा बल भी राष्ट्रपति के अंतर्गत हैं।

संसद से राष्ट्रपति का रिश्ता तलाशने में अनुच्छेद 79 मदद करता है। वह संसद की परिभाषा तय करता है : ‘संघ के लिए एक संसद होगी। वह राष्ट्रपति और राज्यसभा तथा लोकसभा से मिलकर बनेगी।’ बिल्कुल साफ है कि राष्ट्रपति संसद का अविभाज्य हिस्सा हैं। राष्ट्रपति को अलग करें तो संसद बन ही नहीं सकती। अनुच्छेद 80 में राष्ट्रपति को अधिकार है कि साहित्य, विज्ञान, कला और समाजसेवा के नामचीन लोगों को राज्यसभा के लिए मनोनीत कर सकें। वे न केवल संसद का बुनियादी हिस्सा हैं, बल्कि व्यक्तियों को मनोनीत करने का भी उन्हें अधिकार है। अनुच्छेद 85 कहता है कि राष्ट्रपति समय-समय पर संसद के दोनों सदनों को ऐसे समय और स्थान पर, जो वह ठीक समझें, अधिवेशन के लिए आहूत करें। उसके अभाव में दोनों सदन कार्यसंचालन ही नहीं कर सकते। अनुच्छेद 86 के तहत राष्ट्रपति संसद के किसी एक या दोनों सदनों के सामने एकसाथ अभिभाषण कर सकेगा और संसद सदस्यों की हाजिरी की अपेक्षा कर सकेगा। लोकसभा के चुनाव के बाद पहले सत्र की शुरुआत में राष्ट्रपति दोनों सदनों में अभिभाषण करेगा और संसद को ऐसा करने के कारण बताएगा। चर्चा के विषयों का निर्धारण भी राष्ट्रपति ही करेगा।

संविधान में राष्ट्रपति की यह भूमिका असाधारण रूप से महत्त्वपूर्ण है। उसकी प्रधानमंत्री के कारण हेठी की जा रही है। राज्यसभा में सभापति के स्थान पर किसी भी सदस्य को राष्ट्रपति ही मनोनीत कर सकता है। संसद के कार्यरत नहीं होने पर राष्ट्रपति को अनुच्छेद 123 के अनुसार अधिकार है कि जरूरी ऑर्डिनेंस या अध्यादेश जारी कर सकें। ऐसे अध्यादेश अधिकतम छह माह की अवधि के अंदर संसद द्वारा पुष्ट किए जाएं। इस तरह संसद की आपात शक्ति भी राष्ट्रपति में निहित है।

इन प्रावधानों के रहते सेन्ट्रल विस्टा (नए संसद भवन) का उदघाटन या लोकार्पण कोई अन्य कैसे कर सकता है? संवैधानिक प्रावधान एक व्यक्ति की दमित महत्त्वाकांक्षा के कारण असंवैधानिक किया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी को संवैधानिक, पारंपरिक या नैतिक अधिकार नहीं है कि संविधान के प्रावधानों के खिलाफ निजी महत्त्वाकांक्षा को संसदीय कर्म पर लाद दें। प्रधानमंत्री लोकसभा या राज्यसभा के सदस्य हो सकते हैं। कोई भी सदस्य सदन के सदस्यों के बहुमत से प्रधानमंत्री बन सकता है।

लोकसभा या राज्यसभा अध्यक्ष अपने अपने सदन का संचालन करता है। लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और 1951 के तहत पंजीबद्ध राजनीतिक पार्टी बहुमत के आधार पर सदन के अपने नेता का चुनाव करती है। जो प्रधानमंत्री बन सकता है। यही नरेन्द्र मोदी की संवैधानिक सकूनत है। संविधान सीधे देश का प्रधानमंत्री नहीं चुन सकता। राष्ट्रपति पद पर निर्वाचन लेकिन संसद और विधानसभा सदस्यों के मतदान से ही हो सकता है। अनुच्छेद 75 के तहत राष्ट्रपति ही प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है। फिर प्रधानमंत्री की सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करेगा। विचित्र है कि नियुक्तिकर्ता राष्ट्रपति की सेन्ट्रल विस्टा के कार्यकम में आने की भी स्थिति नहीं है। उनके द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री लोकार्पण कार्यक्रम के सर्वेसर्वा हैं। क्या संसद प्रधानमंत्री के सामने कमतर संवैधानिक संस्था है? संसद के सबसे बुनियादी और अविभाज्य संवैधानिक अधिकारी संसद के लोकार्पण कार्यक्रम में बेगैरत तमाशबीन बना दिए जाएं!

संविधान सभा ने राष्ट्रपति के बिना संसद की कल्पना ही नहीं की। उनकी गैरमौजूदगी में संसद का गठन ही नहीं हो सकता। राष्ट्रपति को हटाने के लिए संविधान में अनुच्छेद 61 के तहत महाभियोग का प्रावधान है। प्राथमिक आरोप भी संसद में ही लगाया जाएगा और फिर प्रक्रिया का पालन करते उपलब्ध और उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से ही राष्ट्रपति को हटाया जा सकता है। अनुच्छेद 62 के अनुसार राष्ट्रपति की पदावधि समाप्त होने से रिक्ति को भरने के लिए अगले राष्ट्रपति का निर्वाचन ऐसी रिक्ति होने से पहले से ही पूरा कर लिया जाएगा। इसके बरक्स प्रधानमंत्री के समर्थक लोकसभा के सदस्य बहुमत से पार्टी की निजी बैठक में हटा सकते हैं। जिस पार्टी का प्रधानमंत्री सदस्य है, उस पार्टी का अध्यक्ष या संचालक मंडल संसद का सदस्य नहीं भी है, तब भी ऐसी बैठकें करके प्रधानमंत्री को हटाने का प्रस्ताव पारित कर सकता है। संविधान में कई अनिवार्य प्रावधान हैं जिनमें राष्ट्रपति पद की उपस्थिति, अनिवार्यता, निरंतरता और संवैधानिकता को लेकर संदेह हो ही नहीं सकता।

संविधान सर्वोपरि है। सांसदों, मंत्रियों बल्कि राष्ट्रपति पर भी संविधान की श्रेष्ठता असंदिग्ध है। जो अधिकारी संवैधानिक आचरण नहीं करेगा वह दरअसल अपने पद पर रह ही नहीं सकता। केन्द्रीय मंत्रियों के लिए संविधान की तीसरी अनुसूची में शपथ या प्रतिज्ञा का प्रारूप है। उसके अनुसार उन्हें विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखना जरूरी है। समझ नहीं आता कि राष्ट्रपति को उनकी संवैधानिक हैसियत और जिम्मेदारी से बेदखल करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किस हैसियत में सेन्ट्रल विस्टा के नये भवन का संवैधानिक लोकार्पण करते संवैधानिक निष्ठा कैसे कायम रख रहे हैं?

संसद में राष्ट्रपति की अनुमति के बिना संसदीय कार्य व्यवहार नहीं हो सकता और न संवैधानिक आदेश पारित हो सकता है। संविधान की सातवीं अनुसूची में केन्द्र की सूची के 97 विषय हैं। उनमें संसद कानून बना सकती है। सभी विषयों में बने कानून तब तक लागू नहीं हो सकते, जब तक राष्ट्रपति हस्ताक्षर कर अनुमति नहीं दें। प्रदेशों में यही स्थिति राज्यपाल की है, लेकिन राज्यपाल की नियुक्ति भी राष्ट्रपति ही करते हैं।

ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री की निजी, राजनीतिक, असंवैधानिक महत्त्वाकांक्षा संविधान की इबारतों और उसके कालजयी संदेश के ऊपर चस्पा कर दी गई है। दुनिया के संसदीय इतिहास में इस तरह का गड़बड़झाला न तो कभी हुआ और न ही कोई संसदीय प्रजातंत्र में विश्वास रखने वाला देश ऐसा घटिया आचरण करने की हिमाकत करेगा। राष्ट्रपति की गैरमौजूदगी या उन्हें बेदखल कर संसद भवन का लोकार्पण संसद भवन का लोकार्पण कैसे कहलाएगा? अभी का लोकार्पण एक मकान का लोकार्पण है। उसमें राष्ट्रपति की संवैधानिक मौजूदगी हो जाने पर ही उसे संसद कहा जा सकेगा। ‘मोदी भारत है, भारत ही मोदी है’ का नारा लगाने पर भी प्रधानमंत्री संसद नहीं हैं, लेकिन राष्ट्रपति तो परिभाषाधारी संसद हैं।

(लेखक छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता रह चुके हैं।)

Leave a Comment