— प्रकाश मनु —
हिंदी उपन्यासों की धारा को अपनी सांस्कृतिक पहचान से जोड़कर, पुनर्नवा करने वाले बड़े कद के लेखकों में देवेंद्र सत्यार्थी सबसे अलग नजर आते हैं। अपनी अथक लोकयात्राओं से हासिल हुए अनुभवों ने सत्यार्थी जी को उपन्यास-लेखन की ओर खींचा। ‘रथ के पहिए’ से उनकी उपन्यास-यात्रा की शुरुआत हुई और एक बार वे इधर खिंचे तो फिर उन्होंने विश्राम नहीं लिया। हिंदी साहित्य को एक से एक बेहतरीन उपन्यास उन्होंने दिए, जिनके पीछे उनके निजी अनुभवों का ताप और जीवन भर के विचारों और अनुभवों की ऊष्मा थी। और वे अऩकही तकलीफें भी, जो सत्यार्थी जी की बीहड़ आत्मकथा के पन्नों से चुपके-चुपके निकल कर आई थीं।
सच तो यह है कि सत्यार्थी जी के उपन्यासों ने हिंदी उपन्यासों की कथाधारा में एक ऐसी लोकगंगा बहा दी, जिसकी निर्मल कल-कल और सुवास आज भी देश में हजारों पाठकों और साहित्यिकों के दिलों को शीतल करती है और उसकी मीठी गूँजें-अनुगूँजें हमारी आत्मा का संगीत बनकर हवाओं में व्याप्त हैं।
बीसवीं सदी का छठा दशक सत्यार्थी जी के उपन्यास-लेखन के लिहाज से सिरमौर है, जब उनकी सृजनात्मकता शिखर पर थी और उन्होंने एक से एक बेहतरीन उपन्यास लिखे जिन्होंने हिंदी उपन्यास के परिदृश्य को बहुत कुछ बदला और समृद्ध किया। ‘रथ के पहिए’ सन् 1952 में लिखा गया। उसके बाद ‘कठपुतली’ (1954), ‘ब्रह्मपुत्र’ (1956), ‘दूधगाछ’ (1958), ‘कथा कहो उर्वशी’ (1960), ‘तेरी कसम सतलुज’ (1988) तथा ‘विदा दीपदान’ (1992) जैसे नए अनुभवों की जमीन पर लिखे गए उपन्यास सामने आए। सत्यार्थी जी के एकदम अलग तासीर वाले उपन्यासों ने न सिर्फ अलग पहचान बनाई, बल्कि हिंदी उपन्यासों की धारा को अपनी तरह से समृद्ध भी किया।
देवेंद्र सत्यार्थी हिंदी उपन्यासों की लोक-धारा के एक मनमौजी यात्री तथा प्रतिनिधि लेखक हैं। हालाँकि लोक जीवन का अर्थ यहाँ किसी पिछड़ी हुई या पिटी-पिटाई लीक का निर्वाह करना हरगिज नहीं है। यायावर सत्यार्थी के उपन्यासों में लोक जीवन का गहरा आत्मीय रंग, लोकनृत्य, गायन और मस्ती के अलग-अलग शेड्स हैं तो एक बड़े समाज की पीड़ा और छटपटाहट भी। सत्यार्थी जी इस सब को अपनी संवेदना की आँख से देखते रहे और नए-नए कलारूपों में उभारते चले गए।
इन उपन्यासों के अलावा मूलत: पंजाबी में लिखे गए उनके उपन्यासों ‘घोड़ा बादशाह’ और ‘सूई बाजार’ की भी खासी धूम रही है। और इन दो उपन्यासों के जरिए पंजाबी में प्रयोगधर्मी उपन्यासों की एक नई धारा ही चल पड़ी। सत्यार्थी जी यहाँ ‘प्रयोग के लिए प्रयोग’ की धुन में यथार्थ को अवमूल्यित या खारिज नहीं करते, बल्कि यथार्थ अपनी पुरानी केंचुल छोड़कर कुछ अधिक तीखा,स्पंदनशील और घनीभूत होकर इन उपन्यासों में आता है। और कहीं अधिक मारक प्रभाव छोड़ता है।
लोक साहित्य के गंभीर अध्ययन-मनन और खोज में बरसों जुटे रहे सत्यार्थी जी को अंत में उपन्यास-लेखन का क्षेत्र संभवतः इसलिए भाया होगा कि यह अपेक्षाकृत खुला और निर्बंध रास्ता था। यहाँ अपनी मर्जी से, तमाम रूपों, भाव-भंगियों में अपनी बात कहने और खुलकर यहाँ-वहाँ विचरण करने की स्वच्छंदता भी। फिर यहाँ कथा-रस और किस्सागोई थी, जो शुरू से सत्यार्थी जी को लुभाती और ललचाती आई थी।
लिहाजा उपन्यास लेखन में बहुत कुछ ऐसा था, जो सत्यार्थी जी को बारहा आकर्षित करता था। और एक बार वे इस रास्ते पर बढ़े, तो उनकी सर्जना के नित नए द्वार खुलते चले गए। उपन्यास लेखन में भी वही मुक्तता, और गहरी भाव- तन्मयता थी, जो सत्यार्थी जी सरीखे घुमक्कड़ लेखक के मनमौजी स्वभाव को प्रिय थी। यही कारण है कि सत्यार्थी जी उपन्यासों में इस कदर रमे कि उन्होंने केवल उपन्यास लिखे ही नहीं, बल्कि अपने उपन्यासों से हिंदी उपन्यासों की धारा में एक अलग मयार कायम किया।
कहना न होगा कि यह वही रसधारा है, जिस पर आगे चलकर फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ सरीखे उपन्यास लिखे गए। पर सच तो यह है कि इसकी गरिमापूर्ण शुरुआत और बीजवपन बरसों पहले सत्यार्थी जी अपने ‘ब्रह्मपुत्र’, ‘रथ के पहिए’, ‘कथा कहो उर्वशी’ और ‘दूध-गाछ’ सरीखे रसपूर्ण उपन्यासों से कर चुके थे, जिनमें अपने समाज की लोक संस्कृति की धारा झर-झर झरती नजर आती है।
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सत्यार्थी जी के उपन्यासों में उनकी लंबी और बीहड़ लोकयात्राओं के अनुभव कुछ इस कदर पिरोए हुए हैं कि उनसे अलग करके उन्हें देखा या परखा ही नहीं जा सकता। और यही नहीं, लोक जीवन और लोक साहित्य पर उनकी टिप्पणी, सूक्तियाँ और बेहद चुभीली कहावतें साथ ही साथ चलती हैं और उनमें एक तीसरे आयाम को उपस्थित कर देती हैं। फिर ज्यादातर पात्र भी वही हैं जिन्हें सत्यार्थी जी ने अपनी घुमक्कड़ी और अनवरत यात्राओं में पाया था और अपने मन पर वे जिनकी गहरी छाप महसूस करते हैं। इन पात्रों में गाँव के गरीब किसान-मजदूरों और ताँगा चलाने वालों से लेकर अत्यंत नामी-गिरामी लोग और असाधारण शख्सियतें भी हैं। हालाँकि सत्यार्थी जी इस ढंग से उनमें रमते और उनके साथ आत्मीय संवाद स्थापित करते नजर आते हैं कि हर पात्र, चाहे वह कितना ही मामूली क्यों न हो, अपनी जगह अद्वितीय लगता है—और लगने लगता है कि शायद ही कोई दूसरा इस व्यक्ति की जगह ले सके। यकीन न हो तो ‘रथ के पहिए’ में चुन्नू मियाँ जैसे एक साधारण-से पात्र को हटाकर देख लीजिए। आपको लगेगा कि इसके साथ ही उपन्यास का पूरा ढाँचा लडख़ड़ाकर गिर पड़ा है।
अगर असाधारण लोगों की असाधारणता बड़ी है तो मामूली लोगों का मामूलीपन भी कोई छोटी चीज नहीं है। सत्यार्थी जी से यह बात सीखी जा सकती है। और यह भी कि उपन्यास का जो भी कच्चा माल हो, उसे ज्यों का त्यों पेश करने के बजाय अंतरात्मा की एक विशाल भट्ठी में पकाना होता है। इसी से उसमें कलात्मक संपूर्णता या ‘इंटीग्रिटी’ आती है तथा भाषा और अभिव्यक्ति में एक नई तराश नजर आने लगती है।
एक खास बात और। सत्यार्थी जी जिस भी जमीन पर उपन्यास लिखते हैं, उसकी समूची रचनात्मक संभावनाओं को आखिरी बूँद तक निचोड़ लेना चाहते हैं। शायद यही वजह है कि उनका हर उपन्यास एक अलग जमीन पर खड़ा है। वे अपने विषय या कथ्य को कभी दोहराते नहीं हैं। मसलन ‘रथ के पहिए’ आदिवासी जीवन को बहुत भीतर एक जाकर देखने और समझने की कोशिशों से जाकर पैदा हुआ है तो ‘कठपुतली’ में देश-विभाजन की करुण और रक्तरंजित त्रासदी है। ‘ब्रह्मपुत्र’ में असम का लोक जीवन और स्वाधीनता की लड़ाई एक संश्लिष्ट कथा के रूप में आगे बढ़ती है।
‘दूध-गाछ’ में केरल की पृष्ठभूमि है। हालाँकि यहाँ मूल चिंता उस संगीत की है जिसके एक और शास्त्रीयता का शुद्ध पाठ और कई पीढ़ियों की साधना है, तो दूसरी ओर बाजारवाद के खतरे और लटके। मिलावटी संगीत लोकप्रियता के नाम पर बिकता है और खूब बिकता है। हैरानी है कि आज से पैंसठ साल पहले सत्यार्थी जी ने बाजारवाद के उस खतरे को देख लिया था जो आज हर ओर फैलकर छा गया है और हर आदमी उस संकट की चर्चा कर रहा है।
‘कथा कहो उर्वशी’ जो सत्यार्थी जी का सबसे अधिक कलात्मक और गठा हुआ उपन्यास है, ओड़िशा के मूर्तिकारों की तीन पीढ़ियों की अनूठी कथा कहता है। यह विचित्र बात है कि जहाँ दूसरी पीढ़ी विद्रोह करके अपना रास्ता अलग कर लेती है, वहीं तीसरी पीढ़ी फिर से परंपरा की उस छाँह में लौटना चाहती है, जहाँ पीढ़ियों का तप, ममता का स्पर्श और कला है। ‘तेरी कसम सतलुज’ में पंजाब है और यहाँ पंजाब की उस आत्मा की खोज नजर आती है जिसने बार-बार होते आए बाहरी आक्रमणों के बावजूद अपनी आब और आन को बचाए रखा है और प्यार और भाईचारे की अजस्र कथा कह रहा है।
जाहिर है, ‘तेरी कसम सतलुज’ ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ पंजाब के लोक जीवन की भी सुवास लिए हुए है। हालाँकि यहाँ तक आते-आते सत्यार्थी जी की अभिव्यक्ति में थोड़ा बिखराव भी नजर आने लगता है और बीच-बीच में कुछ सिलसिले और सूत्र छूट गए से लगते हैं। एक बात और! ‘तेरी कसम सतलुज’ उपन्यास के साथ-साथ खुद सत्यार्थी जी की बीहड़ जिंदगी का एक ‘कच्चा चिट्ठा’ भी है, जिसमें उपन्यास के बीच-बीच में सत्यार्थी जी की आत्मकथा के पन्ने भी घुल-मिल गए-से लगते हैं।
‘विदा दीपदान’ में अगर साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया की मुश्किलें और झमेले हैं तो ‘घोड़ा बादशाह’ में समकालीन चित्रकला का संसार किस्म-किस्म के रंगों और रेखाओं की दौड़ और प्रतीकार्थ के साथ मौजूद है। ‘सूई बाजार’ में एक स्त्री के जीवन के दुख और अँधेरों की मर्मस्पर्शी कथा है।
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सत्यार्थी जी का पहला उपन्यास ‘रथ के पहिए’ कई लिहाज से महत्त्वपूर्ण है और इसे उनकी उपन्यास-यात्रा की एक जोशीली शुरुआत माना जा सकता है। जैसा कि इस उपन्यास के नाम से ही प्रतिध्वनित होता है, इसमें सत्यार्थी जी की लोकयात्राओं की सबसे ज्यादा गूँज है। मुझे अच्छी तरह याद है, जब मैंने पहले-पहल यह उपन्यास पढ़ा, तो लगा कि मैं उपन्यास नहीं पढ़ रहा हूँ, बल्कि सत्यार्थी जी के लोकयात्री रूप तथा उनकी लोकयात्राओं को खुली आँखों से देख रहा हूँ।
कथानायक आनंद में साफ तौर से सत्यार्थी जी की छाप नजर आती है। अपने पिता डॉ. जय आदर्श जो मुअनजोदड़ो में क्यूरेटर हैं—की जीवन-पद्धति से विद्रोह करके आनंद अपने चित्रकार मित्र सोम और एक बहुत ही जिंदादिल शख्स तथा मुअनजोदड़ो के कर्मचारी चुन्नू मियाँ के साथ आदिवासियों के ग्राम करंजिया जा पहुँचता है। वहाँ गोंड आदिवासियों के बीच एक नए जीवन और नए रहन-सहन की शुरुआत होती है।
यहाँ बहुत तरह की मुश्किलें हैं। लेकिन आनंद को लगता है कि जिंदगी भर मुर्दों के टीले की खुदाई करते रहने के बजाय इन जिंदा लोगों के बीच रहना कहीं ज्यादा दिलचस्प है जो आज हमारे बीच मौजूद तो हैं, लेकिन हजारों साल पहले की सभ्यता में रह रहे हैं। आनंद वहाँ अपने मित्रों के साथ ‘कलाभारती’ नामक एक आश्रम खोलता है, ताकि आदिवासियों को मुक्त और रचनात्मक ढंग से थोड़ी शिक्षा दी जा सके और उन्हें आज के जीवन से जोड़ा जा सके। इसी आश्रम में साथ-साथ रहते हुए सोम और फुलमत विवाह-बंधन में बँध जाते हैं और रूपी आनंद की ओर आकर्षित होती है। आदिवासी धीरे-धीरे जीवन की नई चेतना से जुड़ने लगते हैं।
‘कलाभारती’ का प्रयोजन बहुत कुछ सफल हो गया। तब जीवन को ‘निरंतर गति’ मानने वाला कथानायक आनंद नए विचारों का हर क्षण स्वागत करने वाली रूपी और चुन्नू मियाँ के साथ आगे की यात्रा पर चल पड़ता है। रथ के पहियों की गूँज हवा में फिर सुनाई देने लगती है। हालाँकि सोम और फुलमत वहीं आदिवासियों के बीच करंजिया में ही रहना पसंद करते हैं।
यहाँ यह उल्लेख करना दिलचस्प होगा कि वेरियर एलविन ने, जिन्होंने आदिवासियों के बीच रहकर काफी काम किया है तथा लोक जीवन पर बहुत-सी विश्व प्रसिद्ध किताबें लिखी हैं—उन्होंने करंजिया में सचमुच आदिवासियों को शिक्षा देने और उन्हें आधुनिकता से जोड़ने के लिए एक ऐसा ही आश्रम खोला था। लगता है, सत्यार्थी जी को वहीं से ‘रथ के पहिए’ लिखने की प्रेरणा मिली है। मुअनजोदड़ो के क्यूरेटर डॉ. जय आदर्श में वासुदेवशरण अग्रवाल की छवि साफ दिखाई देती है, जो कभी मथुरा म्यूजियम में क्यूरेटर रहे थे तथा सत्यार्थी जी के अभिन्न मित्रों में से थे।
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‘रथ के पहिए’ का बीज शब्द अगर ‘यात्रा’ है, तो सत्यार्थी जी के दूसरे उपन्यास ‘कठपुतली’ का बीज शब्द ‘नाटक’ है। एक नहीं, कई स्तरों पर यह नाटक चलता है और कठपुतली के कई प्रतीकार्थ खोलता है। मसलन सुनील जो कि ‘माटी की मूरत’ का प्रसिद्ध नाटककार है, खुद उसकी जिंदगी किसी त्रासद नाटक से कम नहीं है। एक ओर वह नाटक में बेहद शोहरत पाता है और दूर-दूर तक उसका नाम फैल चुका है तो दूसरी ओर गुजारे के लिए उसे प्रूफरीडरी पर निर्भर रहना पड़ता है। फिर देश-विभाजन के बाद एक देश का दो देशों में बँट जाना भी तो एक नाटक ही था और यह नियति-नटी या इतिहास-पुरुष द्वारा एक विराट रंगमंच पर खेला गया इतना करुण और दुखांत नाटक है, जिसने इस महादेश की आत्मा को कँपा दिया।
‘कठपुतली’ में देश-विभाजन की यह त्रासदी एक दुखांत नाटक के ही रूप में है, जिसने मनुष्य के प्रति मनुष्य के विश्वास को एकबरगी हिला दिया। खासकर भारत से पाकिस्तान और पाकिस्तान से भारत लुट-पिटकर आए विस्थापितों के लंबे काफिलों के वृत्तांत तो एक ऐसी करुण गाथा की शक्ल में हैं, जिन्हें साँस रोक कर ही पढ़ा जा सकता है।
फिर यह भी किसी नाटक से कम नहीं है कि सुनील जिस जीनत से प्रेम करता है, भारत आने के बाद उसे कल्याणी के रूप में जीना पड़ता है। और पारुल जो जावेद से विवाह करके पाकिस्तान में रह जाती है, वह भी अपना नाम और शख्सियत बदल लेती है। जीनत और पारुल की तीसरी सहेली दीपाली है जो स्त्री-स्वाधीनता की पक्षधर है और जिसने कभी विवाह न करने की कसम खाई थी। यह भी एक विस्मित करने वाले नाटक की तरह ही है कि दीपाली जो विवाह को स्त्री के लिए बंधन मानती है, जीवन के आखिरी पड़ाव पर इस कदर थक जाती है कि विद्यालय के परिसर में मिले एक छोटे-से शिशु को वह खुद पालने का जिम्मा ले लेती है और यहाँ से उसकी जीवन-यात्रा में एक नया, सुखकर मोड़ आ जाता है।
यहाँ भी सत्यार्थी जी ने स्त्री-स्वातंत्र्य के कोरे नारों की निष्फलता की ओर इशारा किया है और जीवन का आदर्श स्त्री-पुरुष की उस सहकारिता को माना है, जिसमें पति-पत्नी दो दोस्तों की तरह रहते हैं और एक-दूसरे की शख्सियत को संपूर्णता प्रदान करते हैं।
सत्यार्थी जी के एक महत्त्वाकांक्षी उपन्यास ‘ब्रह्मपुत्र’ को आंचलिक उपन्यास के रूप में सर्वाधिक ख्याति मिली है। हालाँकि सत्यार्थी जी ने न तो यह सोचकर ‘ब्रह्मपुत्र’ लिखा था कि वे कोई आंचलिक उपन्यास लिख रहे हैं और न उपन्यासों के इस तरह के सतही वर्गीकरण में उनका यकीन ही है। फिर भी इसमें शक नहीं कि असम का छलछलाता हुआ उत्फुल्ल लोक जीवन अपने सुख-दुख और सांद्र राग के साथ बहुत सहज रूप में इस उपन्यास में आता है। और कभी पात्रों की शख्सियत, कभी प्रकृति के उन्मुक्त सौंदर्य, कभी असम की प्रचीन संस्कृति और स्वाधीनता संग्राम के इतिहास, कई रूपों में वह ‘ब्रह्मपुत्र’ को समृद्ध करता है।
स्वयं उपन्यास का नायक देवकांत एक जुझारू स्वाधीनता-सेनानी है। देश की स्वतंत्रता के लिए वह अंग्रेजों से छापामार लड़ाइयाँ लड़ता है और गाँव के सीधे-सादे कर्मठ और स्वाभिमानी लोगों में देशप्रेम का राग जागता है। उपन्यास के अंत में देवकांत मारा जाता है और उससे अनंत प्रेम करने वाली आरती विक्षिप्त होकर ब्रह्मपुत्र की लहरों में उसे तलाशती रहती है।
उपन्यास में जगह-जगह ऐसी सूक्तियाँ हैं जिनसे पता चलता है कि ब्रह्मपुत्र लोक जीवन के गाढ़े रंगों में डूबा हुआ उपन्यास है। मसलन, “ब्रह्मपुत्र जानता है, चप्पू कितना गहरा जाता है और माटी के पुतले के हाथ कितने लंबे हैं!” ऐसे ही उपन्यास के अंत में ब्रह्मपुत्र के हरहराते हुए पानी की बाढ़ का भयकारी चित्रण और रानी गोइडालो की उपस्थिति बहुत कुछ कह जाती है। धर्मानंदी, बूढ़ा नीलमणि, भगत जी, आरती और जनतारा जैसे पात्रों की शख्सियत की लकीरें इतनी गहरी और आत्मीय हैं कि ‘ब्रह्मपुत्र’ सचमुच असमी जीवन का एक बड़ा और प्रतिनिधि उपन्यास ठहरता है।
इसके बाद लिखे गए ‘दूध-गाछ’ और ‘कथा कहो उर्वशी’ एक तरह से कला-चिंता और चिंतन के उपन्यास हैं। इनमें कला के कुछ मूलभूत प्रश्नों को अपने समय और जिंदगी के एक बड़े कैनवस पर रखकर देखा गया है। जाहिर है, सत्यार्थी जी ‘कला के लिए कला’ के विचार के पक्षधर नहीं है अैर एक विराट जन-पीठिका पर रखकर ही अपने सवालों के जवाब पाना चाहते हैं। मगर वे कला को किसी आसान नारे या गणित में भी नहीं बदलते और उसकी जटिल और संश्लिष्ट सत्ता के हिमायती हैं। इन उपन्यासों में ‘दूध-गाछ’ केरल की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है तो ‘कथा कहो उर्वशी’ उड़ीसा के धौली गाँव के मूर्तिकारों की कथा कहता है। ‘दूध-गाछ’में फिल्म और संगीत की दुनिया के ऐसे सवाल हैं जिनके एक छोर पर पीढ़ियों की साधना और शास्त्रीय रागों का अभ्यास है तो दूसरे छोर पर लोकप्रियता के चालू और ललचाऊ सिक्कों की खनक है।
इन दोनों दुनियाओं की टकराहटों के बीच लोकप्रिय संगीत की धुनों की ओर बढ़ रही युवा पीढ़ी भले ही इसे समझ न पाए, पर सत्यार्थी जी की आँखों से यह छिपा नहीं रहता और इस त्रासदी को वे उपन्यास के बीचोंबीच लाकर परखते हैं। दूसरी ओर ‘कथा कहो उर्वशी’ में मूर्तिशिल्पियों की तकलीफ है। अपना बेहतरीन या सर्वश्रेष्ठ देने के बाद भी उनकी कोई पूछ नहीं है तथा वे मुश्किल से गुजर-बसर कर पाते हैं। मुझे लगता है, मूर्तिकार रामकिंकर जो सत्यार्थी जी के अत्यंत निकटस्थ रहे तथा जिनकी बनाई यक्ष और यक्षिणी की मूर्तियों की चर्चा सत्यार्थी जी बहुत रस लेकर करते थे, कहीं न कहीं इस उपन्यास की मूल कथा की ओट में छिपे बैठे हैं और वही ‘कथा कहो उर्वशी’ के उत्प्रेरक या प्रेरणा-स्रोत भी हैं।
अलबत्ता, जहाँ तक एक सच्चे कलाकार की पीड़ा और आर्थिक मुश्किलों की बात है, ‘दूधगाछ’ तथा ‘कथा कहो उर्वशी’ दोनों उपन्यासों के मुख्य पात्र अपने-अपने तईं इन सवालों के व्यक्तिवादी और फौरी हल भी तलाश लेते हैं। मसलन ‘दूधगाछ’ के महान संगीताचार्य रुद्रपदम् का बेटा गोविंदन मुंबई जाकर शास्त्रीय संगीत में लोकप्रिय धुनों को मिलाकर पैसे कमाने के धंधे से जुड़ जाता है और ‘कथा कहो उर्वशी’ का नीलकंठ पीढ़ियों से चली आई धौली गाँव की मूर्तिकला को छोड़कर कोलकाता में आकर कॉलेज ऑफ आर्ट का प्रधानाचार्य हो जाता है। लेकिन क्या यह पलायन ही समस्या का स्थायी हल है?
सत्याथी र्जी, जाहिर है, इससे इत्तफाक नहीं रखते। इसलिए ‘दूध-गाछ’ में रुद्रपदम् का शिष्य सोम, गोविंदन के बहुत आग्रह पर मुंबई जाता तो है, मगर वह अपने महान गुरु की महान संगीत-परंपरा को ही आगे बढ़ता है और वहाँ व्यवधान पड़ने पर एक झटके में मुंबई को छोड़कर अपने गाँव चला जाता है।
इसी तरह ‘कथा कहो उर्वशी’ में नीलकंठ चाहे कोलकाता ही रह गया हो, लेकिन उसका पुत्र धौली गाँव में अपनी दादी के पास ही रह रहा है। एक दिन अचानक वह अपने दादाजी की तरह ही हाथ में छेनी और हथौड़ा लिये मूर्ति गढ़ना शुरू कर देता है और दादी के मुँह से निकलता है, “अधूरी मूर्ति का ब्रह्मा आ गया!”
यह संकेतार्थ बहुत बड़ा है और सत्यार्थी जी के विचारों और विजन को एक छोटे से वाक्य में कह जाता है।
जाहिर है, सत्यार्थी जी के ये दोनों ही उपन्यास बड़े सधे हुए हैं और संश्लिष्ट स्तरों पर कला के सवालों के हल खोजते हैं। वे जीवन के नए-नए रूपों, विचारों और आधुनिकता को निश्चय ही स्वीकार करते हैं, पर वे आधुनिकता के नाम पर परंपरा का नकार करके उसे छूछा, नकली और लुंजपुंज नहीं बनाते। यह परंपरा ही है जो आधुनिकता को हर बार नए सिरे से अनुप्राणित करती है।
सत्यार्थी जी ने एक बार एक लंबे इंटरव्यू में कहा था कि आधुनिकता को बार-बार अपनी थकान मिटाने के लिए लोक साहित्य के निकट आना होगा। ‘दूधगाछ’ तथा ‘कथा कहो उर्वशी’ दोनों ही उपन्यास अपने-अपने ढंग से इसका कलात्मक आख्यान करते नजर आते हैं।
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पंजाब के लोक जीवन पर लिखा गया ‘तेरी कसम सतलुज’ सत्यार्थी जी का आखिरी उपन्यास है। इसमें पंजाब की सदियों पुरानी संस्कृति और इतिहास की, यहाँ तक कि उसकी प्रागैतिहासिक सभ्यता और परंपराओं की तथा अनेक तरह के आघातों और नफरत की आँधियों के बावजूद बच रहे प्यार और भाईचारे की मिली-जुली अनगूँजें हैं।
यह उपन्यास उस दौरान छपकर सामने आया था, जब पंजाब आतंकवाद के थपेड़े झेलता हुआ त्रस्त और क्षत-विक्षत था। पर सत्यार्थी जी इस खून-खराबे और ध्वंस की तात्कालिक कथा न कहकर पंजाब की उस आत्मा की खोज में जुट जाते हैं, जिसे बार-बार के ध्वंस के बाद भी मारा नहीं जा सका। और आज भी जहाँ से मानवता का जयघोष ही उठता और हवाओं में बिखरता नजर आता है।
‘तेरी कसम सतलुज’ की कहानी पंजाब के एक छोटे से कस्बे संघोल से जुड़ी है, जो कभी शतद्रु गणराज्य की राजधानी था। उस युग में सतलुज संघोल के चरण पखारता था, जो कालांतर में उससे परे हटता गया। सत्यार्थी जी ने कोई पैंतीस साल पहले अपने एक युवा मित्र के साथ संघोल को यात्रा की थी। संघोल के ऐतिहासिक महत्त्व ने ही नहीं, उसके ‘उच्चा पिंड’ नाम और सतलुज से इसके जुड़ाव ने भी उन्हें प्रभावित किया होगा। और इतिहास की खुदाई करते-करते उपन्यास में संघोल को वे जो रम्य शक्ल दे देते हैं, उससे कला और संस्कृति के उत्कर्ष का एक नया ही संघोल हमारी आँखों के आगे घूमने लगता है।
उपन्यास की कथा मुख्य रूप से तीन स्तरों पर चलती है—एक तो संघोल में आठवीं बार खुदाई के लिए कोशिशें हो रही हैं। खासतौर से संघोल में शंख हाईस्कूल के हैडमास्टर देवगंधार का तो यह सबसे बड़ा सपना ही है कि संघोल फिर से दुनिया के मानचित्र पर उभरे। उन्होंने शंख म्यूजियम में पहले की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों और अवशेषों को बेहद सँभालकर रखा हुआ है। इस बार की खुदाई के लिए देवगंधार ने घाट-घाट का पानी पिए हुए अपने अलबेले दोस्त अमृतयान को बुलाया है तो साथ ही लोकमाता, मिस फोकलोर, ग्रीक ब्यूटी, फादर टाइम और महाश्वेतम् आदि को भी। बाहर से आए ये सभी मसिजीवी एक-दूसरे से इतने अलग हैं कि ताज्जुब होता है और इतनी विभिन्नताओं और विचित्रताओं के बावजूद इस कदर एकसाथ कथा-परिदृश्य में थाप लगाते हैं कि यह किसी बड़े कौतुक से कम नहीं लगता।
और अंत तक आते-आते तो ‘तेरी कसम सतलुज’ महासागर की शक्ल ले चुका होता है जिसकी छोटी-बड़ी, शांत या गरजती लहरों में महाकवि होमर, महात्मा गाँधी, गुरुदेव टैगोर, जवाहरलाल नेहरू, वासुदेवशरण अग्रवाल, डब्ल्यू.जी. आर्चर, वेरियर एल्विन, डॉ. एम.एस. रंधावा, बी.पी.एल. बेदी, फ्रीडा बेदी, मुल्कराज आनंद, अहमद शाह बुखारी पितरस, पं. ब्रजमोहन दत्तात्रेय कैफी, ताजवर सामरी जैसे लहीम शहीम पात्र बारी-बारी से उभरते बिलाते रहते हैं।
बीच-बीच में साहित्य और कला का रंग इतना गाढ़ा हो जाता है कि मंटो, अज्ञेय, हजारीप्रसाद द्विवेदी, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर, साहिर लुधियानवी, रामानंद चटर्जी, बलराज साहनी को जैसे हम रूबरू देखने लगते हैं। कभी सिसिफस जैसा दुर्दमनीय यूनानी देव पत्थरों की बड़ी-बड़ी शिलाएँ पर्वत शिखरों तक ले जाता और लुढक़ाता नजर आता है, तो कभी-कभी सजीव और निर्जीव के बीच के फासले हमारे देखते-देखते गायब हो जाते हैं। और एक अजीब कौतुक-संसार की रचना होती है जिसका प्रयोजन क्षण भर का सुख, रोमांच देना नहीं, सीमाओं से पार उतरने के लिए ललकारना है।
ऐसा ही अजूबा तब होता है, जब खुदाई से निकली अष्टधातु की प्रतिमा हिमानी देखते ही देखते ग्लास से बाहर निकल आती है। जीती-जागती हसीना के रूप में वह सनम अली के साथ-साथ चाय पीती है और फिर एकाएक वही छोटी-सी प्रतिमा बनकर सनम अली के चाय के प्याले में कूद जाती है। यहीं सत्यार्थी जी घटना को विश्वसनीय बनाने के लिए बड़ी उस्तादाना कोशिश करते है, “और छींटे पड़ने से आसपास के कागज भीग गए…!”
‘तेरी कसम सतलुज’ की शायद यही सफलता है कि वह एक धुनी लेखक और एक बड़े शख्स को जानने के तमाम ईमानदार साक्ष्य प्रस्तुत करता है। उपन्यास की इस ताकत को नजरअंदाज करना मुश्किल है कि वह बँधी-बँधाई सीमाओं में कोल्हू के बैल की तरह दौड़ने वाले आलोचकों को बार-बार अपने फीते और बाँट सही कर लेने की चुनौती देता है और देता रहेगा।
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इसके अलावा सत्यार्थी जी के ‘घोड़ा बादशाह’ और ‘सूई बाजार’ मूलत: पंजाबी में लिखे गए प्रयोगधर्मी उपन्यास हैं। ये दोनों ही उपन्यास अनूदित होकर अब हिंदी में उपलब्ध है। इनमें ‘घोड़ा बादशाह’ का अनुवाद तो स्वयं सत्यार्थी जी ने किया है तथा ‘सूई बाजार’ के अनुवादक रामजी यादव हैं। सत्यार्थी जी के इन उपन्यासों में ‘घोड़ा बादशाह’ चित्रकला की सृजनधर्मी दुनिया की कुछ अलग ढंग की मुश्किलों और जटिल सवालों से उलझता है,जबकि ‘सूई बाजार’ स्त्री-जीवन के दुख और अंधेरों की कथा है और इसमें स्त्री की अस्तित्वगत चिंताओं को खोला-परखा गया है। जाहिर है, इन दोनों ही प्रयोगधर्मी उपन्यासों की पंजाबी साहित्य में खासी धूम रही है और उनसे पंजाबी उपन्यासों में एक नई प्रयोगवादी धारा चल पड़ी।
उपन्यासों की यह धारा यथार्थ की सीधी अभिव्यक्ति के बजाय उसकी मार्मिक अभिव्यंजना पर ज्यादा जोर देती है, जिसमें जीवन के कई आयाम एक साथ खुलते हैं। इन दोनों उपन्यासों में भी‘घोड़ा बादशाह’ कहीं अधिक बड़ी और विशिष्ट कृति है।
‘घोड़ा बादशाह’ का सर्वाधिक आकर्षण हैं गुरुदेव यानी जोशी जी, जो चित्रकला की दुनिया में इस तरह समर्पित हैं कि उसी में रात-दिन साँस लेते हैं। उनके इर्द-गिर्द शिष्य-शिष्याओं का बड़ा हुजूम है जिनके साथ गुरुदेव का व्यवहार मित्रवत् और नितांत अनौपचारिक है। वे सिर्फ चित्रकला के मामले में ही उनके गुरु नहीं हैं, बल्कि उनके निजी जीवन के सुख-दुख, उलझनों को सुलझाते हुए राह सुझाते चलते हैं। हालाँकि अपने निजी जीवन-आदर्शों और कला की उपलब्धियों के हिसाब से आदमकद लगते जोशी जी उर्फ गुरुदेव बहुत बार एक शिशु की तरह अबोध भी लगते हैं। इन क्षणों में अपनी सारी उपलब्धियों को परे सरकाकर वे गहरी ललक और जिज्ञासा से भरकर कहते हैं, “अभी तो मैं खुद सीखने की शुरुआत कर रहा हूँ।”
जाहिर है, यह विनम्र जीवन-दर्शन खुद सत्यार्थी जी का है और‘घोड़ा बादशाह’ के गुरुदेव उर्फ जोशी जी में सत्यार्थी जी के व्यक्तित्व की गहरी छाप नजर आती है। उपन्यास में अपने शिष्य-शिष्याओं के साथ गुरुदेव की खुजराहो-यात्रा का वृत्तांत, जहाँ वे खजुराहो की मूर्तियों के सामने खड़े होकर अकुंठ भाव से उनके सौंदर्य के रहस्य से शिष्य-शिष्याओं का परिचय करवा रहे होते हैं, बेहद दिलचस्प है तथा उपन्यास के वे अविस्मरणीय पन्ने हैं। इसी तरह चित्र बनाते हुए गुरुदेव की मृत्यु का प्रसंग बेहद करुण है।
मैंने उपन्यासों में मृत्यु के कई प्रसंग देखे और पढ़े हैं, पर कोई मृत्यु एक साथ इतनी करुण और खूबसूरत हो सकती है, यह पहली बार‘घोड़ा बादशाह’ में गुरुदेव उर्फ जोशी जी का मृत्यु का प्रसंग पढ़कर ही जाना। और इसी से यह भी पता चला कि कला की साधना करते-करते कैसे कोई व्यक्ति सचमुच कला की प्रतिमूर्ति ही बन जाता है।
सत्यार्थी जी ने एक बार बताया था कि अपनी बेटी कविता की मृत्यु के शोक और अवसाद से उबरने के लिए उन्होंने ‘घोड़ा बादशाह’ की रचना की है और अगर यह उपन्यास वे न लिखते तो पागल हो गए होते। मुझे लगता है, उपन्यास में गुरुदेव की जो कला की एक समाधि जैसी तन्मयता है, वह मृत्यु के खिलाफ जिंदगी के एक मोर्चे जैसी भी है। ये ऐसे क्षण हैं, जब कोई व्यक्ति मृत्यु से पूरी तरह निर्भय हो जाता है और मृत्यु की आँखों में आँखें गड़ाकर देखने लगता है।
दोस्तोयवस्की ने एक बार कहा था कि सुंदरता संसार को बचाएगी! और ‘घोड़ा बादशाह’ एक उपन्यास होते हुए भी, कला की सुंदरता की एक सजीव मूर्ति ही है। इस लिहाज से यह सत्यार्थी जी के बाकी सब उपन्यासों से अलग ही है तथा अलग ढंग से परखे जाने की माँग करता है।
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अंत में सत्यार्थी जी के उपन्यासों की इस खासियत का जिक्र करना जरूरी है कि वे दुख-उलझनों और समस्याओं से टकराते तो हैं, किंतु अंतत: वे आस्था पैदा करने वाले उपन्यास हैं। वे सबसे ज्यादा मनुष्य पर यकीन करते हैं कि ‘सबार ऊपरे मानुष सत्य’, उससे बड़ा सत्य कोई और नहीं है।
फिर एक उपन्यासकार या कथा-लेखक के रूप में सत्यार्थी जी नएपन या आधुनिकता का हमेशा स्वागत करने को तैयार दिखते हैं। हालाँकि साथ ही साथ परंपरा के लिए भी उनके मन में मोह कभी कम नहीं होता। उनका मानना है कि आधुनिकता अच्छी चीज है, पर हर काल में परंपरा से जुड़कर ही यह सप्राण होती है। हर काल में आधुनिकता और परंपरा का एक अलग ढंग का संश्लेषण जरूरी है और यह हमेशा उस युग और समय के सवालों और जरूरतों के परिप्रेक्ष्य में होता है। फिर एक स्वतंत्र कला-रूप की दृष्टि से वे उपन्यास की एक पूर्ण और स्वायत्त कलान्विति के समर्थक भी हैं।
उपन्यास में सत्यार्थी जी अकसर पूरी स्वच्छंदता से काम लेते हैं। बीच-बीच में पात्रों के संवाद और गपशप के साथ-साथ कभी किसी कविता या लोकगीतों के टुकड़े पिरो दिए जाते हैं। कभी कोई अलबेला किस्सा या कोई पुरानी लोककथा अपने सांकेतिक अर्थ में उभर आती है, कभी किसी अखबार की रिपोर्टिंग की कतरन या किसी विचारक की उत्तेजक टिप्पणी, यहाँ तक कि किसी के भाषण का हिस्सा भी! लेकिन सत्यार्थी जी उसका इस्तेमाल इतनी खूबसूरती से करते हैं कि उपन्यास में कला का ढांचा या उसकी संपूर्णता और इंटीग्रिटी में कोई फर्क नहीं पड़ता।
अकसर वे पहले से सब कुछ तय करके नहीं चलते और रास्ते में जो कुछ सामने आता है, उसी से अगली राह निकालते चलते हैं। इसीलिए टाइप्ड पात्र उनके यहाँ एकदम नहीं है। और इसीलिए सत्यार्थी जी का हर उपन्यास एक नया कला-रूप है और उनकी विचार-यात्रा का एक नया पड़ाव भी।
सत्यार्थी जी के उपन्यासों में सबसे अधिक प्रभावित करती है उनकी विश्वसनीयता। लगता है, जो कुछ वे कह रहे हैं, उस पर अविश्वास तो आप कर ही नहीं सकते। वे उपन्यास लिखते ही नहीं है, उपन्यासों में एक समूची जीती-जागती दुनिया बसाते भी हैं। इसीलिए सत्यार्थी जी के उपन्यासों में चौंकाने वाली घटनाओं के बजाय जीवन के सहज वृत्तांत अधिक आते हैं। और अपनी करुणा के बल पर इन्हीं छोटी-छोटी चीजों को वे एक महाकाव्यात्मक आख्यान में बदल देते हैं।
इसीलिए कुल मिलाकर सत्यार्थी जी के उपन्यास लोक जीवन का एक महा आख्यान हैं, जिसके जरिए इस देश की महान आत्मा और परंपराओं का जीवंत साक्षात्कार किया जा सकता है।