
— श्रवण गर्ग —
रविवार, 28 मई ‘सावरकर जयंती’ के दिन नई संसद के उदघाटन के अवसर पर पवित्र ‘सेंगोल’ के साथ-साथ नरेंद्र मोदी ने अपने आपको भी देश के संसदीय इतिहास में हमेशा-हमेशा के लिए स्थापित कर लिया ! आगे आने वाले सालों में मोदी जब प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे, हरेक नई हुकूमत स्पीकर की कुर्सी के निकट स्थापित किए गये राजदंड की चमक में मोदी-युग के प्रताप और ताप को महसूस करती रहेगी।
राजनीतिक सत्ता के महत्त्वाकांक्षी प्रत्येक राजनेता के अंतर्मन में यह संशय बना रहता है कि अप्रतिम नायकों का जब भी उल्लेख होगा इतिहास उसे किस स्थान पर रखना चाहेगा? जिन नायकों के मन में स्थान को लेकर शंका ज्यादा बनी रहती है वे अपने कार्यकाल के दौरान ही इतिहास में अपनी जगह घोषित कर देते है—एक ऐसी जगह जिसके साथ वर्तमान की तरह भविष्य में छेड़छाड़ नहीं की जा सके।
नई संसद के उदघाटन के मौके पर दोनों सदनों की सर्वोच्च संवैधानिक सत्ता यानी राष्ट्रपति की भूमिका केवल एक शुभकामना संदेश प्रेषित करने तक सीमित थी। तीनों सेनाओं के प्रमुख इस ऐतिहासिक प्रसंग पर उपस्थित थे पर उनकी सुप्रीम कमांडर वहाँ नहीं थीं। राज्यसभा के सांसद थे, उपसभापति थे पर उनके सभापति नहीं थे। वे पूर्व राष्ट्रपति जरूर मौजूद थे जिनका शिलान्यास समारोह के समय स्मरण नहीं किया गया था पर उनके साथी रहे उपराष्ट्रपति अनुपस्थित थे।
देश के संसदीय इतिहास का इसे अभूतपूर्व क्षण माना जाना चाहिए कि दोनों सदनों में करोड़ों देशवासियों का प्रतिनिधित्व करनेवाले 260 सांसद विरोधस्वरूप अनुपस्थित थे। उनका बहिष्कार इस बात को लेकर था कि नई संसद का उदघाटन प्रधानमंत्री क्यों कर रहे हैं? यह अधिकार तो राष्ट्रपति का है। एनसीपी सांसद और वरिष्ठ राजनेता शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले ने बाद में दुख जताते हुए कहा कि समारोह का निमंत्रण पत्र उन्हें सिर्फ तीन दिन पहले ही व्हाट्सएप पर प्राप्त हुआ था।
अपने पूरे भाषण के दौरान प्रधानमंत्री ने न सिर्फ इक्कीस विपक्षी दलों के सांसदों की प्रतिष्ठापूर्ण समारोह में अनुपस्थिति का एक बार भी जिक्र नहीं किया, मोदी जब महिला सशक्तीकरण के क्षेत्र में सरकार की उपलब्धियों का बखान कर रहे थे बाहर सड़कों पर पुलिस महिला पहलवानों पर टूटी पड़ रही थी और नई संसद के भीतर बैठे आरोपित सांसद अपने नेता के दावों को सुन मेज थपथपा रहे थे।
सत्तारूढ़ भाजपा और उसके सहयोगी दलों को अगर अपने ही द्वारा चुनी गई आदिवासी महिला राष्ट्रपति, विपक्षी दलों और राष्ट्र के गौरव की प्रतीक महिला एथलीट्स के सम्मान की जरा सी भी परवाह नहीं बची है तो चिंता के साथ सवाल किया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री मुल्क को किस दिशा और दशा में देखना चाहते हैं ! इस हकीकत को किसी अज्ञात भय के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए कि नई संसद में बैठने के स्थान तो बढ़ गए हैं पर सत्तापक्ष सरकार का सारा कामकाज बगैर विपक्ष के भी निपटाने को तैयार है !
इस तरह के निर्णय के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नजर नहीं आता कि ‘सेंट्रल विस्टा’ के तहत प्रारंभ की गईं दूसरी सभी परियोजनाओं को अधूरे में छोड़कर नई संसद पहले तैयार करने के प्रधानमंत्री के स्वप्न को जमीन पर उतारने के काम में दस हजार मजदूरों को झोंक दिया गया ! नई संसद का उदघाटन, नई लोकसभा के गठन के साथ साल भर बाद भी हो सकता था। कोई तो गूढ़ कारण रहा होगा जिसके चलते नई संसद के उदघाटन के लिए दस महीनों के बाद ही होनेवाले चुनावों तक प्रतीक्षा करना जरूरी नहीं समझा गया !
देश को जानकारी है कि 27 अगस्त 2015 को घोषित प्रधानमंत्री की सौ शहरों को ‘स्मार्ट सिटीज’ में विकसित करने की महत्त्वाकांक्षी परियोजनाएँ आठ साल के बाद भी आधी-अधूरी हालत में पड़ी अपने ‘उद्धार’ की प्रतीक्षा कर रही हैं। इन परियोजनाओं के भविष्य की अब केवल कल्पना ही की जा सकती है !
हिंदू राष्ट्र के स्वप्नद्रष्टा सावरकर की जयंती पर मंत्रोच्चारों के बीच सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक ‘सेंगोल’ की प्राण-प्रतिष्ठा संविधानसम्मत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को लेकर अब और ज्यादा संदेह उत्पन्न करती है। डर यह भी लगता है कि जिस हुकूमत को आज राष्ट्रपति और विपक्ष की अनुपस्थिति नहीं खलती उसे आनेवाले दिनों में संविधान और लोकतंत्र की उपस्थिति भी गैर-जरूरी लग सकती है।
प्रधानमंत्री ने विपक्ष के बहिष्कार के बीच अपने सपनों की नई संसद में प्रवेश कर लिया है ! अपनी ‘जनता’ को तो उन्होंने 2014 में ही चुन लिया था ! सुप्रिया सुले का कहना है कि : ‘हम सब पुरानी संसद से प्यार करते हैं। वह भारत की आजादी का वास्तविक इतिहास है।’ प्रधानमंत्री अगर उचित समझें तो पुरानी संसद और पुराने इतिहास की हिफ़ाजत का काम विपक्ष को सौंप कर और ज्यादा निश्चिन्त हो सकते हैं !
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.