धर्म : चेतना बनाम संगठन

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— नंदकिशोर आचार्य —

र्म पर किसी तरह का विचार-विमर्श करने से पूर्व यह समझ लेना जरूरी है कि वह सर्वप्रथम एक निजी अनुभूति है। जब हम अपनी निजी अनुभूति को अन्य लोगों तक संप्रेषित करते और उन्हें वह रास्ता बताते हैं जिससे वे भी उस प्रकार की अनुभूति तक पहुँच सकते हैं, तब ही किसी धार्मिक संप्रदाय का जन्म होता है। अतः धर्म अपने मूल रूप में अपने अस्तित्व की ही आनंदानुभूति है जिसे किसी एक ही प्रकार में बद्ध नहीं किया जा सकता। कुछ लोगों के लिए यह आनंदानुभूति ईश्वर जैसी किसी साकार सत्ता की कल्पना के माध्यम से ही संभव हो पाती है तो अन्य कुछ के लिए किसी निराकार निर्वैयक्तिक परमचेतना से जुड़कर।

धर्मों के विकास का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि साकार या वैयक्तिक ईश्वर जैसी कोई धारणा धर्मानुभव के लिए आवश्यक नहीं है। अपने मूल रूप में वेदांत, ताओ या प्रारंभिक बौद्ध धर्म में ईश्वर जैसी किसी सत्ता की आवश्यकता को अनुभव नहीं किया गया है और उसके बिना ही अपने अस्तित्व की चरम आनंदानुभूति को संभव माना गया है।

अन्य धर्मों में भी ऐसे बहुत-से रहस्यवादी संप्रदाय हैं जो ध्यान प्रक्रिया के माध्यम से अपने अस्तित्व की आनंदानुभूति को ही चरम धार्मिक अनुभव मानते हैं। इसलिए धर्म पर विचार करते समय किसी उपासना पद्धति- यद्यपि वह किसी भी धर्म का अंग हो सकती है- और धर्म को एक ही मानने पर आग्रह नहीं होना चाहिए तथा किसी भी उपासना पद्धति पर एकांगी और असहिष्णु आग्रह नहीं किया जाना चाहिए।

धर्मानुभव या आध्यात्मिक अनुभूति यदि मानवीय चेतना का ही एक विशिष्ट अनुभव और विकास है तो उसकी प्रामाणिकता की परख इसी बात से हो सकती है कि उससे स्वयं मानवीय चेतना की स्वतंत्रता और सर्जनशीलता को कितनी पुष्टि मिलती है। इसलिए किसी एक धार्मिक संप्रदाय की पद्धति को ही एकमात्र पद्धति मानना या मानवीय चेतना के संपूर्ण विकास को किसी एक ही उपासना-पद्धति के घेरे में बंद कर देने की असहिष्णु कोशिश मूलतः एक चेतना-विरोधी कोशिश हो जाती है, अतः वह प्रकारांतर से एक धर्मविरोधी कोशिश भी हो जाती है।

ईश्वर, यदि वह है तो, इतना निर्दय नहीं हो सकता कि एक प्रकार की उपासना पद्धति के अलावा अन्य तरीकों से उपासना करने वालों को अनंत काल के लिए नारकीय यातना में तड़पता छोड़ दे। इस संदर्भ में एक भारतीय रहस्यवादी संत का यह कथन अधिक सही लगता है कि अलग-अलग दीपों में विभिन्न प्रकार के तेल और भिन्न-भिन्न प्रकार की बातियाँ हो सकती हैं लेकिन जब वे जलते हैं तो हमें एक ही प्रकार की लौ और प्रकाश मिलते हैं।

दरअस्ल, धार्मिक संप्रदाय के आधार पर किसी बिरादरी की कल्पना और अन्य को अपने से सामाजिक स्तर पर अलग मानने की धारणा असंगत ही नहीं बल्कि अधार्मिक भी है। धर्म समूची सृष्टि में एकत्व देखना है, अतः यदि हम धर्म के आधार पर ऐसी राजनीतिक या सामाजिक बिरादरी बनाते हैं जिसे अन्य रूप से अलग और श्रेष्ठ माना जाए तो निश्चय ही यह धर्म की मूल भावना के ही विपरीत है क्योंकि इससे तो मानवता के एकत्व की धारणा भी खंडित हो जाती है- पूरे जीवन या सृष्टि के एकत्व की बात तो तब और भी दूर चली जाती है।

धर्म अंततः एक निजी अनुभव है अतः दो समान अनुभवों वाले व्यक्ति धार्मिक अनुभव के क्षेत्र में एक-दूसरे के अधिक निकट हो सकते हैं- यद्यपि सभी धार्मिक अनुभवों का वर्णन एक ही प्रकार से किया गया है- लेकिन इस आधार पर राजनीतिक या आर्थिक मामलों में वे अनिवार्यतया एक-दूसरे के अधिक करीब नहीं हो पाते। धर्म एक साधना-पद्धति है, वह कोई सामाजिक-आर्थिक संगठन नहीं है और ऐसा संगठन तो कतई नहीं जिसके हित या स्वार्थ बाकी मानव समाज के हितों से अलग या विपरीत हों।

धर्मानुभूति वस्तुतः अपने को जानने की आनंदानुभूति है। यह जानना अपने को दूसरों में अर्थात ममेतर में अपने को जानना भी हो सकता है और ममेतर को अपने में जानना भी और इसलिए धार्मिक व्यक्ति ही वस्तुतः कह सकता है कि जो मेरा है, वही ममेतर है। इन दोनों ही प्रकारों से अपने को जानना अपने को विस्तार देना भी है और सृष्टि मात्र के साथ एक अस्तित्वगत रहस्यात्मक रिश्तों का अनुभव करना भी। यही कारण है कि दुनिया के सभी रहस्यवादियों में एक बात समान मिलती है और वह है सभी प्राणियों बल्कि सृष्टि मात्र में एकत्व की अनुभूति। यह अनुभूति ही धर्म का वास्तविक मूल तत्त्व है। इसलिए धर्म के पालन के नाम पर बाह्य आचरण के कुछ नियमों का पालन, प्रतीकों की पूजा और कुछ शास्त्रों का अनुसरण करने का आग्रह किया जाता है तो उसका महत्त्व एक सीमा तक ही है। इनमें से किसी की भी आत्यंतिक सार्थकता नहीं है, इनके बिना भी धार्मिक अनुभूति संभव है, अतः इन चीजों को ही धर्म मान लेना पूर्णतः संगत नहीं है। इनमें से प्रत्येक चीज का कुछ लोगों के लिए कुछ व्यावहारिक महत्त्व हो सकता है और उन्हें अपनी साधना-प्रक्रिया में इनसे मदद भी मिल सकती है और इस प्रकार संबंधित व्यक्तियों के लिए एक सीमा तक इन सब की सार्थकता भी हो सकती है। लेकिन जो लोग इस सारी प्रक्रिया में से गुजरे बिना ही धार्मिक लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं, उन्हें किसी बाह्य धार्मिक नियम, प्रतीक या शास्त्र से बाधित करना आवश्यक और संगत नहीं कहा जा सकता।

इसी तरह यह भी अनिवार्य नहीं कहा जा सकता कि धार्मिक आचरण के लिए किसी विशेष धर्म में आस्था हो ही, बल्कि किसी भी तरह की विशिष्ट चेतना का अलग से होना भी आवश्यक नहीं समझा जाना चाहिए। यदि हम दूसरों में अपनी अनुभूति कर सकते हैं या अपने में ममेतर को अनुभव कर पाते हैं और हमारा आचरण इस बोध से अनुप्राणित है तो हमारा आचरण सहजरूप से धार्मिक आचरण ही है- उसमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम किसी विशेष उपासना-पद्धति में आस्था रखते हैं या नहीं अथवा हम अपने धार्मिक आचरण के प्रति कितने सजग हैं।

जीवन का प्रत्येक कर्म एक धार्मिक आचरण हो सकता है यदि हम उसके माध्यम से अपने अहं की झूठी सीमा का अतिक्रमण कर ममेतर के साथ एक अस्तित्वगत सर्जनात्मक रिश्ता अनुभव कर सकें। इन्हीं अर्थों में गांधीजी संत थे और वह कहते भी थे कि राजनीति मेरे लिए एक प्रकार की आध्यात्मिक साधना है। इस दृष्टि से भौतिकवादी क्रांतिकारियों को भी धार्मिक ही स्वीकार करना चाहिए- चाहे उनका किसी धार्मिक मतवाद या धर्म की धारणा में विश्वास भी न रहा हो- क्योंकि वे अपने कर्म के माध्यम से अपने-अपने अहं की परिधि के बाहर आकर पूरे मानव-समाज के साथ अपने एकत्व का अनुभव कर रहे थे।

इतिहास की प्रक्रिया को एक निर्वैयक्तिक सत्य की तरह अनुभव कर अपने को उसमें मिला देना एकत्व की किसी गहरी अनुभूति के बिना संभव नहीं है, और जिन महापुरुषों ने अपने जीवन को एकनिष्ठ होकर किन्हीं बड़े उद्देश्यों के लिए समर्पित कर दिया हो उन्हें धार्मिक ही मानना होगा, चाहे वे स्वयं उसे स्वीकार न भी करें- बल्कि मानना चाहिए कि यदि कोई व्यक्ति ईश्वर या किसी ऐसी ही अदृश्य शक्ति में विश्वास रखे बिना भी पूरी मानव जाति के प्रति अस्तित्वगत लगाव का अनुभव करता है तो उसका यह लगाव अधिक सहज और गहरा है क्योंकि वह उसके बदले किसी तरह की कृपा प्राप्त करने का इच्छुक भी नहीं है।

इस दृष्टि से देखा जाए तो धर्म और समाजवाद एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं होते- बल्कि दोनों की अनुभूति एक ही दिशा की ओर ले जा सकती है। वे एक-दूसरे के विरोधी तभी होते हैं जब वे अनुभूति का बोध न रहकर अपने संगठित होने को अधिक महत्त्व देने लगें।

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