मधु लिमये से जुड़ी एक ऐतिहासिक याद

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)


— विनोद कोचर —

न् 1975-77 के आपातकाल के भुक्तभोगी और वरिष्ठ भाजपा नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने, 2015 में, आपातकाल की वापसी की संभावना जताकर जहाँ विपक्ष को मोदी सरकार पर हमला करने का एक नया हथियार दे दिया था, वहीं ये कहकर उन्होंने लोकतंत्र के सिपाहियों को कुछ गंभीर किस्म की बहस के लिए भी ललकारा था कि “1975-77 के बाद ऐसा कुछ नहीं किया गया, जिससे यह आश्वासन मिले कि नागरिक अधिकारों को दोबारा निलंबित नहीं किया जाएगा या उनका दमन नहीं किया जाएगा।”

तब, वरिष्ठ पत्रकार और लेखक श्री कंचन गुप्ता को आडवाणी की ये आवाज़ महान समाजवादी नेता और चिंतक मधु लिमये की आवाज़ जैसी लग रही थी।

मैं 1975-77 में मधु जी के साथ करीब 15 महीनों तक नरसिंहगढ़ (म.प्र.) की जेल में रहा हूँ।

मेरी दूसरी खुशनसीबी ये भी रही कि गहन अध्ययन, चिंतन, मनन और कलम की ताकत के बल पर, जेल के भीतर से ही, आपातकाल के विरुद्ध मधु जी द्वारा छेड़ी गई अहिंसक जंग में, मधु जी के निजी सहायक के रूप में, मैंने भी लोकतंत्र के यज्ञ में अपनी सेवाओं की यत्किंचित आहुति अर्पित की थी।

मुझे बड़े अफसोस के साथ, सप्रमाण, ये कहना पड़ रहा है कि, आपातकाल के भुक्तभोगी, अटल जी और आडवाणी जी जैसे जनसंघ(अब भाजपा) के आधारस्तंभों ने भी, काश! मधु जी के साथ कदम से कदम मिलाकर, जेल में रहते हुए भी, आपातकाल के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी होती!ऐसा करने की बजाय, उस समय आडवाणी जी ने क्या किया, ये बताने के लिए मैं हिन्दुस्तान के नौजवान सपूतों के साथ अपनी जेल डायरी का 14 अप्रैल 1976 का पन्ना शेयर कर रहा हूँ –

“मधु जी और शरद जी ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया है। उत्तरप्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश की जेलों से, और जेलों के बाहर से भी, वर्तमान परिस्थिति में इन दोनों संसद सदस्यों द्वारा उठाये गये इस कदम की सराहना में, बधाई के सन्देश लगातार आते जा रहे हैं। सभी दलों के कार्यकर्ताओं के मन में, इन इस्तीफों के कारण कैसे विचार पैदा हो रहे हैं, इसकी एक साफ झलक, इन बधाई संदेशों में दिखाई दे रही है।

“एक जैसा विचार सभी दलों के कार्यकर्ताओं के मन में उठ रहा है। वो विचार है कि जब देश में लोकतंत्र का खातमा हो चुका है तो फिर प्रतिपक्ष को लोकतंत्र के नाटक में सहयोग करने की क्या जरूरत है? कितना अच्छा होता यदि समूचा प्रतिपक्ष 18 मार्च के बाद लोकसभा से इस्तीफा देकर दुनिया को ये जतला देता कि श्रीमती गांधी के लोकतंत्र के नाटक के रंगमंच के रूप में जिस लोकसभा का इस्तेमाल किया जा रहा है, उसका वे बहिष्कार कर रहे हैं। देश के वातावरण में चेतना की लहर नहीं, एक तूफान उठ खड़ा होता। प्रतिपक्ष से प्यार करने वाली देश की जनता एक अंगड़ाई लेकर उठ खड़ी होती। लेकिन ये देश का बड़ा भारी दुर्भाग्य है कि मधु जी के सुझाये गये मार्ग पर चलने की बजाय प्रतिपक्ष के अन्य नेता इस नकली लोकसभा से जुड़े रहने में ही देश का भला समझते हैं। कार्यकर्ताओं को उन नेताओं का रास्ता नहीं, मधु जी का रास्ता पसंद है- ये बात उनके पत्रों में अभिव्यक्त भावनाओं से साफ साफ जाहिर हो रही है।

“भोपाल नगर के एक जनसंघ कार्यकर्त्ता श्री शोभानी का पत्र तो और भी जादा क्रान्तिकारी पत्र है। मधु जी के द्वारा लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे देने के समाचार ने श्री शोभानी को कितना आल्हादित और कितना आंदोलित किया है, इसकी साफ साफ झलक श्री शोभानी के पत्र से मिलती है। श्री शोभानी भोपाल में 17 साल से वकालत कर रहे हैं। जनसंघ के कार्यकर्त्ता हैं। मधु जी और शोभानी जी एक दूसरे से बिलकुल ही अपरिचित हैं। फिर भी श्री शोभानी ने मधु जी को लिखा कि उनका कदम, सही समय में सही दिशा में उठाया गया ऐतिहासिक कदम है। उन्होंने तो यहां तक लिख डाला कि देश से लोकतंत्र का जनाजा उठ चुका है। अब लोकतंत्र में आस्था रखने वाले प्रतिपक्ष को सिर्फ लोकसभा ही नहीं, विधानसभाओं, नगरपालिकाओं, जनपद पंचायतों, ग्रामपंचायतों और सहकारी संस्थाओं जैसी सभी प्रातिनिधिक संस्थाओं से अपना सम्बन्ध तोड़ लेना चाहिए ताकि दुनिया ये जान जाये कि हिन्दुस्थान में श्रीमती गांधी ने लोकतंत्र की हत्या कर डाली है और लोकतंत्र की नक़ाब ओढ़कर सर्वाधिक शक्तिशाली तानाशाह के रूप में अपने पैर जमा लिये हैं।प्रतिपक्ष को अपनी कथनी से नहीं, करनी से, अपनी देशभक्ति का परिचय देना चाहिए।”

“मैंने भी नरसिंहगढ़ जेल में, मधु जी के साथ रहते रहते ये महसूस किया है कि मधु जी में समय की नब्ज को पहचानने की अद्भुत क्षमता है। देश की राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं पर उनका अध्ययन और समस्याओं के विश्लेषण का उनका तरीका अचूक है।श्रीमती गांधी के देशव्यापी मायाजाल को छिन्नभिन्न करने के लिए देश को मधु जी के नेतृत्व में ही आगे बढ़ना होगा।यथास्थितिवादी, शुष्क और बेजान राजनीति करने वाले नेता न केवल अपनी छवि बिगाड़ रहे हैं, अपितु अपने दल और देश की छवि को भी, दुनिया की नजरों में बदरंग करते जा रहे हैं। राज्यसभा के चुनाव और वर्तमान परिस्थितियों में, प्रतिपक्ष की भूमिका ने भी कार्यकर्ताओं के मनोबल को चूर चूर कर डाला है। चाहिए तो ये था कि प्रतिपक्ष राज्यसभा के चुनावों में भाग लेने के पहले ये शर्त रखता कि आपातकालीन स्थिति समाप्त की जाये तथा राजनैतिक बंदियों को आज़ाद किया जाय। शर्त पूरी न होने की स्थिति में प्रतिपक्ष को राज्यसभा के चुनावों का बहिष्कार कर देना चाहिए था।

प्रतिपक्ष का ये कदम देश में नये आत्मविश्वास को जगाता और विदेशों में प्रतिपक्ष की छवि को उजला करता। लेकिन प्रतिपक्ष ने क्या किया?

प्रतिपक्ष ने बिना कोई शर्त रखे, श्रीमती गांधी के नाटक में नाटकीय भूमिका अदा की। जनसंघ के शीर्ष नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी इस बदले हुए माहौल की नब्ज को टटोलने से इनकार कर दिया और स्वयं राज्यसभा के लिए गुजरात से प्रत्याशी बन बैठे। नतीजा क्या निकला?

आडवाणी तो दल के अनुशासन का लाभ उठाकर राज्यसभा के निरुपयोगी सदस्य बन गये लेकिन दल की इस भूमिका ने संगठन में फूट के बीज बो डाले। दल के प्रमुख नेता और कार्यकर्त्ता, धीरे धीरे दल छोड़ते जा रहे हैं।जनसंघ के बिखराव की गति, राज्यसभा के चुनावों के बाद काफी तेज हो गई है। कोई विधायक स्वयं दल छोड़ रहा है तो किसी को दल ही, अनुशासन भंग करने का आरोप लगाकर, 6 साल के लिए दल से निकाल रहा है। दल ने जो अनुशासनहीनता दिखाई है, उसकी सजा उसे कौन देगा?दल का टूटना और बिखरना ही दल के लिए सबसे बड़ी सजा है। ऐसे नेताओं का नेतृत्व जो अपने ही दल को बिखरने से नहीं बचा सकता, भला श्रीमती गांधी के मायाजाल का मुकाबला कैसे कर सकता है? देश का प्रतिपक्ष ऐसे नेतृत्व के बिना अपंग हो गया है जो समय की नब्ज को पहचान कर, सही समय में, सही दिशा में, सही कदम उठाने की योग्यता रखता हो, उस योग्यता को अपने आचरण में झलकाता हो। ऐसे नेतृत्व के बिना प्रतिपक्ष का नैराश्य कभी दूर नहीं हो सकेगा।”

जयप्रकाश नारायण के आत्मबल, संकल्पशक्ति, और अपार लोकप्रियता के चलते 77 के लोकसभा चुनावों के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो आडवाणी जी केंद्रीय मंत्री भी बने। बाद के सालों में वे गृहमंत्री और उप प्रधानमंत्री भी बने। क्या उन्हें इस गंभीर प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहिए कि ऐसे आला दर्जे के पदों पर पदासीन रहते हुए, खुद उन्होंने, 1975-1977 के बाद ऐसा कुछ क्यों नहीं किया जिससे यह आश्वासन मिलता कि नागरिक अधिकारों को दोबारा निलंबित नहीं किया जाएगा या उनका दमन नहीं किया जाएगा?

और अब, 2014 में, केंद्र में संघ/भाजपा परिवार की सत्ता कायम होने से लेकर आज तक, बिना कोई आपातकाल घोषित किए ही, लोकतंत्र को जो धीमा जहर दिया जा रहा है, उसके चलते, भारत का लोकतांत्रिक संविधान, और समस्त आधारभूत लोकतांत्रिक संस्थाएं घुट घुटकर दम तोड़ती नजर आ रही हैं, तब उपेक्षा के शिकार होकर जिंदगी का बोझ ढो रहे लालकृष्ण आडवाणी क्या सोच रहे होंगे?
बकौल शायर –
इतनी ही दुश्वार अपने ऐब की पहचान है
जिस कदर करना मलामत, गैर की आसान है…..

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