नैना ठग लेंगे

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पेंटिंग- हरजीत ढिल्लों
पेंटिंग- हरजीत ढिल्लों

Ram Prasad bhairav

— रामजी प्रसाद ‘भैरव’ —

आँख यानी नैना को साहित्य में ठग कहा गया है। ऐसा ठग जो सामने वाले का सर्वस्व लूट ले श, वह भी केवल नैना मिलाय के, इसलिए आँख का मिलना, ऑंख का लड़ना, आँख मिलाना, आँख लड़ाना, इसको हृदयहीन लोग ठीक नहीं मानते। जो नहीं मानता मत माने, हम तो मानते हैं भाई, नज़र लड़ती है तो बड़े बड़े खेल करती है। भूख प्यास छीन लेती है। सुख चैन लील जाती है। यह तो वही जाने जिसने नैन लड़ाया है। जिसके नैन लड़े हैं, जिसने अपना कुछ खोया है। जिसका कुछ खो जाता है, उसकी क्या दशा होती है। उसका न तो मन पर नियंत्रण रहता है न शरीर पर और न ही बुद्धि पर।

बिहारी जी अपने दोहे में पूछते हैं –

कहाँ लड़ैते दृग परे, परे हाल बेहाल
कहुँ मुरली कहुँ पीत पट, कहुँ वैजन्तीमाल।

कहाँ से नैन लड़ा के आ रहे हैं, कुछ अपनी सुध बुध भी है, यह कैसी हालत बना रखी है। तुम्हारी मुरली कहीं पर है, तुम्हारा पीताम्बर कहीं और है, तुम्हारे गले हमेशा शोभा बढ़ाने वाली वैजयंती की माला कहीं और पड़ी, ये क्या माजरा है, कुछ हमें भी तो बताओ।

बिहारी जी को इतने पर चैन कहाँ! विद्वान लोग मानते हैं कि उन्होंने साठ से अधिक दोहे केवल आँख पर लिखे हैं।तभी तो भरे भवन में करत हौं नैनन ही सों बात। नैनों से बात करना सबको नहीं आता। वह भी भरे भवन में जहाँ अपने सगे सम्बन्धी हों, रिश्तेदार हों, नातेदार हों, मित्र हों। इनकी आँख बचाकर , बात कर लेना , एक कला है । प्रेम की प्रवीणता है । यह तो वही कर सकता जो प्रेम किया है । और यह सबसे कठिन है । नेत्रों के संकेत से पूरी की पूरी बात कर लेना हर किसी के बस की बात नहीं है ।
बस यही समझिए – तलवार की धार पै धावनो है।

बारहवीं सदी में अमीर खुसरो नामक एक सूफी संत हुए जिन्होंने साफ साफ कह दिया –
छाप तिलक सब छीनी रे तोसे नैना मिला के।

नैना मिलाने वाला अपनी सुध बुध खो देता है। भूख प्यास खो देता है। मान अपमान खो देता है। वह प्रेम चाहे किसी स्त्री से करे चाहे ईश्वर से, दोनों हालत में ठगा जाना निश्चित है। नैना तो ऐसे बटमार हैं जो हृदय में पैठ का रास्ता वही बताते हैं। एक बार अगर पैठ बन गयी तो दूजा कहाँ समाय वाली बात हो जाती है, यानी एकछत्र राज्य।

नैन पर दुनियाभर के साहित्यकारों ने कुछ न कुछ तो लिखा ही है। एक कवि हुए रसलीन, वाह क्या अद्भुत बात कहीं है उन्होंने।
“अमिय हलाहल मद भरे, सेत श्याम रतनार।
जियत मरत झुकी झुकी परत, जिहि चितवत इक बार।।

बात इतने पर खत्म नहीं होती। अपभ्रंश साहित्य में एक दोहा बड़ा चर्चित है जिसकी एक लाइन से आप का काम चल जाएगा।
” बिट्टीये मत कर बंकिम दिठ्ठि।

यहाँ पर एक कुट्टनी नवयौवना नायिका को समझाते हुए कहती है कि बेटी, तुम किसी को तिरछी नजर करके मत देखा करो, यह बड़ी मारक क्षमता वाली है।

बात यह है कि किसी समय में कुट्टनी की भूमिका नवयौवना नायिका को प्रेम की सीख देने वाली होती थी। जो प्रायः किसी बूढ़ी अनुभवी स्त्री के लिए कहा गया है। खासकर वेश्याओं को शिक्षित करने का दायित्व उन पर आता था। जिस जमाने की यह बात है उस जमाने में वेश्याएं राजाश्रित होती थीं, उन्हें काम कला में निपुण होना आवश्यक होता था। ऐसी वेश्याएं अपने ग्राहकों का धन ऐंठने में काम कला का इस्तेमाल करती थीं। ऐसी ही एक वेश्या काशी में थी जिसे अर्धकाशी कहा जाता था। अर्धकाशी अपने ग्राहक से एक रात की कीमत काशी नरेश की आय के बराबर चाहती थी। जब उसे ग्राहक नहीं मिले तो उसने अपनी कीमत आधी कर दी, इसी कारण उसका नाम अर्धकाशी पड़ गया।

मुगलकाल के किसी विलासी बादशाह की नजर किसी वेश्या से ऐसी लड़ी कि वह वेश्या की बॉंहों में सब कुछ भूलकर खो गया। बाद में उसका प्रभाव इतना बढ़ा कि बादशाह के राजकीय कार्यों में दखल देने लगी। उसका प्रभाव लोगों के सिर चढ़कर बोलता था। धीरे धीरे उसने बादशाह को ऐसा जकड़ा कि मलाईदार पदों पर अपने परिजनों और रिश्तेदारों को बिठा दिया। बस यह समझिए कि हुकूमत की बागडोर उसी के हाथ में थी। बाद में उसका जो हश्र हुआ वह यहां कहने का औचित्य नहीं है।

बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र अपने एक पद में स्वीकार करते हैं –

पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना, अंखिया दुखिया नहीं मानती हैं। प्रेम का पाठ ही ऐसा है। अपने प्रिय को भर आंख देखे बिना चैन कहाँ। उस आँख का दुख भी भला कोई क्या समझेगा। उसका सारा अवसाद चुपचाप बह उठता, पर्वत के लावा सदृश। आँख की कामना ही कितनी है, वह तो बस बे रोक टोक अपने प्रिय को देख लेना चाहती हैं।

भारतेंदु जी एक जगह और कह पड़ते हैं –
बेगहिं बूड़ि गई पखियाँ
अँखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी।।

प्रेम में विरह की यह दशा सच्चे प्रेमी या प्रेमिका की होती है। यहाँ अपने प्रिय के विरह में प्रेमिका की आँखें ऑंसू से डबडबाई रहती हैं। जैसे मधुमक्खी मधु में डूब जाय और अपने पंख फड़फड़ा न सके।

कबीर भी ऐसे प्रेम से कहाँ अछूते हैं। वो अपने प्रिय को आँखों में बसाकर आँख बंद कर लेना चाहते हैं। और प्रेम करने वाला कितना अधिकार चाहता है। बस उतना कि वह खुद तो देखे लेकिन दूसरों को न देखने दे। इतना मालिकाना हक कोई सच्चा प्रेमी या प्रेमिका ही कर सकता है।

नैना अंतरि आव तूं, ज्यूँ हौ नैन झपेउँ ।
ना हौ देखौ और कूँ , ना तुझे देखन देउँ ।।

मीरा भी तो अपने प्रिय से कहती हैं –
बसो मेरे नैनन में नन्दलाल

मीरा अपने प्रियतम को कहीं और बसने की कामना क्यों नहीं करती, क्यों चाहती हैं कि वह उनके नैनन में ही बसे रहें। क्योंकि नैन ही प्रेम का मार्ग है। हृदय में बसने के लिए, एक बार जो हृदय में बस गया। उसे बाहर निकलने थोड़े देगी। पलक रूपी सिटकनी लगा देगी। ताला लगा देगी और चाबी किसी ऐसे स्थान पर फेंक देगी, जहाँ से ढूंढ़ने की गुंजाइश न रहे।

प्रेम के गायक कहे जाने वाले सूफी कवि जायसी जी नागमती के विरह के माध्यम से नैनों की बात किस अंदाज में कहते हैं।

बरसे मघा झकोरी झकोरी, मोरी दुई नैन चुवै जस ओरी। जैसे ओरी का पानी चूता है टप टप वैसे ही नायिका की आँखों से आँसू। एक विद्वान मानते थे कि स्त्रियों के प्रबल हथियार आंसू हैं। चाहे हँस के ठगे चाहे रो के, दोनों हालत में जिम्मेदार नैन ही हैं।
अखियाँ हरि दर्शन की भूखी
कैसे रहति रूप रस रांची, ये बतिया सुनि रूखी।।

सूरदास भी अपने हरि अर्थात प्रिय के दर्शन की भूख बता रहे हैं। गोपियों के माध्यम से ज्ञान की रूखी सूखी बातों को खारिज कर देते हैं। दर्शन का माध्यम तो नैन ही है। वही सबको देखती है। सूरदास को बिना नेत्र के भी अपने प्रिय को देखने की लालसा है, इसे आत्म दर्शन कहते हैं।

आत्म दर्शन ही सबसे सही और वास्तविक दर्शन है, यह साधना की अंतिम सीढ़ी तो नहीं लेकिन ऊँचाई अवश्य है। नैनों से दर्शन महज पहली सीढ़ी है, इसलिए बार बार ठगे जाने की संभावना बनी रहती है।

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