पूंजीवाद से परे जाने की जरूरत

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— विजय झा —

लोकतंत्र के वर्तमान और भविष्य पर विचार करने से पहले पूंजीवाद और लोकतंत्र के संबंधों पर विचार करना आवश्यक है। पूंजीवाद की कार्यप्रणाली को समझे बिना और उसके वैचारिक चौखटे से बाहर निकले बिना मौजूदा लोकतंत्र पर विचार करना कठिन है। लोकतंत्र यदि संकट में है तो उसकी जड़ें वहाँ न होकर आर्थिक दायरे यानी पूंजीवाद में हैं। लोकतंत्र के मौजूदा संकट पर ध्यान केंद्रित करने और उसी के दायरे में रहते हुए उसे संकट से बाहर निकालने के चक्कर में पूंजीवाद किनारे से बचकर निकल जाता है, उसे कुछ और वक्त मिल जाता है। वहीं, लोकतंत्र का अर्थ भी तो निजी संपत्ति आधारित अर्थव्यवस्था को वैध करनेवाली राज्य-व्यवस्था के रूप में रूढ़ हो चला है।

एक आजाद मुल्क के तौर पर भारत ने पूंजीवादी लोकतंत्र के रूप में अपनी यात्रा शुरू की थी। ध्येय था समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनना और सभी तरह की असमानताओं को दूर करना। इसलिए उसने अपनी उक्त यात्रा के लिए लोकोपकारी राज्य की राह पर चलना तय किया। लेकिन 75 वर्षों बाद यह न तो समाजवादी बन सका और न ही धर्मनिरपेक्ष। अमीरी और गरीबी के बीच की खाई गहरी होती चली गई। पूंजी पर महज कुछ घरानों का कब्जा होता चला गया। दावोस में पिछले वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम में पेश आक्सफैम इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 1 प्रतिशत अमीरों के पास देश की 40 प्रतिशत संपत्ति है। जबकि नीचे के 50 प्रतिशत लोगों के पास सिर्फ 3 प्रतिशत संपत्ति है।

इस तरह लोकोपकारी राज्य से यह धीरे-धीरे पूंजी-उपकारी राज्य का रूप लेता चला गया। लोकतंत्र भी सिमटकर चुनाव-मात्र बनकर रह गया। जिसे सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता रहा और जो विकसित देशों के समक्ष भी पूंजीवाद और लोकतंत्र के बीच सामंजस्य बनाकर चलने की संभावना की नजीर पेश करता आ रहा था, उसका ऐसा हश्र क्यों हुआ?

इसका जवाब केवल भारत पर नजर रखते हुए विचार करने से नहीं मिल सकता। कारण पूंजीवाद और लोकतंत्र की उत्पत्ति पश्चिम में हुई और भारत जैसे राष्ट्रों में वे उपनिवेशवाद के जरिए आए। उपनिवेशवाद ने भारत में राष्ट्रवादी अभिजनों का एक ऐसा तबका तैयार किया जो पश्चिम के सार्विक मताधिकार आधारित लोकतंत्र और निजी संपत्ति के असीमित संचय को जीवनादर्श मानने वाली पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रति आकर्षित था। इसलिए उपनिवेशवाद के खत्म होने के बाद भी इस तबके ने पूंजीवादी लोकतंत्र को अपनाने का निर्णय लिया। लेकिन भारतीय समाज में विद्यमान घोर सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को देखते हुए यह भी तय किया गया कि राज्य को लोकोपकारी रूप अख़्तियार करना होगा, तेजी से विकास और औद्योगीकरण करने होंगे, बेरोजगारी और अशिक्षा दूर करनी होगी, पूँजीपतियों और बाजार को नियंत्रण में रखना होगा आदि। इन सबको एकसाथ संबोधित करने के लिए समाजवादी पद का इस्तेमाल किया गया, जिसके इस्तेमाल से पूंजीपति वर्ग को आपत्ति थी।

कहने की जरूरत नहीं कि यह व्यवस्था और कुछ नहीं बल्कि अर्थशास्त्री कींस द्वारा सुझाए गए उपाय का नतीजा थी जिसे उन्होंने पश्चिमी लोकतांत्रिक राष्ट्रों में आई आर्थिक महामंदी से उबरने के लिए सुझाया था। वहीं, ट्रेड यूनियन, श्रमिक आंदोलन और वामपंथी भी अपना दबाव बढ़ा रहे थे। मजबूरन वहाँ राज्य को लोकोपकारी कदम उठाने पड़ गए। लेकिन लोकतंत्र और पूंजीवाद का यह प्रेमविहीन संबंध अस्सी के दशक तक आते-आते टूट गया। भारत पर भी इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

अस्सी के दशक में ब्रिटेन में थैचर और अमरीका में रीगन के नेतृत्व में नवउदारवादी विचारधारा को अपना लिया गया। उसके अनुसार राज्य के लोकोपकारी कदम पीछे कर लिये गए और बाजार को राज्य से मुक्त कर दिया गया। यह पूंजीपतियों की बेचैनी और दबाव में किया गया।

उसी दौरान भारत ने भी नवउदारवादी राह पकड़ी, जिसकी तार्किक परिणति आज हमें लगातार बढ़ती बेरोजगारी और महँगाई, धन-संपत्ति के दो-चार पूंजीपतियों के हाथों में केंद्रित होते जाने और फलस्वरूप गरीबी के बढ़ते ही जाने, निजीकरण, राज्य के बहुसंख्यकवादी और मजहबी रूप लेने और लोकतंत्र के संकटग्रस्त होते जाने के रूप में दीख रही है।

कहना न होगा कि राज्य के लिए लोकोपकारी से नवउदारवादी रूप लेना आसान नहीं था। आखिर जनता की बहुत ही बड़ी तादाद उसकी लाभार्थी और उस पर आश्रित थी। उनकी सहमति हासिल करने या यूं कहें वे विरोध न करें, उसके लिए राजनीतिक पार्टियों ने दाहिना मोड़ लिया, अस्मिता (जाति, प्रांत, मजहब आदि) आधारित राजनीति की, देशभक्ति को मुद्दा बनाया, अभिजन-विरोधी भावना को भड़काया यानी राजनीति को भावनामूलक (इमोशनल) रूप दे दिया। इससे मतदान के वक्त आर्थिक की बजाय ये भावनात्मक मुद्दे ही प्राथमिक स्थान लेते चले गए। कम-से-कम भारत के बारे में यह दावा किया जा सकता है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी लोकोपकारी राज्य को बहाल करने की बात नहीं कर रही है। इसका मतलब यही निकलता है अमूमन सभी राजनीतिक पार्टियाँ राज्य के नवउदारवादी रूप या पूंजीवाद को बरकरार रखने पर एकमत हैं। पार्टियों की क्या बात करें, ज्यादातर बुद्धिजीवी भी राजनीति के मजहबी रूप लेने पर तो चिंता व्यक्त करते देखे जाते हैं लेकिन लोकोपकारी शब्द का इस्तेमाल करने से बचते हैं। नवउदारवाद या पूंजीवाद शब्द भी उनके मुँह से शायद ही कभी निकलता है।

आलम यह है कि कई क्षेत्रीय पार्टियाँ दशकों तक अल्पसंख्यकों की रक्षा के नाम पर उदारतावादी, प्रगतिशील और यहाँ तक कि वामपंथी पार्टियों और बुद्धिजीवियों का घोर समर्थन पाती रह सकती हैं। भले ही, इस नाम पर वे लोकोपकारी राज्य की धज्जियाँ उड़ाती रहें, आर्थिक भ्रष्टाचार और गुंडा राज को प्रश्रय देती रहें और मूलभूत सुविधाओं (शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार आदि) से लोगों को वंचित रखती रहें।

इसे पूंजीवाद की सफलता ही माना जाना चाहिए। जिन संकटों या समस्याओं को यह पैदा करता है लोगों की नजरें उन्हीं पर बनी रहती हैं और वे समाधान भी वहीं तलाशते रहते हैं।

मिसाल के लिए, बेरोजगारी है तो इसके लिए आरक्षण जिम्मेदार है या किसी खास मजहब के लोग या प्रवासी जिम्मेदार हैं। उन्हें बाहर निकाल दें या उनकी नागरिकता खत्म कर दें तो समस्या खत्म। निजीकरण के कारण नौकरियाँ कम हो रही हैं, सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसर ही खत्म किए जा रहे हैं समस्या वहाँ नजर नहीं आती।

नजरें वास्तविकता की ओर न जा पाएं इसके लिए अक्सर तानशाही का भी सहारा लिया जाता है। इसके लिए एक ऐसे जादुई व्यक्तित्व को तैयार किया जाता है जो लहर उत्पन्न कर अपने दम पर यह सब करवा ले जाए। समर्थक उसके हर कदम/वचन पर मुग्ध रहते हैं और विपक्ष/विरोधी उसी की निंदा या आलोचना करने और किसी भी युक्ति से उसे पदच्युत करने में जी-जान से लगे रहते हैं। वे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ नजरों से ओझल और विमर्श से गायब हो जाती हैं, जिनमें ऐसे किसी खास तरह के व्यक्तित्व या तानाशाही की जरूरत उत्पन्न होती है।

पूंजीवाद की सफलता का राज उसके लोगों के सहज-बोध का हिस्सा बन जाने में भी छिपा हुआ है। मानव-स्वभाव की इसकी कुछ बुनियादी मान्यताएँ हैं (जैसे कि मनुष्य स्वार्थी और प्रतिस्पर्धी होता है), जिनके आधार पर उसने अपने अनुकूल मूल्यों और मान्यताओं की रचना भी की, जैसे निजी संपत्ति आधारित व्यवस्था प्राकृतिक होती है; धन-संचय और जमकर उपभोग करना ही जीवन का परम अर्थ और लक्ष्य है; लगन, मेहनत और प्रतिभा के बल पर सफलता पाई जा सकती है; सफल होने का एकमात्र अर्थ है अमीर होना आदि। इन्हें सहजबोध का हिस्सा बनाने के लिए पूंजीवाद ने पारंपरिक से लेकर आधुनिकतम संचार-माध्यमों का जमकर इस्तेमाल किया। इससे उसे खुद को मानव-सभ्यता के विकास-क्रम की अंतिम और स्वाभाविक अवस्था घोषित करने में भी कामयाबी मिली। सहजबोध के रूपांतरण का ही यह नतीजा है कि मनुष्य केवल और केवल आर्थिक प्राणी के रूप में विघटित होता जा रहा है। उसके जीवन के अन्यान्य पहलू भी आर्थिक पदों में व्यक्त किए जाने लगे हैं। गुण पर मात्रा हावी हो चली है।

पूंजीवाद के पुनरुत्पादन या निरंतरता में उपभोक्तावाद का भी बहुत बड़ा योगदान है। समाज पण्यलोलुप हो जाए इसी में पूंजीवाद का हित है। भला बुनियादी जरूरतों की पूर्ति भर से संतुष्ट हो जाने वाले समाज में यह टिक कैसे सकता है! उसके लिए आदर्श स्थिति तो वह है जिसमें वह जो कुछ भी पैदा करे वह समाज की जरूरतों की सूची में शामिल हो जाए। उत्पाद के प्रति कामना/लालसा पैदा होती रहे, लालसा जरूरत में तब्दील होती रहे, वही उसकी प्राणवायु है। इसलिए पूंजीवाद का इतिहास नई जरूरतों, इच्छाओं, कामनाओं को निरंतर उत्पन्न करने का इतिहास है।

दिलचस्प है कि पूंजीवाद की जगह समाजवाद और उसके बाद साम्यवाद के आने का जो सैद्धांतिक आख्यान रचा गया उसमें पूंजीवाद को गंतव्य भले नहीं माना गया लेकिन उसे एक अनिवार्य और प्रगतिशील चरण घोषित कर वांछनीय जरूर बना दिया गया। इस नजरिए से गैर-पूंजीवादी समाज सामाजिक विकास-क्रम में पूर्व-पूंजीवादी और पिछड़े हो गए। गैर-पूंजीवादी समाजों की विविध जीवन शैलियाँ असभ्यता का प्रतीक हो गईं और इकहरी पूंजीवादी जीवन शैली सभ्यता का। पूंजीपति बुरे माने गए लेकिन पूंजीवाद नहीं। नतीजा यह हुआ कहीं सभ्य बनाने के नाम पर तो कहीं लोकतंत्र बहाल करने के नाम पर पूंजीवाद का जो आरोपण और फैलाव हुआ, वह साम्यवाद को गंतव्य मानने वालों की नजर में एक उपकारी और जरूरी कार्रवाई मान ली गई। जिन समाजों में पूंजीवाद पूरी तरह कायम नहीं हो पाया उन्हें अर्धसामंती कह उनके पूर्ण पूंजीवादी होने का इंतजार किया जाने लगा।

यह पूंजीवाद को अनिवार्य और सकारात्मक मानने का ही नतीजा था कि विद्वतसमुदाय के बीच पूर्व-उपनिवेशों के भी स्वत: (बिना उपनिवेशन से गुजरे) पूंजीवादी व्यवस्था की तरफ बढ़ने की संभावना के होने या न होने को लेकर अच्छी-खासी बहस चली। साम्यवाद को मानवीय इतिहास का गंतव्य मानने वालों के साथ एक समस्या यह भी रही कि वे पूंजीवाद को अंतर्विरोधयुक्त मानते हुए उसे खुद अपने ही अंतर्विरोधों से खत्म होने वाली व्यवस्था मानते रहे। हालाँकि कई वामपंथी चिंतकों ने इसकी आलोचना की लेकिन राजनीति में यह धारणा लंबे समय तक हावी रही।

खैर, पूंजीवाद समाजवाद/साम्यवाद की पूर्व-शर्त साबित नहीं हुआ। हाँ, उसे इतना वक्त और अवसर जरूर मिल गया कि अब लोकतंत्र की बात क्या करें, खुद धरती और मानव-सभ्यता ही विनाश के कगार पर पहुँच गई है।

सवाल उठता है कि क्या किया जाए? क्या स्थिति वास्तव में इतनी निराशाजनक है? क्या हम वास्तव में निरुपाय हैं? जवाब है नहीं।

सबसे पहले तो हमें इतिहास के एकरेखीय विकास की धारणा का परित्याग करना पड़ेगा। इससे पूंजीवाद ही मानव-समाज के विकास-क्रम का गंतव्य है या ‘टीना’ (देयर इज नो आल्टर्नेटिव) जैसी मान्यताएँ बेबुनियाद हो जाएँगी। हमें इस भ्रम से भी बाहर निकलना होगा कि पूंजीवाद अपने ही अंतर्विरोधों से खत्म हो जाएगा या इसने अपने लिए सार्विक मताधिकार वाले लोकतंत्र के रूप में लक्ष्मण रेखा खींच रखी है, क्योंकि उसे पता है कि एक हद के बाद लोग असंतुष्ट होकर उससे विमुख हो जा सकते हैं। अपने विविध प्रयोगों से गुजरते हुए अब उसे यह बात समझ में आ गई है कि नाम मात्र के लोकतंत्र वाली तानाशाही राज्य-व्यवस्था के साथ मिलकर भी वह खुद को टिकाए रख सकता है। ऐसी व्यवस्था (जाहिर है एक चेहरे के साथ) लोगों के आर्थिक असंतोष को अन्य भावनात्मक और प्रतिक्रियावादी मुद्दों में खपा देती है।

इसके साथ ही हमें पूंजीवाद की मानव-स्वभाव संबंधी मान्यता को भी चुनौती देनी होगी। मनुष्य केवल स्वार्थी और प्रतिस्पर्धी नहीं रहा है। धन और पण्य के प्रति अतिशय लोलुपता को भी हमेशा से समाज में अच्छी निगाहों से नहीं देखा जाता रहा है।

मानव-समाज के विकास की यात्रा पर नजर डालें तो हम पाएँगे कि परोपकार, परस्पर सहयोग, त्याग, संतोष, प्रेम, करुणा, सहानुभूति आदि भी मानवीय स्वभाव में प्रबलता से मौजूद रहे हैं। इनके बिना मनुष्य एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता था। जरूरत है इन मूल्यों को पुनर्प्रतिष्ठित करने की। इन्हें अमल में लाने की। हालाँकि कई प्रगतिशील और वामपंथी इन बातों को भाववादी कहकर हल्के में ले सकते हैं। लेकिन पूंजीपतियों और उनके समर्थकों ने इन्हें गंभीरता से लिया और इन्हें स्वार्थ और प्रतिस्पर्धा की तुलना में कमतर मानने-मनवाने या विमर्श से ही गायब करने का पूरा प्रयत्न किया। डेविड हार्वे जैसे चिंतक का भी यही मानना है कि अब पूंजीवादी व्यवस्था से पार पाने के लिए विचारों के स्तर पर बदलाव लाना जरूरी हो गया है।

लोकतंत्र को भी पुनर्परिभाषित किए जाने की जरूरत है। यदि यह कुछ अर्थों के साथ ऐसा रूढ़ रूप ले चुका है कि चाहकर भी इसे वैकल्पिक व्यवस्था को बनाने में इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता है तो किंकर्तव्यविमूढ़ावस्था में रहने की बजाय जरूरत इस बात की है कि इसकी जगह किसी और पद का इस्तेमाल किया जाए, मसलन रिपब्लिक का। आखिर संविधान में भी तो रिपब्लिक को बतौर आदर्श रखा गया है।

लोकतंत्र का यह कहकर भी गुणगान किया जाता रहा कि इसमें राजनीतिक रूप से सभी बराबर हैं। इसमें लोगों को अपने हिसाब से जिंदगी जीने की आजादी प्राप्त है। आर्थिक असमानता दूर करने के दावे के साथ वजूद में आईं समाजवादी व्यवस्थाओं की सर्वाधिक आलोचना नागरिक अधिकारों को दबाने और मनमुताबिक जिंदगी जीने की आजादी न दिए जाने के आधार पर ही की गई। इस तरफ कम ही ध्यान दिया गया कि आखिर मनमुताबिक जिंदगी जीने की आजादी दरअसल है क्या? असीमित धन-संचय और जी भरकर उपभोग, इन्हें ही आजादी का पर्याय बना दिया गया। यह पूंजीवाद की जरूरत थी। आजादी प्रदान करने के नाम पर धन-संचय या उपभोग की कोई सीमा नहीं तय की गई। ऐसा माना गया कि किसी तरह की सीमा तय करने या पाबंदी लगाने से आजादी को आँच आएगी। नतीजतन धन-संचय और उपभोग ही जीवन का अर्थ, उसके चरितार्थक, सुख-सफलता के द्योतक बनते चले गए। यह पूंजीवाद की बड़ी जीत साबित हुई और मानव-सभ्यता की पराजय।

सीमित संसाधनों के असीमित दोहन और प्रकृति-प्रतिकूल आविष्कारों और गतिविधियों द्वारा पूंजीवाद ने धरती और उस पर मौजूद मानव और मानवेतर जीवन को ही विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। यानी देर हो चुकी है। इसलिए अब लोकतंत्र को बचाने की चिंता न करके धरती और उस पर मौजूद जीवन को कैसे बचाया जाए चिंता उसकी की जानी चाहिए। इसमें मौजूदा लोकतंत्र हमारे काम आ सकता है, या रिपब्लिक नाम से नई प्रतिनिधिक राज-व्यवस्था कायम की जानी चाहिए, या किसी और तरह की शासन-व्यवस्था की दरकार है–इस पर सोच-विचार करना चाहिए।

इतना तो तय है कि पूंजीवाद से परे जाना होगा और समस्त मानव प्रजाति के कल्याण (आवश्यक भौतिक/शारीरिक जरूरतों की पूर्ति और खुशहाली) के संग-संग धरती और उस पर मौजूद जीवन को बचाने को प्राथमिक मुद्दा और चिंता बनाना होगा।

और अंत में

हमारे समक्ष डिकोलोनियलिटी के रूप में एक सैद्धांतिक फ्रेमवर्क भी मौजूद है जिससे हमें पूंजीवाद और उससे परे जाने के सूत्र हाथ लगते हैं। यहाँ उपसंहार के रूप में डिकोलोनियलिटी के अग्रणी सिद्धांतकार वाल्टर डी. मिगनोलो के विचार प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इस उम्मीद के साथ कि पाठक डिकोलोनियलिटी के अध्ययन की ओर उन्मुख होंगे।

प्रगतिशील और उदारवादी तबका विऔपनिवेशीकरण की बात करने वालों को प्राय: शक की निगाहों से देखा करता है। उसे लगता है कि विऔपनिवेशीकरण के पक्षधर पश्चिम का अंधविरोध करते हैं और कहीं अतीत में लौट जाने की पैरवी करते हैं। जबकि हकीकत यह है कि विऔपनिवेशीकरण और उसके बाद के चरण ‘डिकोलोनियलिटी’ के विमर्शकार जब पश्चिमी सभ्यता की आलोचना और उससे मुक्ति की बात करते हैं, तब उनका आशय आधुनिकता और सभ्यता के नाम पर पश्चिम द्वारा गैर-पूंजीवादी समाजों को जबरन पूंजीवाद के दायरे में लाने की ओर ध्यान दिलाने और उससे बाहर निकालने से होता है।

2008 के वित्तीय संकट के दौरान जब अमेरिकी नेता ‘सिस्टम को कैसे बचाया जाए’ जैसा सवाल उठा रहे थे तब डिकोलोनियलिटी के अग्रणी सिद्धांतकार वाल्टर मिगनोलो ने इसे गलत सवाल बताते हुए यह पूछा कि ‘इसे भला बचाया ही क्यों जाए?’ मिगनोलो से जब इसका कारण बताने के लिए कहा गया तो उन्होंने बड़े ही मार्के की और आँखें खोल देने वाली बात कही।

उन्होंने कहा कि जिसे हम बचाना चाहते हैं वह दरअसल पश्चिमी सभ्यता का आर्थिक खंभा (पूंजीवाद) है, जो यह मानता है कि विकास और वृद्धि से खुशहाली आती है। मिगनोलो ने इसमें आगे यह जोड़ा कि मेरा और मुझ जैसे कई और चिंतकों या विमर्शकारों का यह मानना है कि यह सिस्टम धरती और उस पर मौजूद मानव एवं अन्य जीव-जंतुओं को ही मौत की खाई में धकेल रहा है। इसलिए अब सवाल यह होना चाहिए कि धरती और उस पर मौजूद जीवन को कैसे बचाया जाए? पूंजीवादी सभ्यता को वे ऐसा घोड़ागाड़ी मानते हैं जिसमें गाड़ी आगे लगी हुई है और घोड़ा पीछे।

इसमें सीमित संसाधनों के संतुलित, विवेकसम्मत और न्यायपूर्ण इस्तेमाल की योजना नहीं बनाई जाती है और न ही सबके कल्याण और पर्यावरण को बचाने की चिंता की जाती है। बस एक ही ध्येय रहता है संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और अधिक-से-अधिक धन-संचय, जिसका नतीजा महज कुछ ही के पास अकूत धन-संपत्ति के इकट्ठा होने और बहुत बड़ी आबादी के तंगहाली में जीवन-बसर करने के रूप में निकलता है। मिगनोलो ‘विकास और वृद्धि’ वाले इस पैराडाईम की गिरफ्त से बाहर निकलकर ऐसे पैराडाईम को अपनाने की बात करते हैं जिसमें वैविध्यपूर्ण जीवन, मनुष्यों के बीच परस्पर सहयोग, प्रकृति के साथ तालमेल आदि प्राथमिकता रखते हों। इसी से पीछे लगा हुआ घोड़ा गाड़ी के आगे आ सकेगा और गाड़ी चल पाएगी।

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