जहाँ का खाना खाकर सैकड़ों की तादाद में आईएएस, आईपीएस, जज, प्रोफेसर, एक्टर, नेता बने !

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kamla Nagar Delhi

— प्रोफेसर राजकुमार जैन —

पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू के नाम से 1950 में बना दिल्ली यूनिवर्सिटी के नॉर्थ कैंपस से सटा कमला नगर, उत्तरी दिल्ली का भीड़भाड़ वाला तथा खासतौर से दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्रों की मटरगश्ती, आंख मटक्का का केंद्र बना हुआ है। इसके एक बाजार बंगलो रोड पर अच्छी खासी तादाद में किताबों की दुकानें तथा नामी प्रकाशकों के दफ्तर भी मौजूद हैं। परंतु आज यहां चटपटे खाने, स्ट्रीट फूड से लेकर देसी विदेशी अंतरराष्ट्रीय ब्रांड के मैकडॉनल्ड्स, डोमिनोज, कैफे कॉफी डे, स्टारबक्स जैसे बड़े-बड़े खाने-पीने के केंद्र होने के साथ-साथ नामवर कपड़े जूते फैशन के सामान के स्टोर भी दिखाई पड़ रहे हैं। इस कारण हंसराज कॉलेज, रामजस कॉलेज, मिरांडा हाउस, किरोड़ीमल कॉलेज, श्रीराम कॉलेज, स्टीफन कॉलेज, हिंदू कॉलेज, दौलतराम कॉलेज, फैकेल्टी आफ लॉ, फैकेल्टी आफ मैनेजमेंट स्टडीज, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, के छात्रों के अलावा पोस्ट ग्रेजुएट कोर्सों में पढ़ने वाले छात्र, किताब खरीदने से लेकर तरह-तरह के शोरूम, रेस्टोरेंट में गपशप करते देखे जा सकते हैं।

परंतु साठ के दशक में दिल्ली यूनिवर्सिटी के अध्यापकों, छात्रों में तीन जगह, एक चाचा के छोले भटूरे की दुकान, दूसरा शर्मा जी का होटल व इंडियन कॉफी हाउस मशहूर था। शर्मा जी के होटल का वर्णन किए बिना दिल्ली यूनिवर्सिटी का इतिहास पूरा नहीं होता।

सैकड़ों की तादाद में यहां आईएएस, आईपीएस, जज, प्रोफेसर, एक्टर, नेता तथा अन्य बड़ी सेवाओं में यहां का खाना खाकर गए हैं। अक्सर पुराने छात्र जब मिलते हैं तो शर्मा होटल का जिक्र भी आ ही जाता है।

मैंने बरसों बरस यहां पर भोजन किया है। इस होटल के मालिक शर्मा जी हिमाचल के रहने वाले थे, तथा उनके भाई शुरू में मिलकर यह होटल चलाते थे। सीढ़ियां चढ़कर होटल में जैसे ही आप प्रवेश करते, तो दरवाजे पर ही एक छोटे से लकड़ी के तख्त पर रुई की लंबी गद्दी बिछी रहती थी। उसके सामने एक छोटा सा काउंटर रखा रहता था, एक सिरे पर काले रंग का पुराने स्टाइल का टेलीफोन तथा एक प्लेट में मिश्री और सौंफ के साथ-साथ एक छोटे से पैड पर छोटी पर्ची वाले सादे कागज जिस पर शर्मा जी एक पेंसिल जिसका एक सिरा डोरी से बंधा रहता था हाथ से लिख कर बिल बनाते थे। तख्त पर दोनों शर्मा बंधु जमे रहते थे। शर्मा जी के भाई की बड़ी मूॅंछें, रौबदार चेहरा था। दोनों भाइयों की कड़क आवाज वहां सुनाई पड़ती थी। साथ ही में एक रजिस्टर रखा रहता था जिसमें मासिक खाने वालों की हाजिरी का हिसाब किताब लिखा होता था। ऊंची छत का होटल दो भागों में बंटा हुआ था। ऊंचाई वाला एक कमरा, उसके बाद दो सीढ़ियां उतर कर बड़ा हॉल, और उसके बाद अंत में गली की तरफ बना रसोई घर। हॉल के किनारे पर बहुत सारी तालाबंद देसी घी की लटकन अथवा छोटी कनस्तरी रखी रहती थी, जहां मासिक खाना खाने वाले अपनी-अपनी कनस्तरियों में से देसी घी निकालकर होटल के कर्मचारियों को कटोरी में दे देते थे, ताकि उनकी दाल सब्जी में छोंक लगा दिया जाए। शर्मा जी के होटल की कई बड़ी खूबियां थीं। शर्मा जी हर रोज सुबह खुद मंडी जाकर साग सब्जियां खरीद कर लाते अपने हाथों से उनकी सफाई कटाई करते थे। बची हुई दाल या सब्जी को अगले दिन ग्राहक को देने का सवाल ही नहीं था, वैसे भी फ्रिज उनके होटल में था ही नहीं। कई बार मैंने देखा कि दाल या सब्जी कम पड़ रही है, ग्राहक ज्यादा आ रहे हैं तो शर्मा जी गद्दी से उठकर रसोई घर में खुद दाल सब्जी पकाने में मदद करना शुरू कर देते थे। उनका खाना आम होटलों रेस्टोरेंट्स की मसालेदार चटपटा तरह-तरह की तरियों से भरा हुआ नहीं होता था।

हाथ से बेलकर, चूल्हे पर सेंक कर फुल्का परोसा जाता था। शर्मा जी के रेस्टोरेंट में काम करने वाले कर्मचारी सभी हिमाचल के रहने वाले होते थे।

बड़ी मूॅंछें वाले एक कार्यकर्ता प्यारेलाल, मुस्कुराते हुए ग्राहक की मेज पर पहुंचते थे, उनका पहला वाक्य होता था क्या पेश करूं? शर्मा जी के होटल की बनावट इस प्रकार की थी कि कैसी भी गर्मी पड़ रही हो, केवल पंखे से ही काम चल जाता था। घर जैसा माहौल होटल में था।

उनके खाने की परीक्षा मेरे दो बुजुर्गों, जो कभी घर से बाहर खाना पसंद नहीं करते थे, ने भी की। मेरे बहुत इसरार करने पर जब एक बार वहां भोजन कर लिया तो कभी-कभी वे बेहिचक वहां पहुंच जाते थे। मेरे दोस्त प्रोफेसर रफी उल ऐमाद फैनान जो कि जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर तथा मुल्क के अरबी भाषा के अंग्रेजी उर्दू मैं इंटरप्रेटर उदघोषक खासतौर पर जब विदेशी अरबी बोलने वाले मेहमान हिंदुस्तान आते हैं उस समय सरकार प्रोफेसर फैनान की सेवा लेती है, तथा उनके राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित मरहूम वालिद जो कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के अरबी डिपार्टमेंट के प्रोफेसर हैड रह चुके थे, पूरी दुनिया में अरबी साहित्य भाषा के विद्वान के रूप में उनको जाना जाता है। तथा दिल्ली यूनिवर्सिटी म्यूजिक फैकल्टी के भूतपूर्व डीन एवं प्रोफेसर, पद्म विभूषण टी एन कृष्णन हिंदुस्तान के कर्नाटक शैली के विश्व प्रसिद्ध वायलिन वादक थे। एक दिन मेरे इसरार पर वे खाना खाने चले गए। उनको खाना पसंद आया। कि उसके बाद कई बार उन्होंने वहां का भोजन ग्रहण किया। शर्मा जी के होटल के खुशनुमा माहौल में घर जैसा एहसास होता था।

फिर यहां कहानी में एक नया मोड़ आया। उनके दो बेटे थे। वे पिता के काम में हाथ बंटाने के लिए समय मिलने पर होटल में बैठते थे। छोटा बेटा कुलदीप बाहर किसी यूनिवर्सिटी से इंजीनियर की पढ़ाई कर लौटा। तब तक शर्मा जी के भाइयों में बंटवारा हो चुका था। बेटे कुलदीप ने अब होटल के काम में रुचि लेनी शुरू कर दी। सबसे पहले उन्होंने होटल के पुराने फर्नीचर को हटाकर, नया फर्नीचर लगवाया। तख्त की जगह रिवाल्विंग चेयर, होटल की दीवारें और अन्य साज सज्जा करवायी। पहली बार होटल की एक मीनू पुस्तिका नए रेट लिस्ट के साथ प्रकाशित की गयी। और सबसे नयी जो बात हुई, वह यह थी कि मासिक खाने वालों का प्रावधान समाप्त कर दिया गया। शर्मा जी से मेरे निकट के संबंध बन चुके थे, उन्होंने मुझे कहा, ‘मैंने इन लड़कों से कहा कि मंथली खाने का सिस्टम चलने दो, मगर यह मेरी सुनते ही नहीं। थोड़े दिन में ही शर्मा रेस्टोरेंट्स खाली नजर आने लगा। अब उसके रेट नई साज-सज्जा के मुताबिक हो चुके थे। अब यहां मासिक आने वाले या रोजमर्रा खाने वाले आने बंद हो चुके थे। शर्मा जी मुझे कहते थे कि रसोई बनाने वाले मुझसे पूछते हैं कि शर्मा जी क्या बनाऊं? मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आता क्या बताऊं।

इसके पीछे एक व्यावसायिक मानसिकता कार्य कर रही थी। सादा खाना खाने वाले तो अब वहां आ नहीं रहे थे। ज्यादा पैसा देकर खाने वाले कमला नगर के इस छोटे से ढाबे में आना अपनी शान के खिलाफ समझते थे।

इसी बीच शर्मा जी का इंतकाल हो गया। दोनों बेटों में भी अलगाव होने के कारण दुकान को बांट लिया। बड़े बेटे ने इलेक्ट्रॉनिक वगैरह के सामान की दुकान कर ली, और छोटे बेटे कुलदीप ने वही होटल के काम को जारी रखने का प्रयास किया। छोटी सी गैलरी में चल रहा यह होटल आहिस्ता आहिस्ता बंद होने के कगार पर आ गया, और आखिरकार छोटे बेटे ने भी किसी और सामान का काम वहां पर शुरू कर दिया।

शर्मा जी का होटल एक होटल ना होकर घर की रसोई का एहसास देता था। मगर यह ढाबा न लगकर होटल लगे, ज्यादा कमाई हो, और परिवार का विघटन उसका पतन बन गया। और हम जैसे लोगों के लिए घर जैसे खाने का स्थान छिन गया।

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  1. बहुत अरसे बाद इस कुछ ढंग का पढ़ने को मिला।

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