विपक्ष के गठबंधन को लेकर भाजपा विचलित क्यों है?

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— गोपाल राठी —

राजनीतिक गठबंधन बनाना कोई नई बात नहीं है। गठबंधन का पहला लक्ष्य होता है विरोधी वोटों को विभाजित होने से रोकना। 1967 में जब डॉ. लोहिया ने गैरकांग्रेसवाद का नारा दिया तो उनका उद्देश्य कांग्रेस विरोधी मतों को बंटने से रोकना था। उनकी इस रणनीति का असर यह हुआ कि अनेकों प्रान्तों में गैरकांग्रेसी संयुक्त सरकारें बनीं। गैरकांग्रेसी दलों में कोई सैद्धांतिक एकरूपता नहीं थी; वे सिर्फ कांग्रेस को हटाने के नाम पर सहमत हुए थे। 1977 में तो गठबंधन से आगे जाकर कांग्रेस विरोधी पार्टियों ने आपस में विलय करके जनता पार्टी का गठन किया था और केंद्र में पहली बार कांग्रेस को अपदस्थ कर गैरकांग्रेसी सरकार बनाई थी।

राजनीतिक जरूरत के हिसाब से गठबंधन बनते और बिगड़ते रहे हैं। परिस्थितियों के अनुसार दो तीन या चार गठबंधन हो सकते हैं। वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल बना और जनता दल की पहल पर राष्ट्रीय मोर्चा। वीपी सिंह राष्ट्रीय मोर्चा-वाम मोर्चा समर्थित प्रधानमंत्री थे। इस सरकार को भाजपा का भी समर्थन था। लेकिन साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के उद्देश्य से निकाली गई आडवाणी की रथयात्रा को रोकने और आडवाणी की गिरफ्तारी के कारण भाजपा ने वीपी सिंह को दिया गया अपना समर्थन वापिस ले लिया था।

अपने साम्प्रदायिक एजेंडे के कारण भारतीय राजनीति में अलग थलग पड़ी भाजपा ने अटल और आडवाणी के नेतृत्व में पार्टी का आधार विस्तार करने के साथ-साथ अन्य कांग्रेस विरोधी पार्टियों के साथ गठबंधन की शुरुआत की । जिसका नाम नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (NDA) रखा गया । इस गठबंधन में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी फिर भी एनडीए का संयोजक जार्ज फर्नांडिस को बनाया गया; जार्ज के निधन के बाद शरद यादव एनडीए के संयोजक रहे। इस गठबंधन में सभी छोटी-बड़ी पार्टियों और उसके नेताओं को पर्याप्त महत्व और बराबरी का दर्जा मिला। सबको पार्टनर माना गया। गठबंधन के धर्म का निर्वाह करने के लिए भाजपा ने अपने साम्प्रदायिक एजेंडे को स्थगित कर दिया था। एनडीए की समय समय पर बैठक होती थी जिसमें गठबंधन के सभी दलों के नेता शामिल होते थे। आज ऐसे कई दल और नेता भाजपा का मुखर विरोध कर रहे हैं जो अटल जी के कार्यकाल में एनडीए के प्रमुख घटक रहे हैं। जनता दल यू , तृणमूल कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस, शिवसेना, अकाली दल आदि। भाजपा के नेतृत्व में बने एनडीए के मुकाबले गैरभाजपाई दलों ने कांग्रेस के नेतृत्व में यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस (UPA) बनाया। इस गठबंधन ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस वर्ष तक केंद्र में सरकार चलाई।

गठबंधन एक राजनीतिक गोलबंदी है जिसका आधार सैद्धांतिक भी हो सकता है और व्यावहारिक भी। गठबंधन अपनी मजबूती के लिए न्यूनतम सैद्धांतिक आधार (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम) तय कर राजनीति की दिशा तय करता है। भाजपा विरोधी गठबंधन की न्यूनतम सैद्धांतिक समझ तो कुछ कुछ नजर आती है लेकिन भाजपा समर्थक गठबंधन का क्या आधार है यह स्पष्ट नहीं है। सत्ता और सिर्फ सत्ता ही एकमात्र एजेंडा है उनका।

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में नरेंद्र मोदी के उदय के बाद एनडीए का विशेष महत्व नहीं बचा। 2014 और 2019 में स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने के बाद भाजपा की इस पर निर्भरता नहीं रही। एनडीए का ढीलाढाला ढांचा कायम रहा लेकिन न कभी उसकी मीटिंग हुई और न शरद यादव के बाद कोई उसका संयोजक बना। राज्यों में सरकार बनाने के लिए छोटे छोटे दलों को फांसने के लिए उन्हें केंद्र सरकार में भागीदार बनाया गया। जो भाजपा के जाल में फंस गए वे सब एनडीए में हैं। सीबीआई व ईडी के शस्त्र से आक्रांत नेता अपना अपना दल लेकर एनडीए का हिस्सा बन गए। ओमप्रकाश राजभर, जीतनराम मांझी, चिराग पासवान टाइप के नेता और उनकी जाति की पार्टी राजनीतिक सौदेबाजी के तहत एनडीए में आ गए। 18 जुलाई को दिल्ली में हुई एनडीए की मीटिंग में 38 दल और उनके नेता शामिल हुए। मीटिंग में इन सब पार्टियों के नेता नरेंद्र मोदी का भाषण सुनने और ताली बजाने के लिए बुलाए गए थे। किसी को बोलने का मौका नहीं मिला। एनडीए के मंच पर पृष्ठभूमि में सिर्फ नरेंद्र मोदी की फोटो थी।

इसी के समानांतर बैंगलोर में भाजपा-विरोधी दलों की मीटिंग हुई जिसमें एक नए गठबंधन का आगाज हुआ जिसका संक्षिप्त नाम INDIA सामने आया। इस जमावड़े में 26 दल और उनके नेता शामिल थे। मंच पर और मंच के बाहर लगे बैनर पोस्टर में इन सभी दलों के प्रमुख नेताओं के फोटो थे। INDIA गठबंधन अस्तित्व में आते ही भाजपा और मोदी अत्यंत विचलित नजर आए क्योंकि INDIA के घटक दलों ने कहा कि हम भाजपा विरोधी वोट बॅंटने नहीं देंगे। नए गठबंधन को लेकर अनर्गल टीका-टिप्पणी जारी है। भाजपाइयों की बचैनी यह बता रही है कि INDIA का आगाज उसके लिए खतरे की घंटी है। सत्ता से मोदी जी की विदाई का समय नजदीक आ रहा है।

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