— प्रभात कुमार —
सत्ता के अंकगणित में उलटफेर के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 9 साल में पहली बार सकते में दीख रहे हैं। कुछ दिनों से उनके चेहरे पर शिकन है। जैसे-जैसे 2024 करीब आ रहा है चुनाव को लेकर उनकी चिंता बढ़ने लगी है। मानसून सत्र के पहले दिन संसद भवन में पत्रकारों से रूबरू होते हुए मणिपुर की घटना पर अपना दर्द बयां किया, लेकिन यह अवसर घटना के 88 दिन बाद संभव हो सका। इसके पीछे सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी और विपक्षी पार्टियों की सशक्त घेराबंदी है।
गौरतलब है कि मणिपुर में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। इसके बावजूद, ढाई महीने बाद भी हालात नियंत्रण में नहीं आ सके हैं। कोई दो दिन पहले दो महिलाओं को सड़क पर नग्न घुमाने का मामला सामने आया है। जिसे लेकर देश और देश के बाहर किरकिरी होना स्वाभाविक है।
कोई तीन दिन पहले दिल्ली के अशोका होटल में एनडीए की पांच साल के बाद पहली बार बैठक हुई। जिसमें अचानक कई सालों के बाद उन्हें एनडीए के संस्थापक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और अपने अभिभावक पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की याद आयी। उन्हें देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने और बालासाहेब देवरस, एनडीए के संयोजक रहे समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस, सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव और मुजफ्फर बेग को पद्म सम्मान दिए जाने की अचानक याद आई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पुराने साथी बालासाहेब ठाकरे, रामविलास पासवान, चौधरी अजीत सिंह और प्रकाश सिंह बादल को भी याद किया। इसके पीछे सत्ता का गणित छिपा हुआ है।
अभी बहुत दिन नहीं हुए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में छाती ठोंक कर चुनौती भरे अंदाज में कहा था- ‘मैं अकेला सब पर भारी।’ लेकिन कुछ ही दिनों में ऐसा क्या हुआ जिसके कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आत्मविश्वास अचानक हिल गया। यह खेल सत्ता के अंकगणित का है जिसने मोदीजी को 26 विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडिया’ को जवाब देने के लिए 38 दलों का एनडीए का कुनबा बनाने के लिए मजबूर कर दिया है। संभवतः आने वाले दिनों में दोनों तरफ संख्या और बढ़ेगी। लेकिन इंडिया और एनडीए के बीच घमासान की स्थिति में इन दोनों गठबंधन से अलग चल रहे आठ-नौ दलों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। मालूम हो कि वर्तमान में इन दलों के कुल 59 सांसद हैं। जिसमें सबसे बड़ी पार्टी आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी है। जिसके प्रमुख जगनमोहन रेड्डी हैं और उनके 22 सांसद हैं। दूसरे नंबर पर ओड़िशा का बीजू जनता दल है जिसके प्रमुख नवीन पटनायक हैं और उनके 12 सांसद हैं। इसके बाद बहुजन समाज पार्टी है जिसकी सुप्रीमो सुश्री मायावती हैं और उनके 10 सांसद हैं। पूर्व प्रधानमंत्री एचआर देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस का एक सांसद है और प्रकाश सिंह बादल की पार्टी शिरोमणि अकाली दल के दो सांसद हैं। दोनों महागठबंधन से वर्तमान में तटस्थ ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम और हरियाणा के इंडियन नेशनल लोक दल का फिलहाल कोई सांसद नहीं है। वैसे, वर्तमान में तटस्थ इन पार्टियों में से भी कुछ दलों के एनडीए में शामिल होने की चर्चा बनी हुई है। फिर भी कुछ दलों के दोनों महागठबंधन से तटस्थ रहने के आसार हैं। लिहाजा सत्ता के अंकगणित की दृष्टि से इनका महत्व बना हुआ है।
अब रहा विपक्षी एकता के बाद सत्ता के अंकगणित में आए फर्क का। इंडिया के गठन के बाद भी भारतीय जनता पार्टी अभी सबसे शक्तिशाली पार्टी बनी हुई है। उसके लोकसभा में 301 सदस्य हैं। दूसरी ओर उसके मुकाबले वर्तमान में लोकसभा में कांग्रेस के 49 सदस्य हैं। 2019 में एनडीए के 352 उम्मीदवार जीते, जबकि यूपीए के मात्र 91 उम्मीदवार जीत पाये। अन्य के 99 उम्मीदवार जीते और यह आंकड़ा यूपीए से अधिक था। अगर तीन दिन पहले सामने आए दोनों महागठबंधनों की ताकत बात करें तो लोकसभा में एनडीए के साथ 332 सांसद हैं। लोकसभा में यूपीए के साथ 149 सांसद हैं और 59 दोनों में से किसी भी महागठबंधन में शामिल नहीं हैं। वे फिलहाल तटस्थ हैं। इसके अतिरिक्त 3 सांसद हैं, जो निर्दलीय हैं।
वर्तमान लोकसभा का अंकगणित भारतीय जनता पार्टी की दृष्टि से पूरी तरह अनुकूल है। लेकिन सिर्फ 100 सीटों के हेरफेर से भारतीय जनता पार्टी की सत्ता असुरक्षित हो सकती है। ऐसी स्थिति में तटस्थ दलों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होगी। दोनों गठबंधन को बहुमत के आंकड़े के लिए इनकी जरूरत होगी। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह होगी कि आज की तरह एकतरफा सत्तारूढ़ दल नहीं होगा। उसके सामने सशक्त विपक्ष की चुनौती होगी। लेकिन यह 100 सीटों का खेल इतना आसान नहीं होगा। फिर भी भारतीय जनता पार्टी की बेचैनी विपक्षी एकता के सामने आने के बाद से लगातार बढ़ रही है। इसी का परिणाम है कि भारतीय जनता पार्टी ने मृतप्राय एनडीए को आनन-फानन में जीवित कर विपक्ष के महागठबंधन को चुनौती देने के लिए तीन दर्जन दलों को एकत्र किया है। यही नहीं महाराष्ट्र में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने एनसीपी को भी तोड़ दिया। अजित पवार के नेतृत्व में एनसीपी का एक हिस्सा महाराष्ट्र की सरकार का हिस्सा भी बन चुका है। वहीं एनसीपी के सुप्रीमो शरद पवार विपक्षी एकता के साथ हैं। पहले शिवसेना के दो फाड़ हुए थे। इधर बिहार में भी पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी ‘हम’ अब एनडीए का हिस्सा बन चुकी है। वह बिहार में सरकार से अलग हो गई है।
विपक्षी एकता के बाद भारतीय जनता पार्टी की नजर सबसे ज्यादा बिहार और महाराष्ट्र पर है। 2019 में ये दोनों प्रदेश एनडीए का सबसे मजबूत हिस्सा रहे थे। शिवसेना और जेडीयू एनडीए में सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी थीं जो इस बार उससे अलग हो गई हैं। वैसे शिवसेना का एकनाथ शिंदे गुट अब एनडीए के साथ है। वहीं उद्धव ठाकरे ‘इंडिया’ के साथ हैं। बिहार में भी जेडीयू को तोड़ने की भाजपा की कोशिश लगातार जारी है लेकिन अभी तक वह इसमें सफल नहीं पायी है। लिहाजा बिहार में राजद, जेडीयू और कांग्रेस सहित सात दलों के मोर्चा की चुनौती को देखते हुए कई पार्टियों को एकजुट करने में लगी है। लोजपा में चाचा भतीजे के विवाद को सुलझाया जा रहा है। चिराग पासवान ने फिर हाथ मिलाया है। जेडीयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रामचंद्र प्रसाद सिंह पहले ही भाजपा में शामिल हो चुके हैं। रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा और वीआईपी के मुकेश साहनी को भी एनडीए में शामिल करने के प्रयास जारी हैं।
इन दोनों राज्यों के साथ-साथ भाजपा उत्तर प्रदेश में भी विपक्षी एकता को लेकर सतर्क हो गई है। वहां ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सहित कई छोटे दलों को एनडीए शामिल किया है और हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल को अपने पाले में लाने की कोशिश में जुटी है। यही नहीं उत्तर प्रदेश में भाजपा की सबसे विश्वसनीय साथी रहीं अनुप्रिया पटेल को तरजीह मिली है। इसका कारण अपना दल के दूसरे गुट का विपक्षी एकता में शामिल होना बताया जा रहा है।
दरअसल, विपक्षी एकता से भाजपा की घबराहट का कारण है। 2019 के चुनाव में एनडीए और यूपीए के साथ-साथ एक अन्य गठबंधन भी था और कई पाटियां अलग-अलग राज्यों में सभी गठबंधन से तटस्थ थीं। यही कारण है कि जैसे ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्षी एकता के साथ-साथ वन टू वन मुकाबले की बात की उसके साथ ही भाजपा की परेशानी बढ़ गई। नीतीश कुमार ने जिन पांच राज्यों को सबसे पहले इसके लिए फोकस किया उसमें पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड और बिहार रहा। जहां लोकसभा की (224) 40 फीसद से ज्यादा सीटें हैं। यहां से 2019 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने कुल 128 सीटें जीती थीं और उसके सहयोगी दलों ने 43 सीटों पर कब्जा जमाया था। लेकिन विपक्षी एकता के बाद यहां की तस्वीर अचानक तेजी से बदलती हुई दीखी और सत्ता के अंकगणित को देखते हुए को भाजपा की परेशानी बढ़ने लगी।
विपक्षी एकता के बाद बिहार में जेडीयू, राजद, कांग्रेस और वाम दल का मोर्चा एनडीए के मुकाबले काफी भारी दीखने लगा। पश्चिम बंगाल में टीएमसी के साथ कांग्रेस और वामदलों के साथ आ जाने के कारण भाजपा की हालत काफी कमजोर हो गयी है। महाराष्ट्र, झारखंड और उत्तर प्रदेश में भी फर्क की उम्मीद दिखी। ये पांचों राज्य ऐसे हैं जहां काफी समय से कांग्रेस बहुत कमजोर स्थिति में रही है। लेकिन कांग्रेस की उपस्थिति से क्षेत्रीय दलों को नुकसान होता रहा है। मतों के आपसी विभाजन के कारण भाजपा हमेशा फायदे में रही है। लेकिन विपक्षी एकता के बाद इन पांच राज्यों के अंकगणित बदल गए हैं। विपक्षी दलों के वोट का जो प्रतिशत रहा है उसके आधार पर इन पांच राज्यों से विपक्ष 150 सीट से भी ज्यादा जीत सकता है। कम से कम 100 सीट तो जीतना तय माना जा रहा है। जो लगभग वर्तमान का डबल है। इन पांच राज्यों में यूपीए 224 सीटों में से सिर्फ 14 सीट जीत सका था।
उधर, दक्षिण भारत में कांग्रेस अभी भी बची हुई है। दक्षिण भारत में लोकसभा की कुल 128 सीटें हैं। जिसमें 2019 के चुनाव में यूपीए को 58 सीटें मिली थीं। 2019 के चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा सीटें केरल में मिली थीं। यहां 20 में से 14 सीटें कांग्रेस की झोली में गयी थीं। अब वहां लेफ्ट भी साथ है। तमिलनाडु में कांग्रेस का डीएमके के साथ गठबंधन बना हुआ है और विपक्षी एकता के बाद कई अन्य दल भी साथ आ गए हैं। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जिस तरह से कांग्रेस की वापसी हुई है अगर आंध्र, तेलंगाना सहित इन राज्यों में विपक्ष 70-75 सीटें जीत जाता है तो भारतीय जनता पार्टी के लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी।
विपक्षी एकता के बाद अब असली परीक्षा इसी वर्ष के अंत तक होने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं। जिसमें वर्तमान में कांग्रेस शासित राज्य छत्तीसगढ़ और राजस्थान शामिल हैं। कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में भी पिछले विधानसभा चुनाव में बहुमत हासिल किया था लेकिन टूट के कारण यहां बाद में सरकार बदल गई। अब तेलंगाना में भी चुनाव होना है।
अगर विपक्षी गठबंधन इन 10 राज्यों में 200 सीट भी हासिल कर लेता है, तो बीजेपी के लिए 2024 का चुनाव एकतरफा नहीं रह जाएगा। राजनीति के जानकारों का मानना है कि विपक्षी एकता के कारण, कई राज्यों में जहां भारतीय जनता पार्टी ने एकतरफा जीत हासिल की थी वहां भी विपक्ष सीट प्राप्त करने में कामयाब होगा। 2019 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली सहित कई राज्यों में सभी सीटों पर कब्जा जमाया था। मध्यप्रदेश में भी लोकसभा चुनाव में उसका शानदार प्रदर्शन रहा था। जिसकी उम्मीद इस बार कम दिखती है।
लिहाजा चुनावी अंकगणित में फेरबदल के कारण भारतीय जनता पार्टी को फील गुड से बाहर आना पड़ा है। इसी कारण वह एनडीए को लेकर फिर से मशक्कत कर रही है। खासकर जिन राज्यों में आंकड़े विपक्षी एकता के कारण बदल गए हैं वहां वह अपने लिए नए सहयोगी की तलाश कर रही है। अगर विपक्षी एकता बनी रही तो 2024 का चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए वाटरलू साबित होगा। उनके लिए 2014 और 2019 की तरह सत्ता आसानी से प्राप्त नहीं होगी। लोकसभा में बहुमत के लिए दोनों महागठबंधन से तटस्थ दलों की बड़ी भूमिका हो जाएगी। इसी कारण भारतीय जनता पार्टी अचानक सकते में आ गई है और विपक्ष 9 सालों में पहली बार आत्मविश्वास से लबरेज दीख रहा है।