यथास्थिति से टकराती कविताएँ

1

— विवेक सत्यांशु —

जुझारू चेतना के विनम्र कवि शैलेन्द्र चौहान का कविता संग्रह नौ रुपये बीस पैसे के लिए बहुत संजीदा ढंग से जीवन में बिखरे जंजालों, तकलीफों का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करता है। झकझोरती हुई ये कविताएँ सीधे जीवन से उठते बिम्बों, प्रतीकों के माध्यम से अव्यक्त यथार्थवादी दर्शन को जन्म देती हैं भावबोध की तेजस्विता लिये हुए।

कविता की रसानुभूति एवं रागात्मकता, काव्य के नये सौंदर्य बोध को जीवित रखते हुए यथार्थ के नये प्रतिमानों से वैचारिक अर्थवत्ता को उत्पन्न करती हैं, सूक्ष्म प्रक्रिया से तमाम अंतर्विरोधों को खोलते हुए नयी दृष्टि देती हैं। कविता के स्वभाव को बिम्बों से अर्थ देना नया प्रयोग है किन्तु बार- बार एक ही आस्वादन को दुहराना पुराना प्रतीत होने के साथ बासी एवं मृत भी हो जाता है। इस संदर्भ में शैलेन्द्र चौहान की कविताएँ नयी भावभंगिमा के खोैलते चित्र देने के साथ सृजन की नवीनता कायम रखती हैं। सहज मानवीय संवेदना के नए धरातल देती हैं। यह शैलेन्द्र चौहान की कविताओं का स्वभाव है।

शैलेन्द्र चौहान

इस संग्रह की एक कविता ‘सम्मोहन’ है जो यथार्थ की नयी संवेदना की क्रियात्मक संकल्पना में जवाबदेही उत्पन्न करती है। यह प्रगतिशील अर्थ है –

भीड़ के बीच/ तालियों का शोर/ पैसे दो पैसे पाँच पैसे/देकर जाओ बाबू/ नहीं तो बच्चे का पेट/ कैसे भरेगा?/और कोई शैतान जादूगर कहेगा भरी जेब/ पैसा नहीं दोगे तो/काले खूंटे से बंधी चुड़ेल/ रात में सताएगी।

इस कविता की अन्तिम पंक्तियों में जीवन को हाहाकार बदलती सारी बाजीगरी का विरोध है। अन्तिम पंक्तियाँ इस कविता को चेतना सम्पन्न एवं साकार बनाती हैं –

असली बाजीगर तो/ वो तमाशा दिखाते हैं/ कि लोगों की जेबें/ अपने आप खाली हो जाती हैं/ फिर तब्दील होने लगती हैं झुर्रियों में/ चीथड़ों और लोथड़ों से पटने लगता है/सारा शहर/ बदबू देने लगते हैं जिस्म/ और एक पॉश सभ्यता का जन्म होता है/ जिसका सम्मोहन अब हमें तोड़ना है। (सम्मोहन)

सामाजिक अंतविरोधों की सत्यता शैलेन्द्र चौहान की कविताओं में जहाँ मुखर और तेज होती है वहीं कलात्मक सौंदर्य की गहरी पहचान भी उनमें है। यह वैचारिक सौंदर्यबोध की ईमानदारी एवं प्रासंगिकता है। इस संग्रह की पहली कविता ‘संकल्प’ है जिसमें भूख की तेजस्विता एवं दर्शन की अटूट प्रतिबद्धता है –

सुबह हो चुकी है-/ सूरज तपने लगा है-/ सर पर लकड़ी का गट्ठर लादे हुए एक औरत/ बढ़ रही है शहर की ओर/ खेतों के किनारे-किनारे उसके नंगे पैरों के निशान/ उभर रहे हैं इस विश्वास के साथ/ कि कल की रोटी उसकी मुट्ठी में है/रोटी जो सिर्फ रोटी और कुछ नहीं है/ न संवेदन न फ्रस्ट्रेशन न उच्छवास/ सब कुछ रोटी में समा गया है।

इस कविता में रोटी का जीवंत यथार्थ है जो सहज ही पाठक के मर्म को गहराई से छूता है। शैलेन्द्र चौहान की कविताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता है जो उनकी मौलिक संकल्पबद्धता को टटोलती और खोलती है। उनकी कविताएं वर्तमान व्यवस्था की विसंगतियों, भेदभाव और शोषण का विरोध करती हैं। ज्यादातर लोग इन स्थितियों का विरोध नहीं करते इसी कारण विडंबनापूर्ण स्थितियों को जीते हैं। वे परंपराभंजक नहीं बन पाते।

शैलेन्द्र चौहान की कविताओं में इस व्यवस्था की चरित्रगत कमजोरियों के प्रति आक्रोश है, उत्तेजना है लेकिन एक विवेक और संकल्प के साथ। वे जीवन के प्रति अनास्था नहीं प्रकट करते बल्कि संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं। कवि नरेन्द्र जैन उनकी कविताओं के बारे में लिखते हैं – ‘शैलेन्द्र चौहान की कविताएं आज और अभी के समस्याग्रस्त भारत की ऐसी कविताएं हैं जो जबाबतलब करती हैं, अपराधी तत्वों की तरफ साफ-साफ इंगित करती हैं और शोषितों के पक्ष में उनका एक सुविचारित बयान होती हैं। हमारे देशकाल में व्याप्त यथास्थिति को पूरी शिद्दत से तोड़ने का एक विनम्र प्रयास हैं।’

शैलेन्द्र चौहान की कविताओं का एक अलग तेवर है जो जनजीवन की धड़कती लय से पाठकों का तादात्म्य स्थापित करता है। उनकी कविताएँ आम आदमी की टूटन, अपमान, कुंठा को सशक्त ढंग से खोलती हैं।

इस संग्रह में एक कविता है ‘उसे सोचना चाहिए’। इस पूरी कविता में इतनी मार्मिक और सहज संवेदना है जिसे पढ़कर ही समझा जा सकता है। इसमें एक महरिन का जीवन चरित्र एकदम जीवंत ढंग से चित्रित किया गया है। चंद्रकांता को अपनी विद्रूप जीवनशैली पर गुस्सा आता है क्योंकि उसका जीवन शारीरिक कष्टों और मानसिक वेदना से लबरेज है। उसके पति और मालिक द्वारा उसका और उसके श्रम का शोषण किया जाता है। यह संपूर्ण कविता बहुत यथार्थवादी ढंग से लिखी गयी है । इस कविता का अन्तिम अंश –

उसकी प्रसव वेदना तेज हो जाती है/ वह जिंदगी की तुलना इस वेदना से करती है/ सारी जिंदगी वह इसी पीड़ा से ही तो गुजरती है/ उसे आपरेशन करा लेना चाहिए/ उसे अपनी गरीबी पर गुस्सा आता है/ इस बारे में सोचती है/ सोचना चाहती है/ वह सोचती है/ पर अस्पताल, डाक्टर/ उसे सब यमराज जैसे नजर आते हैं/ पैसे चाहिए सबको, पैसा चाहिए/ उसे लगता है/ गरीबी अमीरी का फर्क मिटना चाहिए।

इस संग्रह से संभावनाओं की आहट को जाना जा सकता है। और इस पर भी विश्वास किया जा सकता है कि शैलेन्द्र चौहान एक संवेदनशील और यथार्थवादी कवि हैं।

किताब : नौ रुपये बीस पैसे के लिए (कविता संग्रह)
कवि : शैलेन्द्र चौहान
मूल्य : रु 249/
प्रकाशक : दृष्टि प्रकाशन, जयपुर

1 COMMENT

  1. शैलेन्द्र चौहान गहन मार्मिक अभिव्यंजना के कवि हैं | उनके कविता संग्रह “नौ रुपये बीस पैसे के लिये” की विवेक सत्यांशु ने सटीक और सारगर्भित समीक्षा की है | विवेक सत्यांशु और समता मार्ग को साधुवाद तथा शैलेन्द्र चौहान को बधाई |

Leave a Comment