गरिमापूर्ण जीवन के लिए मजदूरों को बनना होगा स्वतंत्र राजनीतिक ताकत

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— दिनकर कपूर —

गस्त क्रांति दिवस के अवसर पर 9 अगस्त को सोनभद्र (उप्र) जिले के उप श्रमायुक्त कार्यालय पर केन्द्रीय श्रम संगठनों की तरफ से आयोजित धरने में आदित्य बिड़ला केमिकल्स प्लांट जो पहले कनौरिया केमिकल्स प्लांट के रूप में जाना जाता था, वहां की यूनियन के नेता ने बताया कि इस उद्योग में मात्र 55 स्थायी कर्मचारी रह गए हैं और इतने बड़े कारखाने में सारा काम ठेका प्रथा के जरिए कराया जा रहा है जबकि इस प्लांट में पहले 1000 स्थायी मजदूर काम करते थे।

इसी तरह एशिया के सबसे बड़े अल्मुनियम कारखाने हिंडालको के मजदूरों ने बताया कि यहां भी 10,000 से ज्यादा ठेका मजदूर काम कर रहे हैं और स्थायी कर्मचारियों की संख्या बेहद कम है। यह एक दो उदाहरण नहीं है; संसद से लेकर उद्योगों, सरकारी विभागों, विश्वविद्यालयों तक में बड़े पैमाने पर ठेका प्रथा स्थायी प्रकृति के काम में चलाई जा रही है और पूंजी के द्वारा श्रम शक्ति की बेइंतहा लूट की जा रही है। जबकि ठेका मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) कानून 1970 की धारा 10 स्थायी प्रकृति के काम में ठेका प्रथा को प्रतिबंधित करती है।

इन ठेका मजदूरों को बेहद कम मजदूरी का भुगतान किया जाता है। उत्तर प्रदेश में तो न्यूनतम मजदूरी का पिछले 4 सालों से वेज रिवीजन नहीं किया गया जिससे प्रदेश की मजदूरी दर केंद्र की तुलना में लगभग आधी है। उत्तर प्रदेश के दूसरे बड़े औद्योगिक केन्द्र सोनभद्र में हालत इतनी बुरी है कि कई उद्योगों में न्यूनतम मजदूरी का भी भुगतान नहीं किया जाता है और अनपरा तापीय परियोजना में तो चार-चार महीने तक मजदूरी न देकर संविधान के अनुच्छेद 23 का उल्लंघन कर बॅंधुआ प्रथा चलाई जा रही है। महिला मजदूरों से मनरेगा से भी कम पर, महज 200 रुपये में मजदूरी कराई जा रही है। फलस्वरूप भयंकर महंगाई में मजदूरों को अपना परिवार चलाना बेहद कठिन होता जा रहा है।

सोनभद्र, मिर्जापुर और नौगढ़ के दलित आदिवासी बहुल इस क्षेत्र की आधी से ज्यादा आबादी मजदूर वर्ग में आती है। इनमें ठेका मजदूर के अलावा बड़ी संख्या ग्रामीण, खनन, मनरेगा, निर्माण, घरेलू उद्योग में काम करने वाले मजदूरों, आंगनबाड़ी, आशा, मिड डे मील रसोइया, घरेलू कामगार और रिक्शा चालक व पटरी दुकानदारों आदि की है। यह सभी मजदूर कोरोना महामारी के बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बने ई श्रम पोर्टल पर दो साल पहले पंजीकृत किए गए। लेकिन सरकार ने इन असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए कोई योजना नहीं बनाई। जबकि देश की संसद ने 2008 में इनकी सामाजिक सुरक्षा के लिए केन्द्रीय कानून बनाया है। सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद 2016 में नियमावली बनी जिसे आज तक लागू नहीं किया गया। ऐसे में मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए उत्तर प्रदेश के 100 से भी ज्यादा संगठनों ने मिलकर साझा मंच बनाया है और सरकार से हर पंजीकृत मजदूर को आयुष्मान कार्ड, प्रधानमंत्री आवास, 5 लाख तक का दुर्घटना बीमा, 5000 रु पेंशन, पुत्री विवाह अनुदान आदि देने की मांग की है।

सोनभद्र में स्थापित ज्यादातर उद्योग कारखाना अधिनियम के तहत खतरनाक उद्योग की श्रेणी में आते हैं। इनमें से विशेषकर तापीय परियोजनाओं और खनन व क्रशर उद्योग में सुरक्षा मानकों का पालन नहीं किया जाता है। हाल ही में एनटीपीसी में एक मजदूर की ऊंचाई से गिरकर मौत हो गई। लगातार खनन क्षेत्र में मजदूरों की मौतें होती हैं। अनपरा व ओबरा तापीय परियोजना में मजदूर दुर्घटनाओं में घायल होते हैं और असमय मरते हैं।

दरअसल यहां भी मजदूर के जीवन के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। सुरक्षा के संबंध में जो नियम कानून बने है उनको लागू करने के प्रति आपराधिक लापरवाही बरती जा रही है। उदाहरण स्वरूप माइंस सेफ्टी एक्ट के तहत पत्थर खनन में ब्लास्टिंग के कार्य में एक्सपर्ट व्यक्ति को रखा जाना चाहिए लेकिन यहां के माइंस में वह लोग नहीं हैं। सामान्य सुरक्षा उपकरण हेलमेट, ग्लव्स, मास्क, जूता, सेफ्टी बेल्ट, जाल आदि मजदूरों को नहीं दिये जाते हैं। उत्तर प्रदेश भवन एवं निर्माण कर्मकार कल्याण बोर्ड के अंतर्गत खनन श्रमिक भी आते हैं। जनपद की श्रम बंधु की बैठकों में कई बार हमने इनके पंजीकरण के सवाल को उठाया, डीएम ने निर्देश भी दिया, पर मजदूरों को पंजीकृत नहीं किया गया।

कुल मिलाकर कहा जाए तो संविधान के अनुच्छेद 21 में भारत के हर नागरिक को मिले गरिमापूर्ण जीवन जीने के मौलिक अधिकार को मजदूर वर्ग से छीन लिया गया है और उसे आधुनिक गुलामी की तरफ धकेल दिया गया है।

दरअसल 1991 से जो आर्थिक औद्योगिक नीतियां देशी विदेशी कारपोरेट घरानों को मुनाफा देने के लिए बनाई और चलाई गईं उसने मजदूर वर्ग का बड़ा नुकसान किया है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से पीछे हटते हुए सरकारों ने मजदूरों के संविधान प्रदत्त अधिकारों पर हमले किए और बढ़ती बेरोजगारी के कारण मजदूरों की असुरक्षा बढ़ गई। आजादी के आंदोलन और उसके बाद मजदूरों के पक्ष में बने कानूनों को एक-एक करके खत्म और कमजोर किया गया। वर्तमान मोदी सरकार ने तो सभी 29 श्रम कानूनों को खत्म करके 4 लेबर कोड बना दिए हैं। जिसमें काम के घंटे 12 कर दिए गए हैं। इनके लागू होते ही देश के 33 प्रतिशत श्रमिक काम से निकाल दिए जाएंगे। इससे हालत यह हो जाएगी कि श्रमिक उत्पादन करने में असक्षम हो जाएंगे और बड़े पैमाने पर उत्पादन प्रभावित होगा।

आज देश में हालत यह है कि मोदी सरकार तानाशाही को स्थापित करने के लिए सभी संस्थाओं को बर्बाद करने में लगी है। पूंजीवादी जनतंत्र में ट्रेड यूनियनें भी एक संस्था के बतौर औद्योगिक शांति कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही हैं। संविधान के अनुच्छेद 19 में दिए अभिव्यक्ति की आजादी और संगठन बनाने के अधिकार के तहत ट्रेड यूनियन्स काम करती हैं। वे मजदूरों की समस्याओं को चिह्नित कर पूंजीपतियों, प्रबंधन, शासन, प्रशासन के समक्ष मांगों के रूप में उठाती हैं और उनका लोकतांत्रिक समाधान कराने की कोशिश करती हैं। लेकिन अब उनका स्पेस और बारगेनिंग क्षमता बेहद कमजोर हो गई है। सरकार भी दमन के रास्ते पर है, सामान्य लोकतांत्रिक गतिविधियों की भी इजाजत नहीं दी जा रही है। हाल ही में मंत्री के समक्ष हुए समझौते को लागू कराने की मांग को लेकर हुए बिजली कर्मचारियों के आंदोलन पर उत्तर प्रदेश में दमन ढाया गया। 3000 संविदा श्रमिकों को नौकरी से निकाल दिया गया, इंजीनियरों और कर्मचारियों को सस्पेंड किया गया, उनके वेतन व पेंशन की कटौती की गई और मुकदमे कायम कर उनके ऊपर गिरफ्तारी की तलवार लटका दी गई है।

ऐसी परिस्थियों में गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार को हासिल करने के लिए मजदूर आंदोलन को राजनीतिक गतिविधि तेज करनी होगी। इस या उस पूंजीवादी दल के पीछे भागने की बजाय अपनी स्वतंत्र राजनीतिक ताकत बनानी होगी और अपने को संगठित करते हुए समाज के हर उत्पीड़ित तबके की गोलबंदी करनी होगी। मुझे उम्मीद है कि आने वाले समय में मजदूर वर्ग लोकतांत्रिक राजनीति को खड़ा करने में अहम भूमिका अदा करेगा।

(लेखक यू.पी. वर्कर्स फ्रंट के अध्यक्ष हैं)

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  1. मजदूरों को अपनी स्वतंत्र राजनैतिक बनानी होगी, एकदम सही। लेकिन कौन से मजदूरों को? आज अगर स्थाई मजदूरों की संख्या कम हो रही है और ठेका श्रमिको की संख्या बढ़ रही है, तो इसके लिए मजदूर संगठन भी उतने ही जिम्मेदार है जितनी पूंजीवादी व्यवस्था। कितने स्थापित मजदूर संगठनों ने ठेका श्रमिको को संगठित करने की जहमत उठाई। रेलवे का उदाहरण उठा लीजिए जहां तेजी से ठेका श्रमिक बढ़ रहे हैं। और मजदूर संगठनों की कमी नहीं। और ठेका श्रमिक तो अभी भी बहुत कम हैं। देश की सबसे ज्यादा जन शक्ति तो कैजुअल लेबर की श्रेणी में आती है जहां कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट भी लागू नहीं होता। कोई श्रम कानून लागू नहीं होता और हम इस बात का रोना रोएं की सरकार ने लेबर कोड बना दिए। इन मजदूरों को संगठित करने की जिम्मेदारी किसकी है?

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