चंद्रमिशन की सफलता पर झूमते भारत के अंतर्विरोध

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— सत्यनारायण साहु —

जैसे ही, 23 अगस्त को, विक्रम लैंडर चंद्रमा की ओर बढ़ा, करोड़ों भारतीय, और भारत से बाहर भी बहुत-से लोग, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का चंद्रयान-3 मिशन का सीधा प्रसारण टकटकी बॉंधे देख रहे थे। दॉंतों तले उंगली दबाने के लिए मजबूर कर देनेवाली वह शाम, जब विक्रम ने सॉफ्ट लैंडिंग की, कड़ी प्रतिस्पर्धा वाली थी। अमरीका, रूस (पूर्व सोवियत संघ सहित) और चीन पहले ही चंद्रमा पर अपने अंतरिक्ष यान उतार चुके हैं। अब इस ग्रुप में भारत भी शामिल हो गया है। लेकिन चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग की उपलब्धि हासिल करने वाला भारत अकेला देश है, जहाँ अनगिनत प्रयासों के बावजूद कोई देश इससे पहले नहीं पहुंच पाया था।

इस असाधारण सफलता का श्रेय सबसे पहले इसरो के प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों को जाता है, जिन्होंने बहुत कम लागत में, महज 615 करोड़ रु में यह कर दिखाया। श्रेय उन सब के विज़न और समर्पण को भी जाता है जिन्होंने पूर्व के दशकों में ही यह सोच लिया था कि भारत को अंतरिक्ष में छलांग लगानी चाहिए। बहुतों ने अंतरिक्ष यात्रा को मानवता के लिए एक उपलब्धि के रूप में देखा, न कि राष्ट्रीय अभिमान की तुष्टि के रूप में।

ठीक इन्हीं वजहों से, जैसे ही चंद्रयान-3 ने चंद्रमा की सतह को छुआ, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू याद आए। कोई सहज ही कल्पना कर सकता है कि अगर नेहरू 23 अगस्त के उन क्षणों के गवाह बनते, जब भारत ने अंतरिक्ष के अनंत आयामों में मानवता के दुष्कर तथा निरंतर जारी साहसिक अभियानों की नयी संभावना के द्वार खोले, तो उन्हें अपार खुशी होती।

स्पुतनिक युग में नेहरू

उन्नीस सौ पचास के दशक में अंतरिक्ष युग शुरू हुआ, लेकिन जिन्होंने उस समय भारत को इस क्षेत्र में कुछ कर दिखाने के लिए तैयार किया, उन्हें आज की उपलब्धियों का श्रेय नहीं दिया जाता। चंद्रयान मिशन-3 के लक्ष्य पर पहुॅंचने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो भाषण दिया उसमें इस बात का कोई जिक्र नहीं था कि यह उपलब्धि अचानक हासिल नहीं हुई है बल्कि दिग्गजों की बदौलत हम यहाँ तक पहुँचे हैं। वह ‘न्यू इंडिया’ की उड़ान के बारे में बोले, जो कि उनका एक राजनीतिक नारा है। जहाँ वह इस चंद्रमिशन की सफलता का श्रेय केवल अपनी सरकार को देते हैं, वहीं वह शायद यह भी मानकर चलते होंगे कि ऐसे अभियानों का हासिल सीमित ही रहेगा।

अगर हम स्पुतनिक युग के आरंभिक दिनों को याद करें, जब भारत को स्वाधीनता हासिल किये ज्यादा वक्त नहीं हुआ था, अंतरिक्ष की थाह लगाने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। इस दिशा में पहला कदम सोवियत संघ ने उठाया, जब उसने पहला आर्टिफिशियल अर्थ सैटेलाइट स्पुतनिक-1 अक्टूबर 1957 में, और दूसरा, स्पुतनिक-2 नवंबर 1957 में लांच किया। स्पुतनिक-3 भी उतनी ही अहम उपलब्धि थी जिसे मई 1958 में लांच किया गया। और लगभग तभी, 31 जनवरी 1958 को, अमरीका ने एक्सप्लोरर-1 नाम से एक आर्टिफिशियल सैटेलाइट लांच किया।

तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने विज्ञान के क्षेत्र में एक रुझान तय करने वाले इस घटनाक्रम को नजरअंदाज नहीं कर दिया, इस कारण से कि भारत इन प्रयासों में शामिल नहीं है, या उनकी सरकार इन परियोजनाओं में हिस्सेदार नहीं है। इसके बजाय उन्होंने अगस्त 1958 में “बुनियादी दृष्टिकोण” (बेसिक एप्रोच) शीर्षक से एक नोट लिखा जिसमें उन्होंने सोवियत संघ के प्रयासों को “…विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में महान और जोरदार कामयाबी” बताया।

नेहरू उस संदर्भ को नहीं भूल सकते थे जिसमें ये घटनाएँ हो रही थीं। बावजूद इसके कि एक के बाद अनेक देशों ने उपनिवेशवाद का जुआ उतार फेंका, उस नोट में उन्होंने यह संज्ञान लिया कि मानवता “मानसिक जड़ता में” जकड़ी हुई है। उन्होंने लिखा कि जैसे ही मनुष्य भौतिक संसार को जीतने की ओर बढ़ा, वह स्वयं को जीतने में नाकाम हुआ। वह और बातों के अलावा इस तरफ इशारा कर रहे थे कि, वर्तमान और भविष्य में होने वाले खतरे मालूम होते हुए भी, एटमी परीक्षण किये जा रहे हैं और विनाशकारी हथियारों के ढेर लगाये जा रहे हैं। उसी नोट में वह गरीब देशों में विकास के लिए होने वाली जद्दोजहद पर भी विचार करते हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चंद्रयान-3 की लैंडिंग को जिस तरह लिया, वह यह दर्शाता है कि भारत के पास इतिहास की तथा दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य की समझ का अभाव है। भारत चॉंद पर पहुँच गया है और इस उपलब्धि का जश्न मना रहा है, लेकिन लोगों के लिए यह जानना भी जरूरी है कि विज्ञान और विकास के लिए यह कामयाबी क्या मायने रखती है। पृथ्वी ग्रह से बाहर देश का झंडा फहराने से किसी रणनीतिक उद्देश्य की पूर्ति हुई है, या इसका कुछ और भी अर्थ है?

निश्चित रूप से, चंद्रयान-3 से एक नया युग आरंभ हुआ है, जिसके प्रवर्तक भारत के अंतरिक्ष वैज्ञानिक हैं। जिस चीज की कमी खलती है वह यह कि कोई ऐसा राजनेता नहीं है जो नारों से आगे जाकर देश को पुनः याद दिला सके कि यह कामयाबी “नस्ल, जाति और वर्ग की हमारी संकीर्णताओं से छुटकारा दिलाने में सहायक होनी चाहिए।”

पहले के सभी प्रधानमंत्री अंतरिक्ष को मानवता के लिए नयी संभावनाओं के रूप में देखते थे और विज्ञान को सितारों की तरफ बढ़ते हुए देखकर जहाँ उन्हें अपार खुशी होती थी, वहीं वे देश में संकुचित सोच के प्रति आगाह करना नहीं भूलते थे। लेकिन लगता है प्रधानमंत्री मोदी को यह भान नहीं है कि बहुसंख्यकवाद, नफरत और कट्टरता देश में पीड़ा, हिंसा और खूनखराबे का सबब बन रहे हैं।

‘बुनियादी दृष्टिकोण’ शीर्षक नोट लिखने से पॉंच महीने पहले, 26 मार्च 1958 को, नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में सोवियत संघ और अमरीका द्वारा अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले उपग्रहों का जिक्र किया था। वह जानते थे कि दुनिया धीरे-धीरे “एक नये युग की तरफ, एक ग्रह से दूसरे ग्रह की यात्रा की तरफ बढ़ रही है।” उन्होंने लिखा, “फिर भी हम हर तरह की राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता और हर तरह के राष्ट्रीय टकराव में फॅंसे हैं, जिसका इस नये युग में कोई अर्थ नहीं है।”

संकीर्ण सोच बनाम ब्रह्माण्डीय दृष्टि

भारत सरकार ने काफी पहले, 1962 में, इंडियन नेशनल कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च (आईएनसीओएसपीएआर) का गठन किया था। (विक्रम साराभाई के आग्रह पर प्रधानमंत्री ने नेहरू ने यह कमेटी गठित की थी।) नेहरू ने नयी दिल्ली में एअरो क्लब का उदघाटन-भाषण भी दिया था। 4 दिसंबर 1958 को दिये उस भाषण में उन्होंने कहा था कि दुनिया जेट युग से पहले ही अंतरिक्ष युग का संकेत दे रही है। वह चाहते थे कि भारत अपनी अनिवार्य प्रगति के लिए “इस वैज्ञानिक और तकनीकी युग से अपना तालमेल बिठाये।”

2 अक्टूबर 1958 को राजस्थान विश्वविद्यालय में एक पुस्तकालय का उदघाटन करते हुए नेहरू ने कहा था, “इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी ने कुछ भेजा है और वह चंद्रमा पर पहुॅंचा है। वह सोवियत संघ की चंद्र परियोजनाओं की तरफ इशारा कर रहे थे।” उस समय लूना-3 चंद्रमा के चारों ओर चक्कर लगा रहा था और जल्दी ही उसने पहले फोटोग्राफ भेजे, चंद्रमा के उस हिस्से के, जो दीखता नहीं। तब तक साराभाई की अध्यक्षता में आईएनसीओएसपीएआर का गठन नहीं हुआ था, जोकि इसरो की पूर्ववर्ती संस्था थी।

नेहरू युग के बड़े कामों में से एक यह है कि विज्ञान और तकनीकी में निष्णात लोगों की एक बड़ी जमात तैयार हुई जिन्हें नये ब्रांड संस्थानों में प्रशिक्षित और पारंगत करने का भार देश ने उठाया। ‘न्यू इंडिया’ के भक्त कम से कम इतना तो कर सकते हैं कि उस योगदान को स्वीकार करें।

अंतरिक्ष युग में अंधविश्वास को नकारें

नेहरू के शब्दों में, वैज्ञानिक क्रांतियाँ और खोजें जो चंद्रमा की तरफ साहसिक अभियानों में ले गयीं, बड़ी क्रांतियाँ थीं जिन्होंने दूसरे क्षेत्रों में निरंतर हो रहे परिवर्तनों की पृष्ठभूमि तैयार की। अगर एक अंतरिक्ष यान चंद्रमा पर पहुँच सकता है तो राष्ट्र और समाज इस तारामंडल और अन्य ग्रहों के बारे में अपने पुराने विश्वासों को तिलांजलि क्यों नहीं दे सकते? उनका इशारा इस तरफ था कि एकदम सामान्य खगोलीय घटनाओं, जैसे कि चंद्रग्रहण, के समय, लोग एक पैर पर खड़े रहते हैं, या नदी में स्नान करते हैं, चंद्रमा के नष्ट होने जैसे बुरे परिणाम की कल्पना करके।

नेहरू ने तंज कसते हुए कहा था, “अच्छा होगा कि लोग चंद्रमा को बचाने से पहले स्वयं को बचाने की कोशिश करें।”

उनकी निगाह में चंद्रमा पर पहुँचना इस बात का एक अवसर है कि भारत अंधविश्वासों से छुटकारा पाए जो तरक्की के आड़े आते हैं और वैज्ञानिक खोज तथा तकनीकी उन्नति को सीमित करते हैं। आज जो लोग देश को चला रहे हैं, क्या उनका भी यही नजरिया है? ज्यादा वक्त नहीं हुआ, जब भारत के सत्तासीन वर्ग ने भारतीयों को यह विश्वास करने के लिए प्रोत्साहित किया था कि गणेश जी की निर्मिति प्लास्टिक सर्जरी से हुई थी, और यह कि मंत्रपाठ करके और थाली बजाकर कोरोना को भगाया जा सकता है। अगर यह नजरिया दक्षिणपंथी खेमे का अब नहीं है, तो इस सरकार ने वैज्ञानिक मनोवृत्ति को आगे बढ़ाने में क्या योगदान किया है? भारत के लोगों को यह सवाल जरूर पूछना चाहिए, क्योंकि उन्हें उत्साहित किया गया है कि विक्रम के चंद्रमा पर पहुँचने का जश्न मनाऍं, बिना यह जाने कि इसके क्या लाभ होंगे।

अच्छी बात है कि कुछ लोगों ने यह बताने की जहमत उठाई है कि क्यों चंद्र मिशन अंतरिक्ष विजय की संभावना का द्वार खोल सकते हैं। फिर भी, भारत में वैज्ञानिक समुदाय और लोगों ने अभी इस बात की पड़ताल नहीं की है कि अंतरिक्ष नीति और चंद्रयान-3 की सफलता के बीच क्या संबंध है। यह मानवता की भलाई की प्रेरणा से निर्देशित होना चाहिए, या अन्य उद्देश्यों और लक्ष्यों से?

इस संदर्भ में, यह उपयोगी होगा कि नेहरू के उस संदेश पर फिर गौर फरमाएं, जो उन्होंने चंद्रमा पर सोवियत संघ का अंतरिक्ष यान पहुँचने के बाद, बधाई देते हुए 16 सितंबर 1959 को निकिता ख्रुश्चेव को भेजा था। उन्होंने इसे “मानवता के लिए और खासकर सोवियत वैज्ञानिकों के लिए शानदार उपलब्धि” कहा था। उन्होंने लिखा था, “हो सकता है, यह इससे भी बड़ी उपलब्धियों तथा पृथ्वी पर शांति व सद्भाव की स्थापना की भूमिका साबित हो।”

भारत को और भी बुलंदियों पर ले जाने के लिए इसरो वैज्ञानिकों की कई पीढ़ियों ने अपना जीवन समर्पित किया है, लेकिन लगता नहीं कि मौजूदा सरकार के पास कोई दूरदृष्टि है। अन्यथा इसके नेतागण चंद्रमा पर पहुँचने और देश के अनेक हिस्सों में नस्ल, धर्म व अन्य पहचान के नाम पर हो रही हिंसा के अंतर्विरोध का संज्ञान लेते और इस हिंसा की निन्दा करते।

(लेखक राष्ट्रपति के आर नारायणन के विशेष कार्याधिकारी रह चुके हैं)

अनुवाद : राजेन्द्र राजन

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