बहुरि हम काहे को आवै

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पेंटिंग- पारस परमार
पेंटिंग- पारस परमार

Ram Prasad bhairav
— रामजी प्रसाद ‘भैरव’ —

बीर ने बहुत पहले सबको बता दिया, समझा दिया, जता दिया कि यह संसार नश्वर है। फिर भी लोग चेतने के लिए तैयार नहीं हैं। अपनी अपनी लिप्सा में जी रहे हैं। स्वार्थ में जी रहे हैं। लालच में जी रहे हैं। दम्भ और पाखंड में जी रहे हैं। उनका जीना कुछ इस तरह है, जैसे अमर हैं। उनके मुँह से निकलने वाली वाणी पत्थर की लकीर है। उनके कर्म दुनिया को मोड़ देने के लिए हैं। वे स्वयंभू हैं। सत्ता के पोषक हैं। शोषक हैं। यह कितना बड़ा भरम है। लोग यह भरम क्यों नहीं निकालना चाहते। क्या कबीर का समझाना पानी पर लकीर पीटने के बराबर है।नहीं, बिल्कुल नहीं। कबीर का चिंतन निरर्थक नहीं है। सार्थक है। वो जानते हैं, जो संसार से एक बार विदा हुआ उसे फिर नहीं आना है। यदि आना है तो चौरासी लाख योनियों के चक्कर काट कर आना है। और फिर क्या गारंटी है, उसे फिर मनुष्य जीवन ही मिलेगा। पूजापाठ, छापा, तिलक, सब व्यर्थ है । फिर भी लोग कर रहे हैं और करते रहेंगे। उनके कान के सुराख से कबीर की बातें जाने कब की निकल चुकी हैं। कबीर की बातों का लोगों के जीवन से निकल जाना इस बात का द्योतक है कि कबीर का बार बार चेताना व्यर्थ हो गया।

सबने बचपन में कबीर को पढ़ा है। यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है। कागद पानी पड़ने से गल जाता है। उसका अस्तित्व मिट जाता है। जीवन कुछ ऐसा ही है। सेमल के फूल जैसा, खूब चमक दमक वाला लेकिन बस चार दिनों के लिए। आदमी खाया पीया, मौज किया, और एक दिन संसार से कूच कर गया। चुपचाप, बिना किसी पहचान के। बिना किसी निशान के।

मैं कबीर से मिलने मगहर गया। वे चुपचाप सोये थे। कुछ नहीं बोले, जितना कहना था, कह चुके, जितना बोलना था, बोल चुके। जितना चेताना था, चेता चुके। वे लगभग साठ दशकों से चुप हैं। उसी आमी नदी के तट पर। कुछ ने समाधि बनाई तो कुछ ने मज़ार, दोनों पर चढ़ावा चढ़ता है। कुछ लोग अपने परिवार का पेट भरते हैं। कबीर की वाणियां दीवारों की सुंदरता बढ़ाने के लिए हैं। जो आते हैं उनके बारे में अच्छी अच्छी बातें करते हैं। और थोड़ी देर में कबीर को भूल जाते हैं। अपनी अपनी गाड़ियों में बैठ कर चले जाते हैं। कबीर जान चुके उन्हें चेताने का कोई मतलब नहीं, इसलिए चुप हैं। कम लोग जानते हैं, कबीर मरे नहीं सोये हैं। कबीर मर नहीं सकते। हम न मरौ मरिहै संसारा, हमकू मिलै जियावन हारा। हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं, हरि न मरिहैं तो हम काहें कू मरिहैं।

कबीर ने शरीर को वस्त्र कहा, ठीक ही कहा, यह वस्त्र ही तो है। वस्त्र साफ-सुथरा हो तो किसे अच्छा नहीं लगता। वस्त्र पर दाग, अशोभनीय है। वस्त्र को साफ रखना जिम्मेदारी है। वह चरित्र की व्याख्या करता है। सब अपने अपने हिसाब से वस्त्र को धवल बनाने का जतन करते हैं।

कोई लाख जतन करे, पर एक दाग वस्त्र पर लग ही जाता है। कुछ के वस्त्र दाग, धब्बों से भरे होते है। बदसूरत और बेढ़ब लगने वाले दाग, मनुष्य को कलंकित करते हैं। कलंक का रंग काला होता है। गहरा होता है। न छूटने वाला होता है। उसे कोई साबुन नहीं छुड़ा सकता। दाग छूटना होगा तो बिना साबुन ही छूट जाएगा लेकिन इसके लिए उन्हें कबीर के पथ पर चलना पड़ेगा। दास कबीर ने ऐसी ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया।

लोग कबीर की तरह ही क्यों नहीं ज्यों की त्यों रख देते हैं। क्या कठिनाई है। क्यों मैली करने पर उतारू रहते हैं। क्या वो नहीं जानते जिस वस्त्र की बात कबीर कर रहे हैं उसे स्वच्छ या मैला मनुष्य के कर्म ही करते हैं। तो अपने कर्म पवित्र क्यों नहीं रखते। क्या यह आसान बात नहीं है। कठिन है। दुष्कर है। मैं समझता हूँ यह साधना की नहीं, जानने की बात है। कबीर ने जो जीवन भर जनाया, क्या लोग उसे जान पाए। नहीं, यह आसान बात नहीं है। उनके लिए तो बिल्कुल नहीं, जो संसारिकता के मोह में फँसे हैं ।

कबीर कहते हैं विकट पंथ बहु मार। तुम्हारे मार्ग में विभिन्न छद्म वेश भूषा में जो ठग बैठे हैं वही नहीं चाहते कि तुम वस्त्र को ज्यों की त्यों रख दो। ईर्ष्या, लालच, दम्भ , पाखण्ड ही असली ठग है। वो मनुष्य को चैन से रहने नहीं देते। वो तुम्हारे वस्त्र मैली करने पर उतारू हैं। बचना तुम्हें है। कैसे बचते हो ये तुम जानो। कबीर को जो कहना था कह चुके। इस कार्य में कबीर खुद को भाग्यशाली मानते हैं, हम घर आये राजा राम भरतार। भाग बड़े घर बैठे आये। भरतार माने भर्ता, अर्थात जो भरण पोषण करे। लोग तो भरतार का अर्थ पति लगाते हैं। ऐसा साधारण बुद्धि के सांसारिक लोग लगाते हैं। उसका आध्यात्मिक अर्थ भिन्न है।

संसार को लयबद्ध चलाने का दायित्व तीन दिव्य शक्तियों को है। ब्रह्मा जी जन्मदाता हैं , विधिज्ञ हैं, लोगों का भाग्य लिखते हैं। विष्णु जी भर्ता हैं, वह संसार का भरण-पोषण करते हैं। और शिव जी, संहारक हैं। कल्पान्त में प्रलय कर सृष्टि का संहार कर देने वाले देवता। यह सारी बातें शास्त्र सम्मत हैं। कबीर जिस भर्ता की बात कर रहे हैं वह कोई सांसारिक व्यक्ति नहीं है बल्कि संसार का भरण पोषण करने वाले विष्णु कलांश राम हैं। अब कबीर के राम और दशरथ सुत राम में अंतर है। कबीर जिस राम की बात करते हैं वह निर्गुण और निराकार है। सकल जहान के पोषक हैं। दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना।

बहुत साल पहले अखबार में पढ़ा था, कबीर चौरा मठ से कबीर की माला चोरी हो गयी। हो सकता यह सच हो। परन्तु शंका तो मन में उठती ही है। कबीर कहते हैं – माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर। कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर।

हाथ की माला के प्रति विरोध का स्वर मुखरित करने वाले कबीर क्या सचमुच माला फेरते थे। सब जानते हैं कबीर अजपा जाप के पक्षधर थे, जिसमें माला का कोई काम नहीं। आडम्बरों का खुला विरोध करने का माद्दा केवल कबीर में था। उनके लिए हिन्दू और मुस्लिम होना कोई मायने नहीं रखता था। वे इंसानियत की परिभाषा गढ़ने वाले सन्त थे। यदि उन्होंने हिंदुओं को फटकारा तो मुस्लिमों को कम नहीं लताड़ा। कबीर अंधविश्वास और रूढ़ियों के प्रबल विरोधी थ। रूढ़ियों और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ने की शक्ति, आत्मशक्ति के बल पर आती है। इसलिए कबीर घोषणा करते – जो घर फूंकें आपणों, चले हमारे संग। क्या कबीर के संग हर कोई चल सकता है। नहीं, यह सम्भव नहीं है। पहले तो कबीर के अनुसार उसे अपना घर फूंकना पड़ेगा। अब फूंकने का अर्थ आग लगाना नहीं है बल्कि घर के दायित्वों के प्रति निश्चिंत हो जाना है। जो हर कोई नहीं हो सकता। कोई कोई हो सकता है। यह कोई कोई ही कबीर के संग लग सकता है।

कबीर कहते हैं बहुरि हम काहें को आवै। वह पुनः जगत में आना नहीं चाहते। जिसने ब्रह्म को जान लिया, समझ लिया, परख लिया, उसका क्या आना, वह क्यों आएगा।
कबीर कहते है – पंखी उड़ानी गगन कू , प्यंड रहा परदेश। पानी पिया चंच बिनु, भूल गया यह देश ।।

जब पक्षी देश छोड़़कर एक बार उड़़ गया तो उड़़ गया। पुनः पिंजरे में कैद होने क्यों आएगा। उसका पिंड यानी शरीर परदेश में पड़ा है। जो कल तक देश था, आज परदेश है। कबीर को समझ आ गया। यह उसका वास्तविक देश नहीं है। वास्तविक देश तो वह है जहाँ वह पहुंचा है। और मजे की बात यह है बिना चोंच के जी भर के पानी पी लिया। यह पानी सांसारिक लोगों के पीने का पानी नहीं है। सांसारिक लोग तो शरीर से पानी पीते हैं। शरीर के लिए पानी पीते हैं। यह पानी दर्शन रूपी अमृत जल है। जिसे कबीर छक कर पीते हैं। उनकी आत्मा जुड़ा गयी। तर गयी। मस्त हो गयी। चेत गयी। मुक्त हो गयी। जो एक बार मुक्त हो गया उसे बन्धन क्यों भायेगा। संसार मैं मेरा का बंधन ही तो है।

संसार शरीर के प्रति मोह पैदा करता है। मोह दुखों की जननी है। कबीर दुखों से मुक्त हो चुके हैं , वह पुनः दुख उठाने क्यों आएंगे। इसलिए साफ साफ कह देते हैं। बहुरि हम काहे को आवै।

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