क्या है महिला आरक्षण बिल और इसका इतिहास

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— सोनिया यादव —

संसद का पांच दिनों का विशेष सत्र गत सोमवार से शुरू हुआ। सत्र शुरू होने से पहले कई विपक्षी दलों ने महिला आरक्षण बिल को लेकर मांग तेज़ की। उनकी लगातार मांग और दबाव के बाद आखिरकार इस बिल को केंद्रीय कैबिनेट की मंज़ूरी मिल गई। वर्षों से इसकी मांग की जा रही थी। आइए जानते इस बिल का इतिहास।

क्या है महिला आरक्षण बिल?

महिला आरक्षण बिल संविधान के 108 वें संशोधन का विधेयक है। इसके अंतर्गत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों पर आरक्षण का प्रावधान रखा गया है। इसी 33 फीसदी में से एक तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित की जानी हैं। जिस तरह से इस आरक्षण विधेयक को पिछले कई सालों से बार-बार पारित होने से रोका जाता रहा है या फिर राजनीतिक पार्टियों में इसे लेकर विरोध है इसे देखकर यह लगता है कि शायद ही यह कभी संसद में पारित हो सके। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा से पारित होने के बाद लोकसभा में सालों से लंबित पड़ा है। राष्ट्रीय राजनीतिक दल भी बहुत कम संख्या में महिला उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिये टिकट देते हैं।

क्यों हुआ विरोध?

2010 में यूपीए सरकार ने इसे राज्यसभा में पास तो करा दिया था लेकिन लोकसभा में इसकी राह कठिन हो गई। यूपीए के पास पर्याप्त संख्याबल था लेकिन समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और बहुजन समाज पार्टी ने इस विधेयक का विरोध किया।

इस विधेयक का विरोध करने वालों का कहना है कि इसके पारित हो जाने से देश की दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में कमी आएगी। उनकी मांग है कि महिला आरक्षण के भीतर ही दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़ा वर्ग की महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की जाएं। इसी के साथ-साथ एक तर्क यह भी है कि इस विधेयक से केवल शहरी महिलाओं का प्रतिनिधित्व ही संसद में बढ़ पाएगा। इसके बावजूद यह एक दिलचस्प तथ्य है कि किसी भी दल से महिला उम्मीदवारों को चुनाव में उस अनुपात में नहीं उतारा जाता, जिससे उनका प्रतिनिधित्व बेहतर हो सके।

बिल का इतिहास

साल 1975 में ‘टूवर्ड्स इक्वैलिटी’ नाम की एक रिपोर्ट आई। उस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। इस रिपोर्ट में हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति का विवरण दिया गया था और आरक्षण पर भी बात की गई थी। राजनीतिक इकाइयों में महिलाओं की कम संख्या का ज़िक्र करते हुए रिपोर्ट में पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिये सीटें आरक्षित करने का सुझाव दिया गया।

– इसके बाद 1993 में संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के तहत पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गईं।

– साल 1996 में महिला आरक्षण विधेयक को पहली बार एच.डी. देवगौड़ा सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया। लेकिन इस गठबंधन सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद महिला आरक्षण के विरोधी थे। इस बिल के बाद देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गई और 11वीं लोकसभा को भंग कर दिया गया।

– जून 1997 में एक बार फिर इस विधेयक को पास कराने का प्रयास हुआ। उस वक़्त शरद यादव ने इस विधेयक की निंदा करते हुए एक विवादास्पद टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था, ‘परकटी महिलाएं हमारी महिलाओं के बारे में क्या समझेंगी और वो क्या सोचेंगी।’

– साल 1998 में 12वीं लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में एन थंबीदुरई (तत्कालीन क़ानून मंत्री) ने इस विधेयक को पेश करने की कोशिश की। लेकिन गठबंधन की मजबूरियों और भारी विरोध के बीच यह लैप्स हो गया।

– इसके बाद एनडीए की सरकार ने दोबारा 13वीं लोकसभा में 1999 में इस विधेयक को पेश करने की कोशिश की। लेकिन सफलता नहीं मिली। साल 2002 तथा 2003 में इसे फिर लाया गया, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात।

– 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण से जुड़ा 108वां संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश किया।

– इसके दो साल बाद 2010 में तमाम राजनीतिक अवरोधों को दरकिनार कर राज्यसभा में यह विधेयक पारित करा दिया गया। उस दिन पहली दफ़ा मार्शल्स का इस्तेमाल हुआ, जिसका इस्तेमाल पहले की सरकारें भी कर सकती थीं लेकिन उन्होंने नहीं किया था। उस दिन अच्छी खासी चर्चा हुई और यह विधेयक राज्यसभा में पारित हो गया।

– इस बिल के लिए कांग्रेस को बीजेपी और वाम दलों के अलावा कुछ और अन्य दलों का साथ मिला। लेकिन लोकसभा में 262 सीटें होने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार विधेयक को पारित नहीं करा पाई।

– इस विधेयक को राज्यसभा में इस मक़सद से लाया गया था कि अगर यह इस सदन में पारित हो जाता है तो इससे उसकी मियाद बनी रहे। लोकसभा में अब भी महिला आरक्षण विधेयक पर लुका-छिपी का खेल चल रहा है और सभी राजनीतिक दल तथा सरकार इस पर सहमति बनाने में असमर्थ दिखाई दे रहे हैं।

– महिला आरक्षण सभी राज्यों की विधायिकाओं पर भी लागू होना है इसलिए इसे आधे राज्यों की विधानसभाओं की भी सहमति लेनी पड़ेगी। भाजपा और कांग्रेस दोनों इस बिल से सहमत होने की बात करते हैं। ऐसे में भला सरकार को क्या ही दिक्कत होगी।

पक्ष-विपक्ष

2010 में ऊपरी सदन राज्यसभा में दो दिनों तक चले विरोध, शोर शराबे और हंगामे के बाद भारी बहुमत से महिला आरक्षण विधेयक पारित हुआ था। इस विधयेक के पक्ष में 186 सदस्यों ने वोट दिए जबकि विरोध में केवल एक ही मत पड़ा था। बहुजन समाज पार्टी के सांसद इस विधेयक के मौजूदा स्वरूप का विरोध करते हुए मतदान के समय सदन से बाहर चले गए थे।

उस समय जनता दल (युनाइटेड) के नेता शिवानंद तिवारी का कहना था कि वो चाहते हैं कि आरक्षण के बीच आरक्षण हो। उनका कहना था, ‘मुसलमानों के मन में ये आशंका है कि उन्हें उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है, उन्हें लगता है कि महिलाओं का आरक्षण होने से मुसलमान सांसदों की संख्या और कम हो जाएगी।’

इससे पहले महिला आरक्षण विधेयक का विरोध कर रहे नेता लालू यादव, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव ने भी मुस्लिम, दलित और पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए भी आरक्षण की मांग की थी।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नेता वृंदा करात के अनुसार इस विधेयक के पारित होने से देश का लोकतंत्र और मज़बूत होगा। करात का कहना था कि उन्हें ये सुनकर बेहद दुख होता कि आरक्षण से महिलाओं के एक विशेष वर्ग को ही फ़ायदा होगा। इस क़ानून के बनने के साथ ही भारत में स्थिति बदलेगी क्योंकि यहां की महिलाएं अब भी सांस्कृतिक पिंजरे में क़ैद हैं। संस्कृति और परंपरा के नाम पर हमें हर रोज़ संघर्ष करना पड़ता है।

इस मुद्दे पर कांग्रेस की नेता जयंति नटराजन का कहना था कि जो लोग दलितों के आरक्षण के नाम पर इस बिल का विरोध कर रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि दलितों को पहले से ही आरक्षण मिला हुआ है। नटराजन ने कहा कि किसी और पार्टी के अंदर लोगों को किया हुआ यह वादा पूरा करने की हिम्मत नहीं थी।

हालांकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी कई बार कह चुके हैं कि मोदी सरकार बहुमत की सरकार है और वो महिला आरक्षण बिल लेकर आए, कांग्रेस उसका समर्थन करेगी।
(sabrangindia से)

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