हिन्दी दिवस विशेष

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Pankaj Mohan

— पंकज मोहन —

हिन्दी साहित्य की सबसे बडी सेवा उन साधकों ने की जिन्होंने लोक और शास्त्र के अन्तरावलम्बन को समझा है और हिन्दी साहित्यालोचन का पथ उन मनीषियों ने प्रशस्त किया है जिन्होने हिन्दी के साथ-साथ सामान्य रूप से विश्व साहित्य और विशेष रूप से संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला साहित्य (जिससे हिन्दी लेखक किसी न किसी रूप में प्रभावित हुये हैं) का विधिवत अध्ययन किया है। हिन्दी में आज जयशंकर प्रसाद और निराला जैसा कवि क्यों नहीं है, प्रेमचंद जैसा उपन्यासकार क्यों नहीं है, रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसा लेखक और समीक्षक क्यों नही है? हिन्दी दिवस के अवसर पर इस विषय पर सोचने की जरुरत है। द्विवेदी जी ने एक जगह लिखा है, “इतना आप गांठ बांध लीजिए कि जिस दिन मनुष्य मान लेगा कि उसने सब रहस्य जान लिये हैं उस दिन वह हार जायगा । रहस्य की जिज्ञासा ठीक है, पर अपनी जानकारी को ही सब कुछ मान लेना ठीक नहीं है।” आज साहित्यिक और विद्वान जिज्ञासा-प्रेरित साधना से अधिक मान-सम्मान की देवी की आराधना में ज्यादा व्यस्त दिखते हैं। शायद यही कारण है कि पिछले पचास वर्षों में हिन्दी में विश्व स्तर की कृति नहीं लिखी गयी।

“इस विराट् विश्व में पृथ्वी कितनी नगण्य वस्तु है, इस पर के ये मनुष्य। हाय हाय, ये जब सेना साज कर विश्व-विजय करने निकलते हैं तो न जाने अपने को क्या समझते हैं? आपने चींटियों की लड़ाइयां देखी हैं? उनका भी तो कोई विश्व-विजय का लक्ष्य होता होगा, उनके भी तो चर्चिल और हिटलर होते होंगे। मनुष्यों की विजय-लालसा क्या उनसे बहुत अधिक बड़ी होती है? लेकिन मनुष्य को मैं छोटा नहीं कहता। मैं उसके दम्भ को छोटा कहना चाहता हूँ। मनुष्य कैसे छोटा हो सकता है। इतनी-सी पृथ्वी पर बैठ कर इतना अदना होते हुए भी वह लाख-लाख प्रकाश वर्षों में व्याप्त महान् ब्रह्माण्ड को जान तो रहा है, और भी अधिक जानने को उत्सुक तो है। यह जिज्ञासा क्या मामूली जिज्ञासा है। क्यों नहीं मनुष्य अपनी इस महिमा पर जोर देता?

“निस्सन्देह, मनुष्य बहुत कम जानता है, पर वह हार माननेवाला प्राणी नहीं है। और इतना आप गांठ बांध लीजिए कि जिस दिन वह मान लेगा कि उसने सब रहस्य जान लिये हैं उस दिन वह हार जायगा । रहस्य की जिज्ञासा ठीक है, पर अपनी जानकारी को ही सब कुछ मान लेना ठीक नहीं है। मुझे कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की वह कविता याद आ रही है जिसमें उन्होंने पर्दानशीन नयी बहू के रूप में इस उत्सुक मनुष्य को देखा है। मनुष्य उस नयी बहू के समान है जो अधखुली खिड़की से, घूंघट की ओट से बाहर के जगत को देख रही है। उसके सामनेवाले रास्ते में लोग आते-जाते नजर आ जाते हैं। पर क्यों आते हैं, क्यों जाते हैं, इसका उसे कोई रहस्य नहीं मालूम। वह बहुत-थोड़ा देखने का अवसर पा सकी है।

वह सम्पूर्ण की जानकारी से वंचित है। आने- जाने वालों की इस प्रकार चेष्टायें उसके लिए केवल रहस्य हैं। कवि ने पूछा है कि यदि आंधी आ जाय, यह खिड़की खुल जाय, यह सिर पर का आवरण हट जाय और यह नयी बहू खुले जगत के समस्त निरावृत्त सत्य के आमने-सामने खड़ीं हो जाय तो क्या सोचेगी वह! मनुष्य यदि किसी दिन निरावृत्त सत्य को देख पाता! कैसी होगी उसकी दशा ! मगर मैं व्यर्थ ही अपने वाक्यों में कवि की बार्तों को समझा रहा हूँ। मूल कविता का साधारण-सा अनुवाद ही क्यों न लिख दू?

“तुम आधी खुली खिड़की के किनारे खड़ी हो, नयी बहू हो क्या ? शायद तुम चूड़ीवाले के इन्तजार में हो कि वह कब तुम्हारे द्वार पर आयेगा। सामने देख रही हो, धूल उड़ाती हुई बैलगाड़ी निकल जाती है, भरी नौकाएं हवा के जोर से पाल के सहारे बही जा रही हैं। मैं सोच रहा हूँ कि इस आधी खुली खिड़की पर घूंघट की छाया से ढकी हुई तुम्हारी आंखों को यह विश्व कैसा दिख रहा होगा। निश्चय ही इस छायामय विश्व को तुमने स्वप्नों की कल्पनाओं से गढ़ा होगा, शायद किसी नानी के मुंह से सुनी हुई परियों की कहानी के सांचे में वह ढला होगा-जिस लोरियों की बनी कहानी का न कोई आदि है न कोई अन्त है !

“मैं सोच रहा हूँ कि अचानक एक दिन यदि वैशाख के महीने में आंधी के झोंकों से नदी लाज-शर्म छोड़ कर बन्धनहीन सूने आसमान में नाच उठे-यदि उसका पागलपन जाग पड़े और फिर उस आंधी के झकोरों से तुम्हारे घर की सभी जंजीरें खुल जांयँ और तुम्हारी आंखों पर पड़ा हुआ यह घूंघट भी उड़ जाय और फिर यह सारा जगत् तीव्र विद्युत् की हँसी हँस कर एक क्षण में शक्ति का वेश धारण करके तुम्हारे घर में घुस पड़े और आमने-सामने खड़ा हो जाय, तो फिर कहां रहेगी यह आधे । ढंके अलस दिवस की छाया, यह खिड़कीवाली दृश्यावली और सपनों-सनी कल्पना से गढ़ी हुई माया ? सभी उजड़ जायेंगे !

“सोचता हूँ कि उस समय तुम्हारी घूंघट-रहित काली आंखों के कोनों में न जाने किसका प्रकाश कांपेगा, अपने-आप में खोये हुए प्राणां के आनन्द में अच्छा और बुरा सब-कुछ डूब जायगा और तुम्हारे वक्षस्थल में रक्त की तरंगिणी उत्ताल नर्तन के साथ नाच उठेगी। फिर तुम्हारे शरीर में यह कंकण और किंकिणी अपने चंचल कम्पनों से कौन-सा सुर बजा देंगी ! आज तुम अपने को आधी ढंकी रख कर घर के एक कोने में खड़ी होकर न जाने किस माया के साथ इस जगत् को देख रही हो- मैं मन ही मन यही सोच रहा हूँ। तुम्हारे रास्ते में यह जो आवागमन चल रहा है वह निरर्थक खेल-सा तुम्हें लग रहा है- छोटे दिन के कामों की कितनी छोटी-छोटी हँसी और रुलाइयां न जाने कितनी उठती है और विलीन हो जाती हैं तुम्हारे चित्त में! मैं यही सोच रहा हूँ।”

(पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी)

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