— पंकज मोहन —
1979 में जब फौजी तानाशाह प्रेसिडेंट पार्क चंग ही की खिलाफत करने वाले छात्र रहस्यमय ढंग से लापता होने लगे और उनकी लाशें अकस्मात समुद्रतट पर दिखने लगीं, तानाशाही-विरोधी छात्र आन्दोलन की लपट तेजी से फैलने लगी। एक रेस्टोरेंट में जेनरल पार्क चंग-ही के सुरक्षा ब्यूरो के प्रमुख ने सुझाव दिया, हमें छात्र आन्दोलन को निर्ममता से कुचल देना चाहिए। कम्बोडिया में बीस लाख लोगों का नरमेध हुआ। अगर जरूरत हुयी, तो हमे भी वही करना चाहिए।
वहां बैठे KCIA के प्रमुख, किम जै-ग्यू ने कहा, आप चाहते हैं कि जनतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्षरत हजारों हजार छात्रों को टैंक के नीचे कुचल दिया जाय, ताकि आप सत्ता मे बने रहें। ऐसा नहीं होगा। मेरे कब्र पर कोरियाई प्रजातंत्र का फूल खिलेगा।” प्रेसिडेंट पार्क के सुरक्षा ब्यूरो के प्रमुख के साथ गर्मागरम बहस हुयी। किम ने उसे नाली का कीडा कहा और उसपर दनानन गोली चला दी। फिर उसने प्रेसिडेंट की रक्षा में तैनात तीन जवानों को मारा, प्रेसिडेंट के ड्राइवर को मारा और अंत में प्रेसिडेंट पार्क का काम भी तमाम कर दिया।
प्रेसिडेंट पार्क की हत्या बाद एक दूसरे मिलिटरी जेनरल, चन तू-ह्वान ने सत्ता की बागडोर संभाली। छात्रों ने सैनिक तानाशाही का विरोध किया। चल्ला प्रांत की राजधानी, क्वांगजू नगर मे खून की नदी बही। कम से कम हजार नागरिकों को, जिसमे स्कूल के छोटे बच्चे भी शामिल थे, निर्ममता से मौत के घाट उतार दिया गया।
“ह्यूमन एक्ट्स” फौजी तानाशाह चन तू-ह्वान के खिलाफ क्वांगजू के नागरिकों के प्रतिरोध, लोकतांत्रिक मूल्यों की वेदी पर बहाये गये उनके खून, उनके त्याग और बलिदान की कहानी है। हान काग दक्षिण कोरिया के त्रासद इतिहास की पीडा की बेटी हैं। उनका साहित्य में निस्सहाय व्यक्तियों के आंसू झलकते हैं। वह अपने इतिहास के ट्रौमा से भागती नहीं है, उससे पूरी ताकत से जूझती है। इस पुस्तक की रचना-प्रक्रिया को खुलासा करते हुये वह कहती हैः
” क्वांगजू सिर्फ एक नाम नहीं है, बल्कि मानवता की मौलिक संज्ञा है जिसके दो चरम विन्दु हैं। एक छोर पर उदात्तता है, आंसू है, संवेदना है और दूसरे छोर पर भयावहता है, अट्टहास है, करतल ध्वनि से नरसंहार का स्वागत है। जब भी मैं इन दो चरम सीमाओं को देखता हूं तो मुझे क्वांगजू दिखाई देता है..क्वांगजू बार-बार आता है।
26 जनवरी 1980 को जब पिताजी ने प्राथमिक विद्यालय के सहायक शिक्षक की नौकरी से इस्तीफा देकर स्वतंत्र लेखक के रूप में जीवन बिताने का निर्णय लिया, वे परिवार की लेकर सेओल आ गये। मेरा जन्म ग्वांगजू शहर मे नवम्बर 1970 में हुआ था और 26 जनवरी 1989 को मैं पिता के साथ अपने जन्मस्थान को छोड़कर सेओल आ गयी। चार महीने बाद मई 1989 में क्वांगजू में नरमेध हुआ। हमारे परिवार का हर सदस्य अपराधबोध से ग्रस्त हुआ..हालाँकि हम जानबूझकर ग्वांगजू से नहीं निकले, हमें अपराधबोध महसूस हुआ। हमारे अनेक पड़ोसी मर गये, लेकिन जिन्दा रह गये हम।
हमारे पूरे परिवार ने अपराधबोध के सुरंग मे एक लंबी अवधि बितायी। यह अपराध बोध मेरे अंतस में बहुत लंबे समय तक रसा-बसा रहा। इतिहास के इस क्रूर अध्याय के बारे में लिखने का मेरा कोई इरादा नहीं था। यह सच है कि क्वांगजू त्रासदी से प्रत्यक्ष रूप से असम्बद्ध होने के बावजूद मै क्वागजू के अनुभव के साथ बड़ी हुयी और वह सामूहिक स्मृति मेरे दुःस्वप्न का अभिन्न अंग रही। मैं यह समझना चाहती थी कि मेरे लिए इस जीवन और दुनिया को खुलकर गले लगाना क्यों मुश्किल है। मैं लेखन के माध्यम से मानवता के प्रति अपने आत्म-संशय को गहराई से खोदने लगी। मैंने क्वांगजू नरसंहार से सम्बद्ध नौ सौ लोगों के साक्ष्य और बयान पढे — इनमें कुछ जख्मी होकर जीवित बचे लोग थे, कुछ मृतकों के सगे-सम्बन्धी थे। मुझे एक तरह मौत की विभीषिका दिखी, तो दूसरी और अस्पताल के बाहर रक्तदान के लिये खडे लोगों की लम्बी कतार भी दिखी। इस पक्ष को देखने पर मानवता में हमारी आस्था दृढ हुयी। यह पक्ष मानवीय गरिमा से दीपित था। एक हाई स्कूल की लड़की, जब रक्तदान देकर घर जा रही थी, रास्ते में ही गोली खाकर मर गई।
इस उपन्यास के माध्यम से मैंने उस त्रासदी को जीने का, उसे प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करने का प्रयास किया। प्रजातंत्र के शहीदों को मैंने अपना शरीर, संवेदनशीलता और भाव-विचार उधार दिये। मेरा उपन्यास अन्याय, अनीति, अत्याचार के अंधकार के निरूपण से शुरु हुआ, लेकिन मैं प्रकाश, मानवीय गरिमा और मानवता के उज्जवल पक्ष तक पहुंची। यह मेरे लिये आत्म-परिवर्तन की प्रक्रिया थी।”
ह्यूमन एक्ट्स में संकलित कविता
“लगता है आज बरसेगा मेघा।
तुम धीमी आवाज में कहते हो।
अगर सचमुच झमाझम बारिस होने लगे, तो क्या होगा?
तुम अधखुली आंखों से चल्ला प्रांत के सचिवालय के सामने खड़े पुराने पेड को देख रहे हो
जैसे हिलती हुयी टहनियों के बीच से बहती हुयी हवा मूर्तिमान हो उठी हो
जैसे मोती-जैसी चमकती हुयी बरसा की छिपी बूंदें अचानक उछलकर हवा में तैरने लगी हों।
अब तुम्हारी आंखें पूरी तरह से खुली हुयी हैं।
अर्ध-निमीलित आंखो से पेड़ जैसा दिखता था, उससे भिन्न, उसका आकार अब धुंधला दिखता है।
शायद अब चश्मा बनवाना होगा।
दिमाग मे कौंध गया चौकोर, भूरे रंग के प्लास्टिक-फ्रेम-चश्मे वाला तुम्हारा मुरझाया चेहरा
फिर फव्वारे की ओर से आती आर्तनाद और कलतल ध्वनि में भींगकर वह स्मृति धुंधली हो गयी।
जब तुम्हें वाटरप्रुफ चादर में लपेटा गया और फिर कचरे की गाडी में ढोकर ले जाया गया
जब फव्वारे से पानी की बौछार बेरहमी से फूटकर चारो ओर बह गयी
तुम मंदिर की दीपशिखा मे थे
और थे वसंत में खिलने वाले फूल मे
बर्फ के फाहों में
हर दिन आने वाली संध्या में।
तुमने जूस के खाली बोतल में रखी थी जो मोमबत्ती
वह अभी भी जल रही है।”
जब कोरिया मे रूढिवादी राजनैतिक दल जिसका नेतृत्व पार्क चंग ही-चन तूह्वान के वैचारिक वंशजों के हाथ में है, सत्ता थी, कांग हान ब्लैकलिस्ट लेखिका थी। कुछ प्रांतों के शिक्षा विभाग ने आदेश जारी किया था कि सरकारी पुस्तकालयों और स्कूलों में वामपंथी हान काग के लिए कोई स्थान नहीं है। विश्व पुस्तक मेले से भी हान कांग को बाहर रखा गया। 2017 में जब सत्ता परिवर्तन हुआ और प्रगतिशील राजनैतिक ताकतों ने पांच साल तक सत्ता संभाली, सरकारी प्रतिष्ठानों ने हान काग की पुस्तकें खरीदीं। कुछ रूढिवादी तत्व आज भी कहते हैं कि हान कांग को नोबेल पुरस्कार मिलने से इस पुरस्कार की प्रतिष्ठा पर आंच आयी है।