संंघ पर जेपी की राय

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ज जेपी यानी लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती है। १९७४ के आंदोलन में उन्होंने सभी कांग्रेस विरोधी दलों को संपूर्ण क्रांति के लिए अपने अपने झंडे और विचार अलग रखकर आने का आह्वान किया था। अन्य दलों के साथ इसमें जनसंघ और संंघ के लोग भी जुड़े। इस कारण जेपी पर संघ को वैधता देने का आरोप लगता है। यह आरोप अधिकतर सीपीआई और प्रलेस के लोग लगाते हैं। आख़िर क्या थे जेपी के विचार? मशहूर विचारक और समाजवादी नेता किशन पटनायक का लिया हुआ इंटरव्यू पढ़िए।

संघ (आरएसएस) पर जेपी की राय

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में संपूर्ण क्रांति के जनक जयप्रकाश नारायण (जे.पी.) क्या सोचते थे, इस बारे में बहुत भ्रांतियां फैलाई जाती रही है। उनकी जयंती (11 अक्तूबर) के मौके पर एक दस्तावेज पर नजर डालना मुनासिब होगा: समाजवादी विचारक और ‘सामयिक वार्ता’ के संस्थापक संपादक किशन पटनायक ने सितंबर 1977 के पहल हफ्ते में एक प्रश्नावली भेजी थी। सवालों के (लिखित) जवाब जो जेपी ने दिए, ‘सामयिक वार्ता’ के 16 सितंबर, 1977 के अंक में जेपी के रहते प्रकाशित हुए वही प्रश्नोत्तर यहां प्रस्तुत हैं।

प्रश्नः आपके राष्ट्रीय आंदोलन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और भारतीय मजदूर संघ ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और जनसंघ के साथ भाग लिया। जनता पार्टी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राजनीतिक अंग अर्थात जनसंघ तो शामिल हो गया है लेकिन वह खुद तथा अ.भा. विद्यार्थी परिषद् और भारतीय मजदूर संघ अपनी अलग हैसियत बनाए हुए हैं। ये जनता पार्टी के युवा, छात्र और मजदूर आदि संगठनों में मिलने से इनकार कर रहे हैं क्या आपको यह नही लगता है कि इससे पार्टी की एकता की भावना कमजोर होती है? आपके आंदोलन में शामिल होने वाले लोगों को जिन्होंने इमरजेंसी के वक्त बहुत कष्ट सहे, एकता को सबसे ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए?

जेपीः इससे निश्चय ही (एकता) कमजोर होगी। मैं आशा करता हूं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विद्यार्थी परिषद् और भारतीय मजदूर संघ जैसे संगठन, जनता पार्टी के जो विभिन्न संगठन बन रहे हैं, उनमें शामिल होंगे। अगर वे शामिल नहीं हुए तो आगे फूट और झगड़े की बहुत ज्यादा आशंका रहेगी।

प्रश्नः क्या आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विशुद्ध रूप से एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में देखते हैं? यह सवाल हम इसलिए कर रहे हैं कि आपने उसके बारे में एक समय इससे भिन्न मत प्रकट किया था।

जेपीः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विशुद्ध सांस्कृतिक संगठन मानना मुश्किल है।

प्रश्नः आपने बंबई में 21-22 मार्च 1976 को एक अकेली संयुक्त पार्टी बनाने के उद्देश्य से संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोक दल, सोशलिस्ट पार्टी के प्रतिनिधियों को तथा कुछ व्यक्तियों की बैठक बुलाई थी। इस बैठक में आपने जनसंघ के प्रतिनिधि को काफी कड़ाई से पूछा था कि वे जेल में क्या अलग शाखाएं चलाते है? क्या आपको अभी भी यही राय है?

जेपीः मेरी अभी भी यही राय है।

प्रश्नः बिहारवासियों के नाम चिट्ठी में आपने लिखा है “मैंने (जयप्रकाश ने) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आंदोलन की सर्वधर्म सम-भावना वाली धारा में लाकर सांप्रदायिकता से मुक्त करने की कोशिश की है।” आपने यह दावा भी किया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग कुछ हद तक बदले भी हैं। क्या आप यह मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिंदू-राष्ट्र के विचार को त्याग दिया है? आपकी और गांधीजी की भारतीय राष्ट्रीयता की आवधारणा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की हिंदू-राष्ट्र की अवधारणा से बुनियादी रूप से भिन्न है। अगर यह बात ठीक है तो यह भिन्नता कैसी है? अगर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और उनके अन्य संगठन हिंदू-राष्ट्र के अपने विचार पर अटल रहते हैं, तो क्या इससे भारतीय राष्ट्र और देश सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों को मुकाबला करने के लिए एक हो पाएगा?

जेपीः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं और कार्यकर्ताओं से अपने संपर्क के दौरान मुझे निश्चय की उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन नजर आया। उनमें अब अन्य समुदायों के प्रति शत्रुता की भावना नहीं है। लेकिन अपने मन में वे अभी भी हिंदू राष्ट्र की अवधारणा में विश्वास करते हैं। वे यह कल्पना करते हैं कि मुसलमान और ईसाई (जैसे अन्य समुदाय) तो पहले से ही संगठित हैं, जबकि हिंदू बिखरे हुए और असंगठित और इसलिए वे हिंदुओं को संगठित करना और अपना मुख्य काम मानते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं के इस दृष्टिकोण में परिवर्तन होना ही चाहिए। मैं यही आशा करता हूं कि वे हिंदू- राष्ट्र के विचार को त्याग देंगे और उसकी जगह भारतीय राष्ट्र के विचार को अपनाएंगे।

भारतीय राष्ट्र का विचार सर्वधर्म समभाव वाली अवधारणा है और वह भारत में रहने वाले सभी समुदायों को अंगीकार करता है। अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को भंग नहीं करता और जनता पार्टी द्वारा गठित युवा या सांस्कृतिक संगठनों में शामिल नहीं होता तो उसे कम से कम सभी समुदायों के लोगों, मुसलमानों और ईसाईयों को अपने में शामिल करना चाहिए। उसे अपने संचालन और काम करने के तरीकों का लोकतंत्रीकरण करना चाहिए और सभी जातियों और समुदायों के लोगों, हरिजन, मुसलमान और ईसाई को अपने सर्वोच्च पदों पर नियुक्त करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए।

(साभार-सामयिक वार्ता, 16 सितम्बर, 1977)

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