गांधी के बहाने : पराग मादले

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Gandhi ke bahane

से गांधी का जादू ही कहा जाएगा कि उनकी हत्या के इतने वर्षों के बाद भी दुनिया भर में सबसे ज्यादा इस शख्स की चर्चा होती है। हजारों लेख दुनिया भर के अखबारों में प्रकाशित होते हैं। इस किताब के बहाने आयोजित दिल्ली की गोष्ठी में एक वक्ता ने ठीक ही कहा कि आज हमारे देश और दुनिया के सामने जो भी समस्याएं हैं हिंसा युद्ध स्त्री रोजगार तकनीक प्रदूषण भाषा असमानता…. सभी प्रश्नों के उत्तर गांधी के जीवन और चिंतन में मिल जाएंगे. इसीलिए जो भी देश जिस भी संकट से गुजर रहा हो गांधी वही प्रासंगिक हो उठते हैं ।20वीं सदी के अवसान पर टाइम पत्रिका ने जो अंक निकाला था उसमें गांधी के मुख्य शिष्यों में मार्टिन लूथर किंग बर्मा की सु आन अफ्रीका के मंडेला से लेकर दुनिया भर के नामों को गिनाया था।

खुशी की बात है कि पराग जी ने अपने चिंतन में गांधी को चुना है। इसलिए कि गांधी विरोधियों को कुछ समझाया जा सके।ऐसे बढ़ते अंधेरे के बीच इसकी बहुत जरूरत भी है। आश्चर्यजनक बात यह है कि गांधी से नफरत करने वालों में हिंदूवादी तो उनके खून के प्यासे हैं ही अंबेडकरवादी भी गांधी के बारे में वैसी ही राय रखते हैं । इधर के नए-नए दलित चिंतक और लेखक भी गांधी विरोध में और उग्र होकर अपनी अपनी राजनीति के तहत लगे हुए हैं ।मौजूदा वक्त में मुसलमान भले ही गांधी के नाम पर चुनी हुई चुप्पी साधे रहते हो लेकिन आजादी के अंत की लड़ाई की तरफ तो उन्होंने भी गांधी की बजाय जिन्ना को चुना और इसीलिए देश का विभाजन हुआ । 18 महत्वपूर्ण मुद्दों के बहाने लेखक ने गांधी को समझने कोशिश की है। जैसे गांधी की अहिंसा, गांधी से कौन डरता है ,गांधी की विरासत, गांधी के राम ,गांधी की वैज्ञानिकता ,…बहुत सहज सरल अंदाज में बिल्कुल गांधी और उनकी भाषा की तरह ही । लेकिन गांधी और उनकी हिंदुस्तानी या भाषा संबंधी विचार , शिक्षा…को भी इसमें विस्तार से शामिल किया जाता तो और भी अच्छा रहता। अगले संस्करण में सही!भारत की मौजूदा विकास मॉडल में शिक्षा और भाषा की समस्या भी कम बड़ी रुकावट नहीं बनी हुई और गांधी के लगभग विरोध में खड़ी हुई है। मुझे याद आ रहा है गांधी के बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में 1916 और 1941 के दो भाषण भी गांधी और हिंदुस्तानी भाषा को समझने के लिए पर्याप्त हैं ।दुर्भाग्य से उनके मरने के बाद कांग्रेस ने अंग्रेजी का पक्ष लिया भारतीय भाषाओं का नहीं।

पुस्तक का एक महत्वपूर्ण लेख जरूर सबको पढ़ना चाहिए और वह है “पुणे समझौता और गलत फ़हमिया “बहुत सिलसिले बार दलित समस्या और उसके समाधान की तरफ गांधी और अंबेडकर कैसे बढ़े ।पुणे समझौते से पहले कितनी बार विचार विमर्श हुआ। गांधी अनशन पर अड़े रहते हैं तो अंबेडकर जी भी दलित उद्धार को अपनी पहली प्राथमिकता बताते हैं। इसे राष्ट्रीय आंदोलन में परस्पर संवाद और विचार विमर्श ,सहमति असहमति के एक मॉडल के रूप में भी देखा समझा जा सकता है। सचमुच पुणे समझौता नहीं हुआ होता तो देश के दुर्भाग्य की कल्पना नहीं की जा सकती! आरक्षण समर्थक और विरोधी दोनों के लिए ही इस लेख में सूत्र मौजूद है.

अशोक वाजपेई ममता कालिया सौरभ बाजपेई मधुकर उपाध्याय अशोक कुमार और स्वयं लेखक पराग सभी के वक्तव्य बहुत सधे हुए रहे।संक्षिप्त !मगर गांधी के मर्म को समझते हुए!

लेखक पराग की कुछ बातें अभी भी दिमाग में घूम रही हैं कि उन्हें गांधी को समझने की प्रेरणा महाराष्ट्र में विशेष कर नासिक और उसके आसपास के उन समाज सेवियों से मिली जिन्होंने अपना सब कुछ छोड़कर समाज के लिए काम कर रहे हैं। अजमेर में भी जहां वे फिलहाल नौकरी कर रहे हैं वहां से भी उनको साथ मिला है ।एक विचारक ने यह तीखी टिप्पणी भी की उत्तर भारत के जीवन में गांधी लगभग गायब है ।वहां गांधी की दुकाने तो चल रही हैं; उन पर कब्जा भी उनका है लेकिन उनके जीवन और कर्म में गांधी मुश्किल से ही मिलेगा । जिस चंपारण में सफलता के बाद गांधी 6 स्कूल स्त्री शिक्षा आदि के लिए खोलना चाहते थे वे एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाए। तीन तो उन्होंने खोल दिए थे लेकिन वे भी डूब चुके हैं । इन सब से उत्तर भारत में गांधी नाम के शोषण का एक और पहलू सामने आता है! …..बहुत-बहुत बधाई लेखक पराग माडले और सेतु प्रकाशन!पुस्तक की कीमत 275 रुपए है!

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