— अरविंद मोहन —
गान्धी का प्रिय भजन ‘वैष्णव जन ते’ किस भाषा मेँ है? यह सवाल आज बेमानी हो गया है. उसकी भाषा जो हो उसका अर्थ सबको मालूम है, उसका भाव सबको मालूम है. और उसकी धुन? धुन ने ही भाषा की दीवार मिटाने मेँ मदद की है. किसी को यह भ्रम हो सकता है कि यह ‘चमत्कार’ गान्धी की प्रिय होने के चलते हुआ. रोज दिन मेँ कई बार इसे दोहराने वाले ‘पक्के’ गान्धीवादी कार्यकर्त्ता को यह भ्रम हो सकता है कि उसके जैसे लोगोँ ने गा गाकर इसे लोकप्रिय कर दिया है. पर यह सब भ्रम ही है. असल मेँ गुजरात के संत कवि नरसिंह मेहता उर्फ नरसी मेहता के इस भजन जैसे गीतोँ ने उस वैष्णव मोहनदास को महात्मा गान्धी बनने की शक्ति दी और उनके हर मुश्किल काम मेँ उनके सहायक बने. ऐसा एहसास अकेले गान्धी को नहीँ होगा. उनके साथ या उनके बाद उनके रास्ते चलते हुए समाज का काम करने वाले काफी सारे लोगोँ को भी यह आभास हुआ होगा. और इस जैसे भजनोँ का सहारा भी था जो गान्धी ने एक से एक मुश्किल स्थितियोँ मेँ अपने कर्तव्य का पालन किया. घोर साम्प्रदायिक मारकाट झेलने वाले नोआखाली मेँ गान्धी और उनकी मंडली द्वारा ऐसे ही भजनोँ और बाउल के सहारे शांति का फाहा लगाने का अनुभव दिलचस्प है.
गान्धी अपने को वैष्णव हिन्दू मानते थे. सर्व धर्म समभाव मेँ भरोसा करते थे. ऐसा ही आचरण करते थे. मन्दिर जाने और मूर्ति पूजा से बैर न रखते थे. जनेऊ चोटी भी रखते थे, जिसमेँ से छुआछूत विरोधी आन्दोलन के क्रम मेँ उन्होँने जनेऊ उतार दिया. दलितोँ के मन्दिर प्रवेश के लिए आन्दोलन चलाने के बाद मन्दिर जाना भी लगभग छोड दिया. इसी क्रम मेँ ही नहीँ गोसेवा की जगह गौरक्षा का नाटक ( गान्धी गोसेवक थे, गौरक्षक नहीँ) करने वाले हिन्दुवादियोँ से उनका टकराव भी हुआ. द्वितीय विश्व युद्ध के समय युरोग के शानदार गिरिजोँ पर बमबारी की खबर से रोने के लिए उनकी आलोचना भी हुई. कर्मकांड के नाम गान्धी का हिन्दुत्व शून्य था. लेकिन ईश्वर की नियमित अराधना का माध्यम प्रार्थना ही थे जिन्हेँ गान्धी ही नहीँ उनके आश्रमोँ मेँ रहने वाले सभी सुबह शान करते थे. आश्रम मेँ नास्तिक भी थे. उनको आजादी भी प्रार्थना मेँ बैठेँ न बैठेँ. फिर सुबह शाम प्रार्थना का चलन सभी गान्धीवादी संस्थाओँ मेँ हुआ. आज भी चल रहा है.
और आम धर्मभीरु की तरह गान्धी को ईश्वर उपासना की अपनी इस वृत्ति का एहसास संकट के समय, खुशी के समय ज्यादा हो जाता था. और ऐसा पचासोँ बार देखा गया कि अकेला होने पर, तनाव मेँ होने पर गान्धी किसी भी वक्त भजन गुनगुनाते थे या साथ के लोगोँ से अपने प्रिय भजन, जो अनिवार्यत: हिन्दू भजन न होते थे, गुनगुनाने को कहते थे. चार्ल्स एंड्रूज, विनोबा, बाल्कोवा, मीराबहन और रैहाना तैयबजी पास होँ तो उनकी भजन की तलब बढ जाती थी. अपने लम्बे उपवासोँ के दौरान भी गान्धी ने अलग अलग धर्मोँ के भजन और धर्मग्रंथोँ का पाठ कराके ईश्वर को याद किया. वैसे यह बताना उचित है कि गान्धी पहले ईश्वर सत्य है कहा करते थे, फिर सत्य ही ईश्वर है कहने लगे.
गान्धी हिन्दू धर्मग्रंथोँ कैस गुण के दीवाने थे कि सारे प्राचीन ग्रंथ लयबद्ध काव्य रूप मेँ है जो किसे अन्य धर्म मेँ नहीँ है. और दक्षिण के वेद विद्यालयोँ मेँ विद्यार्थियोँ द्वारा किया जाने वाला सस्वर पाठ उन्हेँ बहुत अच्छा लगता था. विनोबा भी इस चलते उनके प्रिय थे. और बिना सुर ताल के अगर कोई भजन या श्लोक का पाठ करता था तो गान्धी को उसे टोकने मेँ कोई झिझक नहीँ होती थी. और वे अच्छे सस्वर पाठ की तारीफ करने से भी नहीँ चूकते थे. सो उन्होँने अपने प्रिय भजनोँ की स्वरलिपियोँ को दुरुस्त कराया, आश्रम के लिए भजन चुनते वक्त सुरोँ का ध्यान रखा(सभी धर्मोँ और हर आश्रमवासी की भावनाओँ का ध्यान तो रखा ही) और इस काम मेँ नामी संगीतकारोँ की सेवाएँ लेने मेँ नहीँ हिचके. अपने दौर के सभी बडे संगीत वालोँ से उनकी मैत्री थी( उनका यह पक्ष कम प्रचारित हुआ है) और ‘वैष्णव जन’ तथा ‘रघुपति राजा राम’ की मौजूदा धुन का अंतिम रूप विष्णु दिगम्बर पलुस्कर का दिया हुआ है. और आश्रम के लोगोँ को संगीत सिखाने(गान्धी गुजरात के लोगोँ मेँ संगीत का भाव कम होने तथा दक्षिण और बंगाल मेँ जबरदस्त संगीत प्रेम का खास जिक्र करते हैँ) पलुस्कर साहब से एक जानकार देने की मांग की.
उन्होँने अपने प्रिय शिष्य नारायण मोरेश्वर खरे को गान्धी के साथ लगा दिया. खरे साहब भी जबरदस्त आदमी थे. संगीत की दुनिया की चमक दमक और सुख समृद्धि को छोडकर वे गान्धी के आश्रम मेँ ही रम गए. खरे साहब ने आश्रम मेँ रहकर सचमुच गान्धी और आश्रमवासियोँ का जीवन संगीतमय बनाया ही, उन्होँने गुजरात संगीत सम्मेलन के माध्यम से गुजरात मेँ संगीत सिखाने का व्यवस्थित कार्यक्रम चलाया जिसकी तारीफ गान्धी किया करते थे.पर भजनोँ के मामले मेँ उनका जबाब नहीँ था. गान्धी के रहते सभी धर्म की प्रार्थनाएँ आश्रम के जीवन मेँ स्थान पाती गईँ और जो 188 भजन आश्रम की भजनावलि मेँ आए लगभग उन सबके धुन खरे साहब ने ही बनाए. इसमेँ विनोबा जैसे जानकार लोगोँ की मदद मिली और अभी आश्रम की जो भजनावलि उपलब्ध है उसमेँ हर भजन के साथ सुर, लय और ताल का जिक्र भी है. ऐसी सुर के जिक्र वाली रचना ग्रंथ साहब ही है. जी, हाँ इसमेँ अल्लामा इकबाल की रचना ‘सारे जहाँ अच्छा’ भी शामिल है. और सारी सुर लिपियाँ हिन्दुस्तानी संगीत की न रखकर कर्नाटक संगीत की लिपियाँ भी बनाई गईँ. दुर्भाग्य से खरे साहब की उम्र ज्यादा लम्बी न हुई.
पर इन भजनोँ और उनकी संगीतमयता के किस्से की तरह उनका आश्रम और गान्धी के मन मेँ प्रवेश का किस्सा भी कम दिलचस्प नहीँ है. दक्षिण अफ्रीका मेँ सामुहिक या आश्रम जीवन की शुरुआत से ही शाम को सामुहिक प्रार्थना की शुरुआत हुई जो गान्धी और रहने वालोँ की अपनी याद और श्रद्धा से निकले भजनोँ तक सीमित था. इसका भी एक संग्रह बना था ‘नीतिनाँ काव्यो’. गान्धी जब चम्पारण मेँ थे तब किसी सामुहिक प्रार्थना का जिक्र नहीँ मिलता. लेकिन लगभग उन्हीँ दिनोँ साबरमती मेँ दोनोँ शाम प्रार्थना शुरु हुई. उससे पहले कोचरब आश्रम मेँ भी प्रार्थना होती थी. इस बीच मगनलाल समेत दक्षिण अफ्रीका के कई आश्रमवासी शांतिनिकेतन मेँ वक्त गुजार आए थे सो भजनोँ मेँ रवि बाबू के कई सुन्दर गीत आ गए जो उपनिषदोँ की प्रेरणा से लिखे गए थे. खुद गान्धी ने उपनिषद के मंत्रोँ के पाठ को सन्क्षिप्त किया.
श्रीमद राजचन्द्र जी गान्धी के गुरु जैसे थे और गान्धी ने साबरमती आश्रम के भजनोँ मेँ उनके बनाए भजन भी लिए. प्रार्थना के बाद राजचन्द्र जी की पुस्तक ‘राजबोध’ का पाठ भी चलता था. इसी कडी मेँ समर्थ रामदास के मनोबोध का पाठ भी हुआ. आश्रम मेँ खरे जी के साथ ही विनोबा, काकासाहब कालेलकर, मामा फडके और बाल्कोवा जैसे मराठियोँ का जमावडा होने से महाराष्ट्र के संत कवियोँ की कई रचनाएँ भी प्रार्थनाओँ की सूची मेँ आ गईँ. जब स्वामी सत्यदेव कुछ दिनोँ के लिए आश्रम मेँ रहने आए तो तुलसी रामायण का पाठ शुरु हुआ. काका साहब ने स्त्रोत्रराज मुकुन्दमाला, पांडवगीता और शंकराचार्य की द्वादश्पंजरी मेँ से कुछ श्लोक प्रार्थना मेँ शामिल कराए. फिर गीता का पाठ शुरु हुआ. फिर तो बाजाप्ता गीता की कक्षाएँ लगाई गईँ, ‘गीता प्रवचन’ हुआ,उसके लिए अलग रुटीन बना. खरे साहब ने राग रागिनियोँ के हिसाब से उसके सुबह दोपहर शाम और रात के स्वर और उसी अनुरूप वाले श्लोक तय किए. काका साहब का आग्रह था कि प्रार्थना की शुरुआत वेदवाणी से होनी चाहिए इसलिए ईशावास्योपनिषद से पहला मंत्र लिया गया जो अभी तक हर प्रार्थना मेँ सबसे पहले आता है.
जब गान्धी आगा खाँ पैलेस मेँ थे तह उनका आपरेशन करने वाले डा.गिल्डर भी प्रार्थना मेँ बैठते थे. उसका एक दूसरा लाभ हुआ कि आश्रम के भजनोँ मेँ पारसी भजन आ गया जिसकी कमी गान्धी काफी समय से महसूस करते थे. गान्धी मानते थे कि जिस तरह शरीर की जरूरत के लिए हरेक को उसके अनुकूल पौष्टिक खुराक जरूरी है उसी तरह प्रार्थना के लिए हरेक को उसकी रुचि का और श्रद्धा का आध्यात्मिक आहार मिलना चाहिए. इसी सोच के साथ पहले से ही कुरान और बाइबल के पाठ के इस्लाम और इसाई धर्म के लोकप्रिय भजनोँ को आश्रम की प्रार्थना मेँ शामिल किया गया था. फिर कोई तमिल आया तो तमिल भजन शामिल हुआ. और मजेदार बात यह है कि जिस लडके के आग्रह पर यह प्रार्थना शामिल की गई थी उसके चले जाने के बाद भी इसे गाया जाता था.
यही मुश्किल अलग अलग जगहोँ पर आश्रम खुलने से भी आई. लेकिन जब खुद गान्धी ने इतने साफ नियम रखे थे तो कहीँ भजन चुनने मेँ दिक्कत नहीँ आई. फिर शिशु विद्यालय बना तो उसके लिए अलग भजन और मंत्र चुने गए.जब महिला मंडल की अलग प्रार्थना हुई तो उसके लिए अलग प्रार्थना को खुद गान्धी ने पसन्द किया. गान्धी के वर्धा रहने के दौरान एक जापानी बौद्ध साधु साथ रहता था जो प्रार्थना से पहले अपने कुछ मंत्र बोलता था और चमडे का पंखा बजाता था.विश्व युद्ध शुरु होते ही उसे सरकार ने गिरफ्तार कर लिया लेकिन गान्धी की प्रार्थना मेँ पहले की तरह उसके मंत्र सबसे पहले पढे जाते रहे.
और गान्धी का मतलब सिर्फ भक्ति और अराधना न था. सो प्रार्थना के चुनाव मेँ पर्याप्त ‘पोलिटिक्स’ का भी खयाल रखा गया. आश्रम के घोषित सिद्धांतोँ को ही सबसे ऊपर रखा गया और अगर किसी प्रार्थना से उनका उल्लंघन होता हो तो उसे शामिल नहीँ किया जाता था. जैसे मृत्यु का डर दिखाने वाला भजन गान्धी के यहाँ न चला. स्त्री जाति की किसी भी तरह की निन्दा या अपमान वाला भजन नहीँ शामिल किया गया. छूछे वैराग्य का, भक्ति बढाने के लिए लालच दिखाने वाले, कृत्रिम भक्ति दिखाने वाले भजन भी शामिल नहीँ किए गए. ईश्वर के विविध रूप बताने वाले भजनोँ पर भी आपत्ति हुई लेकिन उन्हेँ नहीँ माना गया. गान्धी को और गान्धी के लोगोँ को भजन और भक्ति से क्या मिला और उसका लाभ समाज को क्या मिला यह मूल्यांकन होना चाहिए.
पर ऐसे प्रसंग काफी हैँ जब गान्धी को भजनोँ और कीर्तन से बहुत बल मिला. जब गान्धी 1924 मेँ साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए सबसे लम्बा उपवास कर रहे थे तब कई बार उनका स्वास्थ्य एकदम बैठने लगा. डाक्टर तक हाथ खडे करने लगे. गान्धी ने तब इसी ‘वैकल्पिक’ चिकित्सा का सहारा लिया और परिणाम देखकर सब हैरान थे. उन्होँने अली बन्धुओँ के दिल्ली आवास पर हुए इस अनशन मेँ विनोबा, बाल्कोवा से भजन सुने, उपनिषद का पाठ कराया, इमाम साहब से कुरान का पाठ कराया, सुशील रुद्र, जार्ज जोजेफ और चार्ल्स एंड्रूज से भजन गवाए और सबसे मिल जुलकर उपवास तोडा. इस अवसर पर अली बन्धुओँ का परिवार, मोतीलाल जी और जवाहरलाल समेत पूरा नेहरू परिवार, डा. अंसारी और सैकडोँ अन्य लोग थे.
पर भजन और कीर्तन की असली ताकत दुनिया ने नोआखाली और बिहार दंगोँ के दौरान देखी जब गान्धी सब कुछ छोडकर अपने मुट्ठी भर विश्वस्त साथियोँ को लिए गांव गांव भटकते फिरे. उनके साथ कार्यकत्ताओँ के साथ स्थानीय लोग और कई बार एक दो बाउल गायक पैदल गाते हुए चलते थे. गान्धी ने दंगापीडितोँ और अपना सब कुछ गंवा चुके लोगोँ को इन्ही भजनोँ और प्रार्थनाओँ के जरिए साहस और प्रेम का संचार कर रहे थे. और उसका जादू सा असर भी हुआ क्योंकि वहाँ तो शासन भी दंगाइयोँ के साथ हो गया था. मनुष्य की बुनियादी अच्छाई और ईश्वर पर भरोसा के चलते ही गान्धी यह हिम्मत कर पाए और सफल हुए. और इसी क्रम मेँ एक चम्त्कार हुआ जिससे खुद गान्धी भी हैरान थे. ‘वैष्णव जन’ उनका प्रिय भजन रहा था. लेकिन नोआखाली मेँ मुन्ह से ‘रघुपति राघव’ ज्यादा निकलता था.
और इसमेँ एक दिन अचानक मनु ने, जो कस्तुरबा की मौत के बाद गान्धी की निजी सेवाओँ का काम करती थी, ‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम’ की जगह ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ वाली पंक्ति जोड दी. गान्धी को यह झट से पसन्द आया और उन्होँने स्रोत पूछा तो मनु ने बताया कि पोरबन्दर के सुदामा मन्दिर के पंडित जी यह पंक्ति गाते थे. गान्धी ने कहा, ‘मनु स्वयँ ईश्वर ने तुम्हारे दिमाग मेँ यह पंक्ति सुझाया है. परमेश्वर की करुणा विस्मयकारी है.’ कहना न होगा कि जिस मौके पर यह पंक्ति सूझी और यह गान्धी के मिशन को जितना मेल खा गई वह इसी तरह का था भी. और फिर लोकप्रियता और गान्धी के दर्शन को बताने मेँ इसका कोई जोड न रहा.