— ध्रुव शुक्ल —
तीर्थ जीवन-दर्शन है
उसमें पूर्वज आदर पाते हैं
वह संयम और शील का परीक्षा-स्थान है
जीवन के उपचार का साधन है
ज्ञानी उसको मार्ग कहा करते हैं
जो अभिनव सिद्धांत प्रवर्तक होते हैं
उनको तीर्थ कहा जाता है
जो अंधी श्रद्धा की जूठन पर पलते हैं
वे तीर्थ-काक कहलाते हैं
तीर्थ का बहुविधि-विधान होता है
जग-दर्शन के मेले का
प्रतिमान वही होता है
भरा कुम्भ का मेला
कहत कबीर सुनो भई साधो —
‘गुरु की करनी गुरु जाता है
चेले की करनी चेला ‘
रह जाता है तीर्थ अकेला
तीर्थ में स्वार्थ नहीं रहता है
वह परमार्थ कथा कहता है