— आनंद कुमार —
(एक)
यह अविश्वसनीय आनंद की बात है कि हम सभी स्वतंत्रता-सेनानी, लोकतंत्र-रक्षक, समाजवाद-साधक, राष्ट्रनिर्माण-नायक, गांधीमार्ग के महापथिक और सेवा, मैत्री और करुणा के पावन संगम डा. जी. जी. पारीख की यशस्वी जीवन यात्रा के गरिमामय सौ बरस पूरे होने के साक्षी हैं. डा. पारिख को जानना एक पूरी शताब्दी की समाजवादी आदर्शवादिता से परिचित कराता है. १९४२ के ‘अंग्रेजों! भारत छोड़ो.’ आन्दोलन से यह कथा शुरु हो जाती है और आजतक जारी है. वस्तुत: उनके ८५ बरस के विस्तृत और बहुमुखी सार्वजनिक जीवन में भारतीय समाजवादी आन्दोलन का सम्मोहक प्रतिबिम्ब है. उनके स्मृति-संसार में विश्वप्रसिद्ध महानायकों से लेकर नेपथ्य में लगे रहे अनाम सहयोगियों तक अनगिनत समाजवादी मौजूद हैं. उनका यह भी अनुकरणीय पक्ष है कि वह लोकतांत्रिक समाजवाद और संसदीय लोकतंत्र के लिए समर्पित हैं लेकिन संसदवाद से दूर रहे. उनके सत्संग मात्र से कुछ बड़ा करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है.
यह सच हमें रोमांचित करता है कि उनकी आँखों ने बचपन में गांधीजी को देखा है. तरुनाई में उनके कंठ ने ‘अच्युत, लोहिया, जयप्रकाश – इन्कलाब जिंदाबाद!’ का बार-बार नारा लगाया है. उनके बाजुओं ने युसूफ मेहर अली को सहारा दिया है. उन्होंने मधु दंडवते, सुरेन्द्र मोहन और नाथ पाई के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर समाजवाद के रथ को खींचा है. उन्होंने आचार्य नरेंद्र्देव, साने गुरूजी और एस. एम्. जोशी के पदचिन्हों का अनुसरण किया है. उनको मंगला जी जैसी सहयात्री जीवनसाथी और सोनल जैसी स्नेहिल बेटी मिली और वह प्रमिला दंडवते और मृणाल गोरे के सहयोगी रहे. यह अद्भुत तथ्य भी चमत्कृत करता है कि आज भी रोज सुबह उनकी आँखों में समाजवाद की आशा का सूरज उगता है और हर दिन किसी न किसी बड़े लक्ष्य के लिए समर्पित रहता है.
दो)
जी. जी. का जीवन गाँधी के अनासक्तियोग के आलोक से प्रकाशित है. उनकी निष्काम कर्म कथा में चरित्र-निर्माण और राष्ट्र-निर्माण की रचनात्मकता का मजबूत आधार है. उनके चिन्तन में भारतीय समाज के लोकतान्त्रिक नवनिर्माण के आम्बेडकर सूत्र में आस्था का पुष्टिकरण है. उनकी सतत सक्रियता में भारतीय संविधान के भरोसे का आलोक है. उनकी राजनीति में भारत की लोकशक्ति से जीवंत सम्बन्ध की प्रतिध्वनि है. आइये, इस बेमिसाल राष्ट्रगौरव के अभिनंदन के जरिए एक अनुकरणीय जीवन साधना को प्रणाम करें और उनकी उम्मीदों को पूरा करने की दिशा में अपनी क्षमता अनुसार आगे बढ़ें.
डा. जी. जी. पारिख १७ बरस की उम्र में स्वतंत्रता के आन्दोलन १९४२ में शामिल हुए. भारत के पुनर्जागरण से उत्पन्न राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन की एक महान गौरव-गाथा है. इस आन्दोलन में १९०५ में बंगाल के विभाजन का जन-प्रतिरोध, १९२१-२२ का असहयोग आन्दोलन, और १९४२-४६ का ‘भारत छोड़ो!’ आन्दोलन तीन बड़े मोड़ थे. इन तीन आन्दोलनों ने क्रमश: १९१६ के कांग्रेस – मुस्लिम लीग समझौता (सर्वधर्म सद्भाव और राष्ट्रीय एकता ), १९३१ के कराची प्रस्ताव (स्वराज की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रुपरेखा ) और १९४९ में स्वतंत्र भारत के संविधान (स्वतंत्रता, न्याय, समता, और बंधुत्व के चार स्तंभों पर आधारित लोकतान्त्रिक राष्ट्रनिर्माण ) की आधार-भूमि तैयार की. भारत की राष्ट्रीयता निर्माण की दिशा में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक आदर्शों को परिभाषित किया और अपनाया. भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के मुख्य मंच कांग्रेस के अंतर्गत १९३४ में जन्मी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों ने आज़ादी की लड़ाई के इस निर्णायक दौर अर्थात् ९ अगस्त १९४२ से शुरू ‘भारत छोडो आन्दोलन’ में अपार साहस और शौर्य का परिचय दिया. यह एक जनक्रान्ति थी जिसने एक समूची पीढ़ी को स्वराज और प्रगति के महास्वप्न को साकार करने का रास्ता दिखाया. इसके मंत्रदाता महात्मा गांधी थे जिन्होंने बम्बई के ग्वालिया टैंक मैदान में स्वतंत्रता सेनानियों के विराट राष्ट्रीय अधिवेशन में ‘करो या मरो!’ का उद्घोष किया. समाजवादी नायक युसूफ मेहरअली की सलाह पर गांधीजी ने इसे ‘अंग्रेजों, भारत छोड़ो!’ आन्दोलन का नाम दिया.
गांधीजी समेत अधिकांश राष्ट्रीय नेताओं की देशव्यापी गिरफ्तारी के बावजूद ९ अगस्त को समाजवादी वीरांगना अरुणा आसफ अली ने मुंबई के सम्मेलन स्थल पर तिरंगा झंडा फहराया. सैकड़ों स्थानों पर हजारों लोगों ने इस आन्दोलन में अपने को आगे किया. समूची रेल व्यवस्था और डाक-तार प्रबंध ठप्प हो गया. सिर्फ दिल्ली में अंग्रेज़ सरकार ने ११ और १२ अगस्त को ४७ बार गोली चलायी. ब्रिटिश सरकार के अनुसार ९ अगस्त और ३० नवम्बर १९४२ के १५ सप्ताह की अवधि में पुलिस गोलीबारी से १००८ लोग मारे गए और ३,२७५ लोग घायल हुए. १८,००० लोगों को भारत रक्षा कानून के अंतर्गत नजरबंद किया गया और ६०,२२९ लोगों को गिरफ्तार किया गया. फिर भी लाखों स्त्री-पुरुष इससे जुड़ते गए. ५५० डाकखाने, २५० ट्रेन स्टेशन, ८५ सरकारी इमारतें और ७० पुलिस थाने क्षतिग्रस्त हुए. बलिया (उत्तर प्रदेश; चित्तू पाण्डेय ), सतारा (महाराष्ट्र; अच्युत पटवर्धन, नाना पाटिल ), तालचर (ओडिशा; पबित्र मोहन प्रधान ) और मिदनापुर (पश्चिम बंगाल; सतीशचन्द्र सामंत ) में जनता की सरकारों ने अंग्रेजी हुकूमत को हटाकर स्वराज व्यवस्था कायम कर ली. मुंबई से महीनों ‘कांग्रेस रेडियो’ से डा. राममनोहर लोहिया द्वारा उषा मेहता जैसी निडर साथियों की मदद से समाचार और विचार का प्रसारण होता रहा. बिहार के हजारीबाग की जेल की दीवारें लांघकर आज़ादी के दीवानों ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आज़ाद दस्ते का गठन किया. चम्बल के बीहड़ में ‘लाल सेना’ (‘कमांडर’ अर्जुन सिंह भदौरिया) बनायी गयी. बिहार (रामानंद तिवारी) समेत कई जगह पुलिस विद्रोह हुए. ब्रिटिश शासन को भारतीय नौसैनिकों की बगावत का सामना करना पड़ा. उधर नेताजी सुभाष बोस के नेतृत्व में ‘दिल्ली चलो!’ के आवाहन पर आज़ाद हिन्द सेना के उत्तर-पूर्व भारत की सरहदों की ओर बढ़ने के समाचार ने भी मनोबल बढ़ाया. नेताजी सुभाष ने ६ जुलाई १९४४ को सिंगापुर से राष्ट्र के नाम उद्बोधन में गांधीजी को ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में सम्बोधित करके ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ को नयी ऊंचाई दी. डा. जी. जी. पारिख को इस बात का गर्व है कि आज़ादी की इस लड़ाई में उनको भी हिस्सेदारी का सौभाग्य मिला.
तीन)
१९४८ में अधिकाँश स्वतंत्रता सेनानियों ने सत्ता संचालन की राह की तरफ कदम बढाए लेकिन डा. जी. जी. पारिख लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण के लिए जनता को एकजुट करने के लिए कांग्रेस सोशलिस्टों की बनायी सोशलिस्ट पार्टी की तरफ आकर्षित हुए. इसमें युसूफ मेहर अली से प्रेरणा मिली. आचार्य नरेन्द्रदेव और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भरोसा था. डा. लोहिया के गोवा मुक्ति आन्दोलन और साने गुरूजी के पंढरपुर मंदिर प्रवेश आन्दोलन जैसे साहसिक अभियानों और राष्ट्रसेवा दल की स्थापना और जनता साप्ताहिक (अंग्रेजी) की शरुआत जैसे ठोस कार्यों के शुभारम्भ ने भी स्वतंत्रता सेनानियों की युवा पीढ़ी में समाजवादियों के आकर्षण को बढ़ाया. समाजवादी आन्दोलन ने ही उन्हें मंगला ताई से जोड़ा जो १९४९ में उनकी जीवनसंगिनी बनीं. दोनों ने मिलकर अनेकों सामाजिक अभियानों में योगदान किया और एक छोटी से निजी पारिवारिक दुनिया भी बनायी.
१९७५ के जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से संचालित सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के दौरान डा. पारिख बम्बई सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे. सोशलिस्ट पार्टी जेपी की समर्थक थी. जे. पी. के आन्दोलन ने इंदिरा गांधी की सत्ता को १२ जून ’७५ के बाद डांवाडोल कर दिया. अपनी कुर्सी बचाने के लिये इंदिरा जी ने देश में इमरजेंसी लागू करा दिया. इसका चौतरफा विरोध हुआ. समाजवादियों ने भी प्रतिरोध किया. सरकार ने जीजी को सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जार्ज फर्नांडीज के साथ मिलकर इमरजेंसी राज का विरोध करने के आरोप में गिरफ्तार किया. उनके साथ वयोवृद्ध गांधीवादी प्रभुदास पटवारी, लोहियावादी पूर्व सांसद सी. जी. के. रेड्डी, उद्योगपति वीरेन शाह, लोकप्रिय समाजवादी नेता लाडली मोहन निगम, मजदूर नेता विजय नारायण, कवि कमलेश, पत्रकार के. विक्रम राव आदि २५ लोगों को सह-अभियुक्त बनाया गया. सभी को पूरी इमरजेंसी जेल में रखने पर दुनियाभर में समाजवादियों ने आक्रोश व्यक्त किया. महिला दक्षता समिति की अगली कतार में शामिल होने के कारण प्रमिला दंडवते और मृणाल गोरे के साथ मंगला पारिख जी भी बंदी बनायी गयीं. उनकी बेटी सोनल ने भी आपातकाल विरोधी सत्याग्रह में गिरफ्तारी दी. इमरजेंसी के दौरान माता-पिता-पुत्री तीनों की गिरफ्तारी का पूरे देश में यह अकेला उदाहरण था.
चार)
१९४८ से १९७७ के बीच के राजनीतिक उतार-चढाव सत्ता की महाभारत के कारण भारत के समाजवादियों का दलीय स्वरुप बदलता रहा. कई समाजवादी दल भी बदलते रहे. लेकिन डा. जी. जी. पारिख और पारिख-परिवार की समाजवाद की प्रतिबद्धता लगातार मजबूत होती चली गयी. चुनाव-चक्र से अपने को दूर रखने और विचार और रचना के दो पहियों पर समाजवाद की रचना के कार्यों में जुटे रहने के कारण उनका व्यक्तित्व लगातार निखरता गया. रचना-चक्र के गतिमान रहने से वोट के बाजार में जगह नहीं बचने के बावजूद सामाजिक साख और राजनीतिक पूंजी में कमी नहीं आई.
१९७७ में लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने के लिए इमरजेंसी-विरोधी दलों को एकजुट करते हुए तानाशाही बनाम लोकतंत्र के बीच ध्रुवीकरण के लिए एक नयी पार्टी बनायीं गयी – ‘जनता पार्टी’. सोशलिस्ट पार्टी ने इस नयी पार्टी को प्रमाणिकता देने के लिए जयप्रकाश नारायण के सुझाव का सम्मान करते हुए इसमें अपना विलय कर दिया. आम मतदाता को एक उपयोगी विकल्प देने का जेपी का यह प्रयोग सफल रहा और १९७७ के आम चुनावों में कांग्रेस की तानाशाही का खात्मा हुआ. समाजवादियों को भी केन्द्रीय सरकार के जरिये देश की सत्ता संचालन का पहला अवसर मिला. राजनारायण और जार्ज फर्नांडीज से लेकर मधु दंडवते, रबी राय, पुरुषोतम कौशिक, धनिकलाल मंडल, कमला सिन्हा और जनेश्वर मिश्र तक हर समाजवादी मंत्री को उनकी दक्षता और प्रतिबद्धता के लिए चौतरफा यश भी मिला. सरकार चलाने में जनता पार्टी की विफलता, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बढ़ते नकारात्मक सांप्रदायिक हस्तक्षेप और कांग्रेस द्वारा साम-दाम-दंड-भेद के उपायों से जनता पार्टी के अंतर्विरोधों का इस्तेमाल करके सरकार गिराने में सफलता के बाद जनता पार्टी के कई टुकड़े हो गए. १९८० में राष्ट्रीय स्वयंसेव संघ से जुड़े हिस्से ने ‘भारतीय जनता पार्टी’ के रूप में अपना चुनावी मंच बना लिया.
चंद्रशेखर के नेतृत्व में ‘जनता पार्टी’ का झंडा और नाम १९८० के विनाशक तूफ़ान के बावजूद एक दशक तक बचा रहा. लेकिन समाजवादियों का कई क्षेत्रीय दलों में बिखराव हो गया. फिर १९८९ -९० में समाजवादियों की पहल पर विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में ‘जनता दल’ बनाया गया. इसमें समाजवादियों के वर्चस्व से चल रही ‘जनता पार्टी’ (चंद्रशेखर ) का विलय भी किया गया. १९८९ के आम चुनाव में केंद्र की सरकार भी बनी. लेकिन यह सरकार कम्युनिस्ट पार्टियों और भारतीय जनता पार्टी के समर्थन पर निर्भर थी और जनता दल में अंदरूनी गुटबाजी का बोलबाला था. फिर कांग्रेस ने जनता दल के एक हिस्से को आकर्षित करके टूट पैदा की और १९९२ में कांग्रेस की पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई. इस दौर में डा. जी. जी. पारिख अपनी राह पर गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के ‘एकला चलो!’ मन्त्र के भरोसे चलते रहे. चंद्रशेखर की भारत यात्रा में हमने उनको उत्साहित देखा था. उन्होंने भारत यात्रा के २६ जून १९८३ को दिल्ली में आकर्षक समापन पर ‘जनता’ का एक विशेषांक भी निकाला. लेकिन चंद्रशेखर ने उनके सुझावों की अनसुनी की और भाई वैद्य की निगरानी में परंद्वानी में ‘भारत यात्रा केंद्र बनाने को प्राथमिकता दी तो वह बिना हताश हुए युसूफ मेहर अली सेंटर के जरिये आदिवासियों, दलितों और महिलाओं के सशक्तिकरण के कामों में लगे रहे.
भारतीय राजनीति में भी मंडल (पिछड़ों को सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण)- मंडल (हिंदुत्ववादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) – भूमंडलीकरण (वैश्विक पूंजी वाद) के त्रिकोण में नए समीकरण बनने लगे. बाजारीकरण और भोगवाद का दौर शुरू हो गया. ‘टीना’ (‘देयर इज़ नो अलटरनेटीव!’) का गाना गाया जाने लगा. समता और सम्पन्नता के बीच में सम्पन्नता का पलड़ा भारी हो गया. प्रगतिशीलता और ‘अस्मिता’ के बीच की होड़ में जाति, क्षेत्र और सम्प्रदाय पर आधारित अस्मिता आगे निकल गयी. मार्क्सवादियों को बंगाली और केरल में भाषाई राष्ट्रवाद के बीच क्रांति की सम्भावना दीखने लगी. उत्तर प्रदेश, बिहार और कर्नाटक के समाजवादियों ने अपने पोस्टर से गाँधी-लोहिया-जयप्रकाश की तस्वीरें हटाकर ग्राम-स्वराज, सप्तक्रांति और सम्पूर्ण क्रान्ति के बड़े सपनों को भूलकर संपत्ति और संतति के व्यामोह में फंस चुके लेकिन ‘वोट-बैंक’ बनाने में सफल अपने मौजूदा नेताओं को स्थापित किया. इन नये नेताओं ने मध्यम और अन्य प्रभु-जातियों, वामपंथियों और अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के गिरोहों के गंठजोड़ से कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को पराजित करके सत्ता की काम चलाऊ सीढ़ी बनाने में सफलता हासिल की. इस बीच १९७७ से २०१२ तक पश्चिम बंगाल में वामपंथी मोर्चे की सरकार चलती रही. उसमें समाजवादी पार्टी की मामूली साझेदारी थी. उत्तर प्रदेश और बिहार में सामाजवादी धारा से निकले राजनीतिक जमातों की सरकारें भी बनी. डा. जी. जी. पारिख दृष्टा-भाव से इसके गवाह थे.
लेकिन १९९२ से हिन्दू साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के समर्थको के बीच ध्रुवीकरण बढ़ने लगा. इसमें शाह बानो प्रकरण और बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने के मामले में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दुहरे आचरण से बल मिला. राजीव गांधी के प्रशंसक इस सबके लिए अरुण नेहरु को जिम्मेदार ठहराते हैं जो बाद में भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे. कांग्रेस द्वारा चरण सिंह और चंद्रशेखर की सरकारों को बीच धारा में डुबोने की हरकतों से अपनी विश्वसनीयता गँवा दी और ‘गैर-कांग्रेसवाद’ के १९६७ और १९७७ में आजमाए सूत्र के सहारे समाजवादियों के एक हिस्से ने भारतीय जनता पार्टी के साथ केंद्र में सरकार बनाने में सहयोग किया. तबसे अबतक समाजवादी अभियान से लेकर समाजवादी समागम तक कई पहल की गयी लेकिन समाजवादियों का कोई राष्ट्रव्यापी दल नहीं है. इससे समता और सम्पन्नता में दूरी ही नहीं बढ़ी अब तो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के दो पहियों पर चल रहा संविधान सम्मत लोकतान्त्रिक राष्ट्रनिर्मा का रथ भी रोका जा रहा है. इस पतझड़ के मौसम भी डा. जी. जी. पारिख ने समाजवादियों की साप्ताहिक पत्रिका ‘जनता’, रचनात्मक कार्यों के मंच युसूफ मेहर अली सेंटर, युवा प्रशिक्षण केंद्र राष्ट्र सेवा दल, और जन-आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के माध्यम से समाजवाद की एक बगिया को हरा-भरा रखा है.
पांच)
वैसे समाजवादियों का कुनबा कभी भी भारतीय राजनीति के बदलते रुझ्हानों से अछूता नहीं रहा. सबसे पहले आज़ादी के बाद के शुरूआती दस सालों में १. १९४७ के भयानक भारत-विभाजन, २. १९५२ के पहले आम चुनाव में निराशाजनक नतीजे, ३. १९५३ में सोशलिस्ट पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी का विलय और प्रजा समाजवादी पार्टी का निर्माण, केरल में प्रजा समाजवादी पार्टी की सरकार द्वारा जनप्रदर्शन पर गोलीबारी, मधु लिमये और अशोक मेहता के बीच विवाद, ४. १९५४ में नेहरु के सहयोग प्रस्ताव पर नेहरु-जेपी वार्ता, १९५५ में डा. लोहिया और मधु लिमये के विरुद्ध अनुशासन की कार्यवाही, ५. जेपी का प्रायश्चित उपवास और दलीय राजनीति से संन्यास और सर्वोदय के लिए जीवन-दान, और ६. १९५६ में आचार्य नरेन्द्रदेव के देहांत ने समाजवादी कुनबे में जबरदस्त कटुता और बिखराव पैदा किया था. इस आंधी में डा. पारिख प्रजा समाजवादी पार्टी के अनुशासित सिपाही बने रहे.
फिर १९५७ और १९६२ के चुनावों से समाजवादियों की दूरी और कमज़ोरी और बढ़ी. १९६३ में कृपालानी, लोहिया और मीनू मसान उपचुनाव में विपक्षी एकता के जरिये कांग्रेस को हराकर लोकसभा में पहुंचे और देश का राजनीतिक विमर्श टूट से एकता की ओर मुड़ने लगा. १९६५ में प्रसोपा (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी) और सोपा (सोशलिस्ट पार्टी -लोहिया) की एकता की पहल की गयी और श्रीधर महादेव जोशी की अध्यक्षता में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) बनी. लेकिन एक साल के अंदर ही एक हिस्से ने अलग होकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को पुनर्जीवित किया. १९६७ के आमचुनाव में प्रसोपा और संसोपा ने अलग अलग चुनाव लड़ा. १९६९ में फिर एका की गयी और ‘सोशलिस्ट पार्टी’ बनी. जब राष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस टूट गयी तो समाजवादियों ने कम्युनिस्टों के साथ मिलकर प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के गुट के उम्मीदवार वी. वी. गिरी को विजयी बनाया और १९६९ से १९७१ के बीच केंद्र में इंदिरा गांधी की अल्पमत सरकार को समर्थन दिया. लेकिन १९७१ मध्यावधि चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के कुल ३ उम्मीद्वार जीते. फिर १९७२ में समाजवादियों में टूट हो गयी और इस बार सोशलिस्ट पार्टी में से अलग हुए लोगों ने ‘संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी’ को पुन: जीवित किया. यह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी १९७४ में चौधरी चरण सिंह को नेता मानकर सात क्षेत्रीय दलों के विलय से बनाये गए ‘भारतीय लोकदल’ का हिस्सा बन गयी. फिर जेपी के १९७४ के ‘सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन’ और इंदिरा गांधी की १९७५-७७ की इमरजेंसी की जेल में समाजवादी परिवार में नयी निकटता पैदा हुई. समाजवादियो के बीच १९६५ और १९७४ के बीच की एकता और टूट के इस अजीबोगरीब नज़ारे से समाजवादियों के आलोचकों में यह मान्यता बन गयी कि ‘हिन्दुस्तानी समाजवादी एक साल से जादा साथ नहीं रहते और दो साल से जादा अलग नहीं रह पाते हैं !’ जबकि भारत के माओवादियों के बीच १९६९ और १९९९ के तीस बरस में बीस से जादा बार टूट और एकता की कोशिशें हुई हैं लेकिन चर्चा सिर्फ समाजवादियों के आचरण की होती है.
यह सुखद सच है कि शुभ और अशुभ की और सफलता और नाकामियों की इस दशकों लम्बी उथल पुथल ने डा. जी. जी. पारिख को उद्विग्न नहीं किया. उन्होंने दल को तोड़ने को हमेशा नापसंद और अस्वीकार किया. लेकिन गांधीजी की तरह से ‘अंतिम व्यक्ति से सरोकार’ और ‘न्याय और मानव गरिमा के लिए सक्रियता’ उनकी पसंद का मापदंड रहा. पूंजीवाद, स्टालिनवाद, माओवाद, गांधीवाद, हिंदुत्व तथा मुस्लिम अलगाववाद से उनकी स्पष्ट असहमतियां हैं. लेकिन वैचारिक पवित्रता की ओट में निष्क्रियता के कभी समर्थक नहीं बने. वह समाजवाद की रचना में अनासक्त भाव से जुटे रहे और नयी पीढ़ी के लोग उनके माध्यम से समाजवादी धारा से जुड़ते रहे. इसीके फलस्वरूप आज डा. जी. जी. पारिख भारतीय समाजवादी परिवार के वरिष्ठतम प्रतीक और सर्वप्रिय संरक्षक के रूप में सबके आकर्षण के केंद्र हैं. हम सभी उनके आशीर्वाद के अभिलाषी हैं क्योंकि वह बढ़ रहे अँधेरे के इस दौर में एक रोशनदान हैं.
एक बात और. हर समाजवादी यह जानता हा कि १९५२ के आम चुनावों में उत्तरी बम्बई लोकसभा की दो सदस्यी सीट से सोशलिस्ट पार्टी और शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन ने संयुक्त रूप से डा. भीमराव आम्बेडकर और अशोक मेहता को उम्मीदवार बनाया था. कांग्रेस उम्मीदवारों को यह जोड़ी पराजित नहीं कर सकी लेकिन दलित और वंचित समुदायों से डा. जी. जी. पारिख जैसे समाजवादियों की आजीवन मैत्री का शुभारम्भ हो गया. डा. आम्बेडकर का भी महाराष्ट्र के समाजवादियों के अगुवा द्वय श्रीधर महादेव जोशी और नाना साहब गोरे से जीवन पर्यंत स्नेह सम्बन्ध बना रहा. जीवन के अंतिम पहर में उनकी समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया से भी निकटता हो गयी थी. आज भी डा. पारिख के मार्गदर्शन में युसूफ मेहर अली सेंटर के रूप में यह रिश्ता पुष्पित और पल्लवित हो रहा है. मुंबई के मतदाताओं ने भी १९६७ में जार्ज फर्नांडीज और १९७७ में मृणाल गोरे को भारी बहुमत से लोकसभा चुनाव में विजयी बनाकर १९५२ की भारी भूल में सुधार किया. यह भी आकस्मिक बात नहीं थी कि डा. जी. जी. पारिख के यशस्वी जीवन के सौवें वर्ष में प्रवेश पर मुम्बई में आयोजित सार्वजनिक अभिनंदन की अध्यक्षता वरिष्ठ शिक्षाविद और अंबेडकर विचार अध्येता डा. भालचंद मुंगेकर ने की और अभिनंदन वक्तव्य महात्मा गांधी के विद्वान् पौत्र राजमोहन गांधी ने प्रस्तुत किया. जीजी मानते हैं कि समता की प्रतिबद्धता ने उन्हें डा. आम्बेडकर की ओर आकर्षित किया और उन्हें गांधी से जोड़ा है. यह अंतर्विरोध मुक्त समाजवाद साधना डा. जी. जी. पारिख की अनमोल उपलब्धि है.
जी. जी. की जय हो!