महात्मा गांधी धर्म को सांप्रदायिक हिंसा का कारण नहीं मानते थे. उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि धर्म का इस्तेमाल ना तो राजनीति के लिए किया जाना चाहिए और ना ही हिंसा को औचित्यपूर्ण ठहरने के लिए. ‘हिंदू सोचता है कि मुसलमान से झगड़ कर वह हिंदू धर्म को लाभ पहुंचा रहा है. मुसलमान सोचता है कि हिंदू से लड़ कर वह इस्लाम का फायदा कर रहा है. सच यह है कि आपस में लड़ कर दोनों अपने-अपने धर्म को बर्बाद कर रहे हैं.’ {‘यंग इंडिया’, 27 जनवरी, 1927, पृष्ठ-31; सिवान (बिहार) में हिंदू मुस्लिम एकता विषय पर बोलते हुए}.
गांधी जी के लिए किसी भी धर्म द्वारा प्रतिपादित मूल्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण थे. वे धर्म के बाहरी आडंबर, कर्मकांडों और प्रतीकों को कोई महत्व नहीं देते थे. वे कहते थे कि सभी धर्म की शिक्षाओं का मूल सर यह है कि हमें सभी लोगों के साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए और कमजोर और विपत्ति में फंसे लोगों की भरसक मदद करनी चाहिए. “मैंने यह बात अपनी मां की गोद में सीखी. आप बेशक मुझे हिंदू मानने से इनकार कर सकते हैं, परंतु मैं अपने बचाव में एक प्रसिद्ध गीत की पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा. वे हैं- मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना. अपने मित्रों के साथ मित्रता निभाना आसान है. कठिन तो है ऐसे व्यक्ति को अपना मित्र बनाना, जो तुम्हें अपना शत्रु मानता हूं और यही सभी धर्म की मूल शिक्षा है. बाकी सब तो मात्र बाहरी दिखावा और आडंबर है.” {‘हरिजन’,11 मई, 1947, पृष्ठ 146; पटना में प्रार्थना सभा को संबोधित करते हुए. उद्धृत पंक्ति इकबाल रचित गीत- ‘सारे जहां से अच्छा…’ से है.}
राम पुनियानी की पुस्तिका ‘गांधी कथा’ से