प्रेमंचद: आचार्य हजारी द्विवेदी की दृष्टि में

0

दुनिया की सारी जटिलताओं को समझ सकने के कारण ही प्रेमचंद निरीह थे, सरल थे। धार्मिक ढकोसलों को वे ढोंग समझते थे, पर मनुष्‍य को वे सबसे बड़ी वस्‍तु समझते थे। उन्‍होंने ईश्‍वर पर कभी विश्‍वास नहीं किया फिर भी इस युग के साहित्‍यकारों में मानव की सद्वृत्तियों में जैसा अडिग विश्‍वास प्रेमचंद का था वैसा शायद ही किसी और का हो। असल में यह नास्तिकता भी उनके दृढ़ विश्‍वास का कवच थी। वे बुद्धिवादी थे और मनुष्‍य की आनंदिनी वृत्ति पर पूरा विश्‍वास करते थे।

गोदान’ नामक अपने अंतिम उपन्‍यास में अपने एक पात्र के मुँह से मानो वे अपनी बात कह रहे हैं : ”जो वह ईश्‍वर और मोक्ष का चक्‍कर है इस पर तो मुझे हँसी आती है। यह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्‍ठा है, जो हमारी मानवता को नष्‍ट किए डालती है। जहाँ जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्‍वर है और जीवन को सुखी बनाना ही मोक्ष है और उपासना है। ज्ञानी कहता है, होंठों पर मुस्‍कुराहट न आए, आँखों में आँसू न आए। मैं कहता हूँ, गर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते तो तुम मनुष्‍य नहीं पत्‍थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं कोल्‍हू है।’

ऐसे थे प्रेमचंद – जिन्‍होंने ढोंग को कभी बर्दाश्‍त नहीं किया, जिन्‍होंने समाज को सुधारने की बड़ी-बड़ी बातें सुझाई ही नहीं, स्‍वयं उन्‍हें व्‍यवहार में लाए, जो मनसावाचा एक थे, जिनका विनय आत्‍माभिमान का, संकोच महत्‍व का, निर्धनता निर्भीकता का, एकांतप्रियता विश्‍वासानुभूति का और निरीह भाव कठोर कर्तव्‍य का कवच था, जो समाजकी जटिलताओं की तह में जाकर उसकी टीमटाम और भभ्‍भड़पन का पर्दाफाश करने में आनंद पाते थे और जो दरिद्र किसान के अंदर आत्‍मबल का उद्घाटन करने को अपना श्रेष्‍ठ कर्तव्‍य समझते थे; जिन्‍हें कठिनाइयों से जूझने में मजा आता था और जो तरस खानेवाले पर दया की मुस्‍कुराहट बखेर देते थे, जो ढोंग करनेवाले को कसके व्‍यंग्‍य बाण मारते थे और निष्‍कपट मनुष्‍यों के चेरे हो जाया करते थे।”


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment