जहांगीरनामा में दीवाली और होली का उल्लेख

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Pankaj Mohan

— पंकज मोहन —

हांगीरनामा जिसे जहांगीर ने 1621 मे तैयार किया था, में दीवाली और होली का उल्लेख है: “वैश्य वर्ण ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज की सेवा करता है। खेती,लेन-देन, व्याज और सौदा इनका कर्तव्य है। इनका भो एक त्यौहार है उसको दीवाली कहते हैं। इस दिन रात को घरों को दीपमाला से सजाया जाता है और मित्र और बांधव एक दूसरे के साथ जुआ खेलते है।

शूद्र वर्ण हिन्दुओं का सबसे नीचा तबका है। शूद्र का धर्म ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना है। इसका त्यौहार होली है। वे इस दिन रात को रास्तों और गलियों में आग जलाते हैं जब दिन निकलता है तो पहर भर तक एक दूसरे पर राख डालते है। फिर नहाकर कपडे पहनते है और बागों और जंगलो में घूमने निकलते हैं।

हिन्दुओं में मुर्दा जलानेकी रीति है, इसलिये रात को आग जलाने का अभिप्राय गुजरे हुये पिछले वर्ष का दाह संस्कार करना है।”

लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान आचार्य राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी की भी मान्यता है कि होली का उद्भव शूद्र समाज में हुआ और धीरे धीरे तथाकथित उच्च जातियों ने इसे अपनाया। वे लिखते है कि “होलिकादाह के लिए जो आग जलाई जाती है, वह अनेक स्थानों पर अन्त्यजके घरसे मँगाई जाती है। बरार के कुनवियोंको अस्पृश्य महारों के यहाँसे होलीकी आग ले आनी पड़ती है।” स्पष्ट है कि काल के प्रवाह के साथ होली भारतीय समाज मे सामाजिक समरसता के प्रतीक के रूप मे मान्य हुआ।

आज यह देखकर मुझे घोर मानसिक संताप हुआ कि देश के कुछ हिस्से में दिग्भ्रमित युवा ने भिन्न धर्मावलम्बियों के पूजास्थल के सामने जुलूस निकाले और गैर-हिन्दुओ को भद्दी भद्दी गाली दी। उत्सव का अर्थ जोडना होता है, देश को वैमनस्य की धधकती ज्वाला में झोंकना नहीं, सामाजिक सामंजस्य के सूत्र को तोड़ना नहीं।

“मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!” (मुक्तिबोध)

आशा है भारतवर्ष के लोग रंगोत्सव के अर्थ को समझे और वे समाज में प्रेम की सतरंगी रसधार बहायें।

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