डॉ. राममनोहर लोहिया का राम और संस्कृति-चिंतन

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Ram Manohar Lohiya

Parichay Das

— परिचय दास —

भारतीय समाज और उसकी आत्मा की गहराइयों में प्रवाहित होता एक ऐसा विचार-स्रोत है जो इतिहास, परंपरा और आधुनिकता के संगम पर एक नई दृष्टि प्रदान करता है। वे राम को केवल धार्मिक संदर्भ में नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में देखते हैं। उनकी दृष्टि में राम एक ऐतिहासिक पुरुष नहीं, बल्कि लोकचेतना के जीवंत प्रतीक हैं जो भारतीय जनमानस में हजारों वर्षों से प्रवाहित हो रहे हैं। राम का चरित्र केवल मर्यादा पुरुषोत्तम तक सीमित नहीं, बल्कि वह शक्ति, त्याग, संघर्ष और लोकमंगल का पर्याय है।

लोहिया के लिए राम की परिकल्पना केवल धर्मग्रंथों की व्याख्या तक सीमित नहीं थी। वे राम को भारतीय संस्कृति का ऐसा केंद्र मानते थे, जिसके चारों ओर सभ्यता का विस्तार हुआ है। भारतीय मनीषा ने जिस प्रकार राम को अपने भीतर आत्मसात किया है, वह किसी अन्य चरित्र के लिए संभव नहीं। राम के चरित्र में भारतीयता के वे सभी तत्व हैं, जो एक समावेशी और सामूहिक चेतना का निर्माण करते हैं। यही कारण है कि लोहिया ने राम को केवल अतीत का नायक मानकर नहीं देखा, बल्कि उसे वर्तमान और भविष्य के समाज का निर्माण करने वाली चेतना के रूप में प्रस्तुत किया।

लोहिया के चिंतन में संस्कृति का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनका मानना था कि भारत की सांस्कृतिक जड़ें बहुत गहरी हैं और वे किसी एक संप्रदाय, धर्म, या जाति तक सीमित नहीं हैं। भारतीय संस्कृति का मूल तत्व उसका समावेशी दृष्टिकोण है, और यही विशेषता राम के चरित्र में भी परिलक्षित होती है। राम के वनवास से लेकर लंका विजय तक की यात्रा भारतीय संस्कृति की विविधता, सहिष्णुता और संघर्षशीलता को दर्शाती है। लोहिया का विचार था कि रामकथा केवल धार्मिक आख्यान नहीं है, बल्कि यह भारतीय जनमानस की सामूहिक चेतना का प्रतिबिंब है, जिसमें व्यक्ति और समाज के रिश्तों की गहरी समझ विद्यमान है।

राम के प्रति लोहिया की यह गहरी आसक्ति एक ओर उनकी सांस्कृतिक दृष्टि को दर्शाती है, तो दूसरी ओर यह उनके समाजवादी विचारों से भी जुड़ती है। वे राम को एक ऐसे नायक के रूप में देखते हैं, जो समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलता है। वनवास के दौरान राम की जो यात्रा होती है, वह केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि एक सामाजिक संवाद है। निषादराज से लेकर शबरी तक, वानरराज सुग्रीव से लेकर विभीषण तक—राम की यात्रा विभिन्न सामाजिक वर्गों के साथ एक गहरी मैत्री और समानता का भाव स्थापित करती है।

लोहिया ने जिस राम की परिकल्पना की है, वह किसी एक धर्म या संप्रदाय की संपत्ति नहीं है। वे मानते थे कि राम भारतीय मनीषा का ऐसा प्रतीक हैं, जिसमें समस्त भारत की सांस्कृतिक आत्मा बसती है। उनके लिए राम एक ऐसे चरित्र थे, जिन्होंने अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किया, जो न केवल एक राजा थे, बल्कि एक विचारधारा थे। वे धर्म, समाज और राजनीति के बीच एक संतुलन स्थापित करने वाले पुरुष थे, जिनकी लोकधर्मिता किसी भी संकीर्ण दृष्टिकोण से परे थी।

राम के प्रति लोहिया की यह आसक्ति महज भावनात्मक नहीं थी, बल्कि इसका एक ठोस सामाजिक और राजनीतिक आधार भी था। वे मानते थे कि भारतीय समाज में जब-जब संकट आया है, तब-तब राम का स्मरण एक नई शक्ति और दिशा प्रदान करता रहा है। चाहे स्वतंत्रता संग्राम की बात हो या समाज में व्याप्त असमानताओं के विरुद्ध संघर्ष—राम का नाम जनमानस को एकजुट करने वाला कारक बना। गांधी ने भी रामराज्य की अवधारणा को अपने राजनीतिक चिंतन का केंद्र बनाया, और लोहिया ने इसे और अधिक सामाजिक संदर्भों में विस्तारित किया।

संस्कृति को लेकर लोहिया का दृष्टिकोण बहुत ही व्यापक था। वे इसे केवल परंपराओं में बंधी हुई कोई स्थिर इकाई नहीं मानते थे, बल्कि इसे निरंतर प्रवाहित होने वाली एक सजीव धारा के रूप में देखते थे। उनकी दृष्टि में राम इस सांस्कृतिक प्रवाह के प्रतीक थे। वे राम को केवल एक राजा के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसे सांस्कृतिक नायक के रूप में देखते थे, जो सामाजिक न्याय, समानता और लोककल्याण के आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता है। लोहिया के लिए राम केवल एक ऐतिहासिक चरित्र नहीं, बल्कि भारतीय समाज के लिए प्रेरणा का शाश्वत स्रोत थे।

रामकथा के विभिन्न प्रसंगों का अध्ययन करते हुए लोहिया इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि राम का चरित्र भारतीय संस्कृति में एक समन्वयक की भूमिका निभाता है। उनकी दृष्टि में राम वह शक्ति हैं, जो विभिन्न विचारधाराओं, परंपराओं और सांस्कृतिक प्रवाहों को एक साथ जोड़ते हैं। वे भारतीय जनमानस के भीतर व्याप्त विविधताओं को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करते हैं। यही कारण है कि राम की लोकप्रियता किसी एक कालखंड तक सीमित नहीं रही, बल्कि वे सदियों से भारतीय चेतना के केंद्र में बने हुए हैं।

लोहिया की सांस्कृतिक दृष्टि में यह विशेषता थी कि वे किसी भी परंपरा को जड़ मानकर नहीं चलते थे। वे परंपराओं को एक सतत परिवर्तनशील प्रक्रिया मानते थे, और इसी कारण वे राम को भी एक स्थिर और रूढ़ चरित्र के रूप में देखने के बजाय एक गतिशील और परिवर्तनशील चेतना के रूप में देखते थे। वे मानते थे कि राम का संदेश केवल प्राचीन काल के लिए नहीं था, बल्कि वह प्रत्येक युग में नए संदर्भों के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है।

राम और संस्कृति को लेकर लोहिया के विचार इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि वे भारतीय समाज की जटिलताओं को एक व्यापक ऐतिहासिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में रखते हैं। वे राम को केवल धार्मिक प्रतीक के रूप में नहीं, बल्कि एक सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे मानते थे कि राम का आदर्श समाज केवल धर्म पर आधारित नहीं हो सकता, बल्कि उसमें सामाजिक न्याय, समानता और लोककल्याण की भावना भी आवश्यक है। यही कारण है कि लोहिया की दृष्टि में रामराज्य केवल धार्मिक व्यवस्था नहीं, बल्कि एक ऐसी सामाजिक संरचना थी, जिसमें सबके लिए समान अवसर और न्याय की व्यवस्था हो।

लोहिया के चिंतन में राम और संस्कृति का यह समन्वय भारतीय समाज की उन गहरी जड़ों की ओर संकेत करता है, जो सहस्राब्दियों से चली आ रही हैं और समय के साथ विकसित होती रही हैं। उनकी दृष्टि में राम भारतीयता की वह आत्मा हैं, जो कभी नष्ट नहीं होती, बल्कि प्रत्येक युग में नए रूपों में प्रकट होती रहती है। इसीलिए राम के प्रति लोहिया की आस्था केवल अतीत के प्रति अनुराग नहीं थी, बल्कि वह भविष्य के भारत की संरचना का भी एक महत्वपूर्ण पहलू थी।

डॉ. लोहिया का राम और संस्कृति-चिंतन भारतीय परंपरा, इतिहास और भविष्य की एक साझा दृष्टि प्रस्तुत करता है। वे राम को एक ऐसे चरित्र के रूप में देखते हैं, जो किसी धर्म, जाति या संप्रदाय तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय चेतना के मूल प्रवाह का हिस्सा हैं। उनकी संस्कृति-दृष्टि हमें यह सिखाती है कि परंपराओं को केवल पूजना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि उन्हें समझना और उनके भीतर निहित संदेश को अपने समय के अनुसार नए अर्थ देना भी आवश्यक है। लोहिया के लिए राम केवल एक धार्मिक व्यक्तित्व नहीं, बल्कि वे भारतीय समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक आदर्श थे, जो न केवल अतीत की धरोहर हैं, बल्कि भविष्य की संभावनाएँ भी संजोए हुए हैं।

डॉ. राममनोहर लोहिया का राम और संस्कृति-चिंतन केवल अतीत के स्मरण की क्रिया नहीं है, बल्कि यह वर्तमान और भविष्य के लिए भी एक दिशासूचक की भूमिका निभाता है। वे राम को केवल एक धार्मिक प्रतीक नहीं मानते, बल्कि उन्हें भारतीय समाज की आत्मा का जीवंत स्वरूप मानते हैं। राम केवल मंदिरों में स्थापित कोई मूर्ति नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय जीवन-दृष्टि का केंद्र हैं, जिसमें त्याग, संघर्ष, करुणा, न्याय और समानता के तत्व समाहित हैं। यही कारण है कि लोहिया राम को केवल भक्ति की वस्तु नहीं, बल्कि विमर्श का विषय बनाते हैं।

लोहिया का राम-चिंतन केवल धर्मशास्त्रों तक सीमित नहीं था, बल्कि वह लोक में व्याप्त रामकथा को अधिक महत्त्व देते थे। वे इस बात को स्पष्ट रूप से रेखांकित करते हैं कि राम केवल वाल्मीकि के रामायण तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’, कंबन की ‘कंब रामायण’, ऐलियार की तमिल रामायण, कृतिवास की बंगाली रामायण, और असम, ओडिशा, कर्नाटक तथा महाराष्ट्र की लोक-रामायणों में भिन्न-भिन्न रूपों में जीवंत हैं। वे मानते थे कि राम भारतीय जनजीवन में इतने गहरे समाए हुए हैं कि उन्हें किसी विशेष ग्रंथ तक सीमित नहीं किया जा सकता। रामकथा की यह विविधता स्वयं इस बात का प्रमाण है कि राम भारतीय संस्कृति का केंद्रीय तत्व हैं, जो समय और स्थान के अनुसार नए-नए अर्थ धारण करते रहे हैं।

डॉ. लोहिया की यह मान्यता थी कि राम का चरित्र लोकहित और न्याय की स्थापना के लिए संघर्ष का प्रतीक है। वे केवल एक राजा नहीं थे, बल्कि वे एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे, जहाँ नैतिकता, समानता और कर्तव्यबोध हो। वनवास के समय राम ने विभिन्न समाजों से जो संवाद किया, वह केवल राजनीतिक कूटनीति नहीं थी, बल्कि वह सामाजिक समरसता का प्रतीक था। निषादराज गुह, शबरी, सुग्रीव, हनुमान और विभीषण जैसे पात्र राम के उस व्यापक दृष्टिकोण को प्रकट करते हैं, जिसमें जाति, वर्ण और कुल की दीवारें टूट जाती हैं। यही लोहिया की दृष्टि में राम का सबसे बड़ा योगदान था—उन्होंने समाज के सभी वर्गों को एक सूत्र में बाँधा।

लोहिया राम और कृष्ण के तुलनात्मक अध्ययन में यह स्पष्ट करते हैं कि राम का जीवन संघर्षमय और नियमबद्ध था, जबकि कृष्ण का जीवन लचीला और चातुर्यपूर्ण। वे मानते थे कि राम समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं, जबकि कृष्ण समाज को राजनीति और रणनीति की बारीकियाँ सिखाते हैं। लोहिया राम को एक ऐसे नायक के रूप में देखते हैं, जो अन्याय और अधर्म के विरुद्ध एक नैतिक शक्ति के रूप में खड़े होते हैं। वे मानते थे कि भारतीय समाज को राम के नैतिक आचरण और कर्तव्यनिष्ठा से सीख लेनी चाहिए, जिससे एक आदर्श समाज की स्थापना संभव हो सके।

लोहिया के लिए संस्कृति केवल परंपरा के अनुकरण की वस्तु नहीं थी, बल्कि यह सतत परिवर्तनशील प्रवाह था। वे इस बात को स्पष्ट करते हैं कि भारत की सांस्कृतिक परंपरा में निरंतर विकास हुआ है, और राम इस विकास प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं। वे मानते थे कि रामकथा को केवल धार्मिक ग्रंथों की दृष्टि से देखने के बजाय सामाजिक न्याय और समानता की दृष्टि से देखना अधिक उपयोगी होगा। वे यह भी कहते हैं कि यदि राम के जीवन का सही अर्थ समझा जाए, तो वह भारतीय समाज की सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकता है।

राम का वनवास केवल एक पारिवारिक या राजनैतिक घटना नहीं थी, बल्कि वह एक सामाजिक यात्रा थी। इस यात्रा में उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के साथ आत्मीय संबंध स्थापित किए। लोहिया इसे एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं, जहाँ राजा केवल महलों में रहने वाला नहीं, बल्कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचने वाला होता है। यही कारण है कि लोहिया राम को एक जननायक के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो समाज के हर व्यक्ति को अपने साथ जोड़ने का प्रयास करते हैं।

लोहिया के रामचिंतन की एक विशेषता यह भी थी कि वे रामराज्य को किसी धार्मिक अवधारणा के रूप में देखने के बजाय इसे एक सामाजिक और राजनीतिक आदर्श के रूप में देखते थे। उनके लिए रामराज्य का अर्थ था—समानता, न्याय, स्वतंत्रता और लोककल्याण की स्थापना। वे मानते थे कि रामराज्य कोई दैवीय व्यवस्था नहीं थी, बल्कि यह एक ऐसा समाज था, जहाँ सभी को न्याय और समान अवसर मिलते थे। गांधी ने भी रामराज्य को इसी संदर्भ में देखा था, और लोहिया इस विचार को आगे बढ़ाते हुए इसे समाजवादी दृष्टिकोण से व्याख्यायित करते हैं।

राम के चरित्र में जो करुणा और संवेदनशीलता है, वह लोहिया को विशेष रूप से आकर्षित करती है। वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि राम केवल वीरता और शौर्य के प्रतीक नहीं थे, बल्कि वे संवेदनशीलता और करुणा के भी प्रतीक थे। वे अपने पिता के वचन का सम्मान करने के लिए राजसिंहासन छोड़ देते हैं, और जब सीता के वनगमन का प्रसंग आता है, तब भी वे व्यक्तिगत रूप से दुखी होते हैं, लेकिन राज्य के धर्म को सर्वोपरि मानते हैं। लोहिया इसे एक ऐसे नैतिक दायित्व के रूप में देखते हैं, जहाँ व्यक्ति अपने निजी हितों से ऊपर उठकर समाज के कल्याण को प्राथमिकता देता है।

डॉ. लोहिया यह मानते थे कि भारतीय समाज को राम के आदर्शों से प्रेरणा लेनी चाहिए। वे राम को केवल भक्ति के स्तर पर नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक विचारधारा के रूप में स्थापित करना चाहते थे। वे इस बात पर बल देते थे कि यदि राम के जीवन के मूल्यों को सही अर्थों में समझा जाए, तो समाज में व्याप्त असमानता, अन्याय और विभाजन की समस्याओं को हल किया जा सकता है।

संस्कृति को लेकर लोहिया का दृष्टिकोण यह था कि यह किसी एक वर्ग, जाति या संप्रदाय की संपत्ति नहीं हो सकती। वे इस विचार को खारिज करते हैं कि संस्कृति केवल अतीत की धरोहर है, बल्कि वे इसे भविष्य के निर्माण की प्रक्रिया मानते हैं। उनकी दृष्टि में राम इसी सांस्कृतिक प्रक्रिया के प्रतीक हैं। वे परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन स्थापित करने का कार्य करते हैं। वे अतीत की जड़ताओं को स्वीकार नहीं करते, बल्कि उन्हें नए संदर्भों में ढालकर समाज के लिए उपयोगी बनाते हैं।

लोहिया का राम और संस्कृति-चिंतन भारतीय समाज के लिए केवल ऐतिहासिक अध्ययन का विषय नहीं है, बल्कि यह एक जीवंत परंपरा का अंग है। वे राम को केवल स्मरणीय पात्र नहीं मानते, बल्कि उन्हें समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत मानते हैं। उनका मानना था कि यदि भारतीय समाज को आगे बढ़ना है, तो उसे राम के जीवन से सीख लेनी होगी—समानता, न्याय, करुणा और कर्तव्यबोध के मूल्यों को अपनाना होगा।

राम और संस्कृति को लेकर लोहिया का यह विचार भारतीय समाज को एक नई दिशा प्रदान करता है। यह केवल अतीत की व्याख्या नहीं करता, बल्कि भविष्य की संभावनाओं को भी इंगित करता है। लोहिया के लिए राम भारतीय समाज का वह आधार हैं, जिस पर एक नए और समतामूलक समाज की रचना संभव हो सकती है। उनका राम-चिंतन केवल धर्म और आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय और लोककल्याण की भावना को भी उजागर करता है। यही कारण है कि लोहिया का राम-चिंतन आज भी प्रासंगिक है और भारतीय समाज को नई दृष्टि देने की क्षमता रखता है।

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