कॉमेडी राजनेताओं को बेचैन करती है, यह स्वाभाविक है। अब उसे लेकर हिंसा भी होने लगी, जिसकी उचित ही चौतरफ़ा निंदा हो रही है। जब बात-बात पर नेता जिसे चाहें देशद्रोही ठहरा देते हों, अपनी पार्टी को पीठ दिखाने वाले पर टिप्पणी इतनी क्यों चुभने लगी?
लेकिन कुणाल कामरा का मारक व्यंग्य मैं परिवार के ग्रुप में साझा नहीं कर सका। कारण था दो-तीन गालियाँ। हालाँकि मौजूदा विवाद या गुंडई की तोड़फोड़ में वे मुद्दा नहीं थीं।
क्या कॉमेडी और ओटीटी धारावाहिकों आदि में भरती की गालियों का चलन बढ़ नहीं गया है?
भाषा में ऐसी मुखरता की शुरुआत हमने पहले बाहर के सिनेमा में प्रचुर देखी। हमारे यहाँ दशकों पहले नाटकों में विजय तेंदुलकर या कथासाहित्य में राही मासूम रज़ा आदि ने चरित्रों के मुताबिक़ गालियों का संतुलित प्रयोग किया। राहीजी ने तो ऐसा कुछ कहा भी था कि जब मेरे पात्र गाली बोले रहे हों तो उनके मुँह में मैं श्लोक तो नहीं रख सकता।
जब हम लोग थिएटर करते थे, तब भाषा को लेकर बहुत सजग नहीं रहे। जैसे बैकेट का नाटक ‘गोदो के इंतज़ार में’ (अनुवाद कृष्ण बलदेव वैद) का खेलते हुए। या एकाध अन्य नाटक — जिनमें एक मेरा लिखा और निर्देशित भी था — गाली का प्रयोग जहाँ-तहाँ टाला जा सकता था।
विदेशी सिनेमा या सीज़न/सीरीज़ में फूहड़ शब्दों की भरमार मिलती है। एक चैटबॉट के अनुसार हाल में ढेर ऑस्कर (सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म सहित) पाने वाली ‘अनोरा’ में चार अक्षरों वाली गाली का प्रयोग 517 बार हुआ। मार्टिन स्कोर्सेसी जैसे बड़े फ़िल्मकार ने भी ‘द वुल्फ़ ऑफ़ वॉल स्ट्रीट’ में भी फ़-शब्द का इस्तेमाल सैकड़ों बार किया, भले ‘स्वेयरनैट’ (935) का रेकॉर्ड वे नहीं तोड़ पाए। वैसे वह उनका रास्ता भी नहीं था।
इस मामले में जब-तब वही दलील दी जाती है, जो हिंदी अख़बार बात-बात में अँगरेज़ी शब्द ठूँसते हुए देते हैं — कि लोग जो भाषा तो बोलते हैं, हम वही तो लिखेंगे!
मगर भाईलोगो, लोग तो लिखने को नहीं आते। लिखने वाले ही लिखते हैं। सब लिखने वाले के विवेक पर निर्भर करता है।
मेरी बात को भाषिक प्रयोगों में किसी तरह की भीतर-बाहर की बंदिश की वकालत न समझा जाय। न पवित्रता का संदेश।
इतना ही समझें कि प्रयोग और ठूँसने में जो फ़र्क़ होता है — कम-अज़-कम वह बना रहे।