समाजशास्त्री गणनाथ ओबेसेकरे की याद में

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Dr. Shubhnit Kaushik

— डॉ शुबनीत कौशिक —

दिग्गज समाज शास्त्री और नृविज्ञानी गणनाथ ओबेसेकरे का 25 मार्च 2025 को निधन हो गया। अपनी बहुचर्चित पुस्तकों से समाजविज्ञान की दुनिया को समृद्ध करने वाले गणनाथ ओबेसेकरे (1930- 2025) के कृतित्व से मेरा पहला परिचय नीलाद्रि भट्टाचार्य की हिस्टॉरिकल मेथड्स की कक्षाओं में हुआ था।

प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में एमेरिटस प्रोफ़ेसर रहे गणनाथ ओबेसेकरे का जन्म श्रीलंका के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। उनके पिता पेशे से चिकित्सक थे, जो आयुर्वेदिक और एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में भारत से प्रशिक्षित हुए थे। उनके पिता सिंहली भाषा के साथ साथ हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत में दक्ष थे। पिता की इस बहुभाषिकता और सांस्कृतिक बहुलता में विश्वास का असर बचपन से ही गणनाथ के ऊपर रहा।

यूनिवर्सिटी के स्नातक छात्र के रूप में गणनाथ अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी रहे थे। उस दौर में एफआर लीविस सरीखे आलोचकों का गहरा असर उन पर रहा। रोमांसवादी धारा के प्रभाव में उन्होंने श्रीलंका के लोकगीतों और लोककथाओं को संकलित करना शुरू किया। और यहीं से वे समाजशास्त्र और नृविज्ञान की दुनिया से अनौपचारिक रूप से जुड़े। धार्मिक कर्मकांडों और श्रीलंका में मातृदेवियों की धारणा की पड़ताल उन्होंने शुरू की और अचरज नहीं कि आगे चलकर उन्होंने पट्टनी देवी से जुड़े सम्प्रदाय पर “द कल्ट ऑफ द गॉडेस पट्टनी” जैसी शानदार किताब लिखी। श्रीलंका में रहते हुए उन्होंने “संस्कृति” नामक पत्रिका भी निकाली थी।

बाद में वे फुलब्राइट स्कॉलरशिप प्राप्त कर वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में अध्ययन के लिए गए। जहां उन्होंने श्रीलंका में भू व्यवस्था, पट्टेदारी और नातेदारी के अंतर्संबंधों का सामाजिक ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत किया। सिगमंड फ्रायड, मैक्स वेबर, विटगेंस्टाइन, इवांस प्रिचर्ड जैसे विचारकों से वे प्रभावित जरूर रहे , मगर वे इन विचारको की सीमाओं को भी इंगित करते थे। अकारण नहीं कि समाजशास्त्र की दुनिया में उन्होंने अपना एक अलग मुकाम बनाया।

यूरोपिय विद्वानों द्वारा एशिया और अफ्रीका के समाजों पर किए गए अध्ययनों में उन समाजों के प्रति पूर्वाग्रह और उन विद्वानों की अवधारणाओं, स्थापनाओं की सीमाओं को भी उन्होंने लगातार प्रश्नांकित किया। वहीं वे एशियाई अफ्रीकी समाजों और उनकी संस्कृतियों को लेकर भी एक आलोचनात्मक दृष्टि विकसित कर सके।

वे उन एशियाई अफ्रीकी विद्वानों से भी असहमत थे जो उपनिवेशों की संस्कृति, धर्म, दर्शन अध्यात्म पर औपनिवेशिक संस्कृति के प्रभाव को सिरे से खारिज करते थे। उनका कहना था कि औपनिवेशिक प्रभाव को स्वीकार करके ही उपनिवेशवाद की समग्र आलोचनादृष्टि बनेगी और एशिया अफ्रीका के समाजों और आधुनिकता के साथ उनके जटिल संबंधों को उनकी समग्रता में समझा जा सकेगा।

इसी क्रम में कैप्टन कुक पर लिखी “द एपोथियोसिस ऑफ कैप्टन कुक” जैसी अपनी पुस्तकों में उन्होंने मार्शल साहलिन्स जैसे समाजशास्त्रियों की अवधारणाओं को जबरदस्त वैचारिक चुनौती दी। कैनिबल टॉक, द डूम्ड किंग, मेडुसाज हेयर जैसी अपने विचारोत्तेजक कृतियों से समाजशास्त्र और नृविज्ञान के संसार को समृद्ध करने वाले विद्वान गणनाथ ओबेसेकरे को सादर नमन!

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