— परिचय दास —
मनोज कुमार का चेहरा किसी पुराने स्मृति-चित्र की तरह हमारे भीतर बसा है—कुछ धुँधला, फिर भी तेजस्वी, कुछ नर्म, फिर भी दृढ़। जैसे किसी बूढ़ी माँ की आँखों में सहेजी गई किसी जवानी की तस्वीर। वह अभिनेता नहीं थे मात्र; वह स्वप्नद्रष्टा थे, एक ऐसे स्वप्न के जो भारत की धूल भरी गलियों, खेतों की हरियाली और सैनिकों की आँखों के दृढ़ निश्चय से जन्मा था। उन्होंने भारत को एक राष्ट्र के रूप में नहीं, बल्कि एक कविता, एक आरती, एक सपना और एक प्रतीक्षा के रूप में देखा और दिखाया।
सिनेमा के परदे पर उनकी उपस्थिति किसी धार्मिक मूर्ति की तरह थी, जो अपने संवादों से नहीं, अपने मौन से अधिक बोलती थी। ‘उपकार’ में जब वह भारत माँ के पुत्र की भूमिका निभाते हैं, तो यह अभिनय का कोई रेखाचित्र नहीं होता, बल्कि आत्मा का विस्तार लगता है। वह किसी किरदार को नहीं निभाते थे, वह उस किरदार में उतरते थे, जैसे कोई व्यक्ति नदी में उतरता है—धीरे-धीरे, गहराइयों को नापता हुआ, अंततः लहरों का हिस्सा बन जाता हुआ। उनकी आँखों में देशभक्ति एक नारे की तरह नहीं, एक चुप प्रार्थना की तरह झलकती थी। वह वंदेमातरम् नहीं चिल्लाते थे, वह वंदेमातरम् की आत्मा को जीते थे।
मनोज कुमार का अभिनय समकालीन नहीं था; वह एक कालातीत ध्वनि की तरह था, जो पचास साल बाद भी वैसी ही गूंज पैदा करता है। वह नायक थे, पर किसी रूढ़िभूत अर्थ में नहीं। उनका हीरोपन उस जमीन से जुड़ा था, जिस पर वह चलते थे, उन लोगों से जुड़ा था जिनकी तकलीफ़ें वे अपना समझते थे। ‘पूरब और पश्चिम’ हो या ‘क्रांति’, उनके यहाँ राष्ट्र एक विचार नहीं, एक अनुभव है, एक भोगा हुआ यथार्थ, एक पवित्र त्रासदी भी।
कभी-कभी यह लगता है कि उन्होंने सिनेमा को अपना निजी उपनिषद बना लिया था। वे संवाद नहीं लिखते थे, वे श्लोकों की तरह संवाद रचते थे, जिनमें लय होती थी, अर्थ की बहुस्तरीयता होती थी, और एक नैतिक अनुशासन भी। ‘शहीद’ फिल्म में भगत सिंह के रूप में उनका अभिनय उस आत्मबल का घोष है, जो न अभिनय से आता है, न निर्देश से—बल्कि आंतरिक चेतना से उपजता है। जब वे फाँसी के तख्ते पर बढ़ते हैं, तो दर्शक की रूह काँप जाती है, मानो वह खुद मृत्यु को आलिंगन करने चला हो।
मनोज कुमार का सिनेमा दरअसल लोकगीतों का सिनेमाई अनुवाद है—जहाँ खेत हैं, बाग हैं, स्नेह है, विरह है, और अंततः बलिदान है। वह मनुष्य के संघर्ष को राजनीतिक नहीं, आध्यात्मिक धरातल पर देखते थे। इसलिए उनके नायकों की पीड़ा भी किसी सन्त की पीड़ा जैसी लगती है—गहन, तपस्वी और पूर्णतः निजी। उन्होंने कभी किसी आंदोलन की भाषा नहीं बोली, पर उनका सिनेमा अपने आप में एक सांस्कृतिक आंदोलन था, जो गंगा-जमुनी तहजीब, किसान का पसीना, माँ की ममता और जवान की शहादत को एक ही श्वास में जोड़ता था।
उनका चेहरा—सीधा, सरल, फिर भी आश्चर्यजनक रूप से रहस्यमय। जैसे कोई भारतीय गाँव, जहाँ सब कुछ दिखता है, पर सब कुछ उजागर नहीं होता। उनकी मुस्कान में एक मिट्टी की गंध थी—वह गंध जो तब आती है जब पहली बरसात में खेत भीगते हैं। उनका अभिनय तकनीकी नहीं, आत्मिक था। शायद इसीलिए वह आलोचकों के सांचे में कभी फिट नहीं हुए। उन्हें न ‘क्लासिक’ कहा गया, न ‘पैरेलल’। वह एक मध्यवर्ती लोकगाथा थे—जहाँ सिनेमा, दर्शन और जनजीवन एकाकार हो जाते हैं।
‘रोटी कपड़ा और मकान’ में उन्होंने जो प्रश्न उठाया, वह मात्र एक फिल्मी प्रश्न नहीं था, वह एक युग का नैतिक प्रश्न था—क्या हम अपने नागरिकों को केवल जीवित रखने के उपाय दे रहे हैं, या उन्हें गरिमा से जीने का अधिकार भी? वहाँ उनका अभिनय किसी नेता की तरह नहीं, बल्कि एक नैतिक शिक्षक की तरह प्रकट होता है, जो दर्शक को आत्ममंथन के लिए आमंत्रित करता है। यह एक कठिन काम है—व्यावसायिक सिनेमा में नैतिकता को इस प्रकार संयोजित करना कि वह प्रचार लगे भी नहीं और प्रेरणा भी बन जाए। मनोज कुमार ने यह दुर्लभ संतुलन साधा।
वे ‘भारत कुमार’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। यह उपनाम स्वयं में एक लघु महाकाव्य है। यह एक नाम नहीं, एक पहचान थी, जिसे उन्होंने स्वयं अपने हाथों से गढ़ा, अपनी दृष्टि से रंगा और अपने श्रम से सजाया। आज की पीढ़ी शायद इस उपनाम को थोड़ा रूमानी या बोझिल समझे, पर उस समय यह उपनाम एक आंदोलन था—एक ऐसा आंदोलन जो राष्ट्र के भीतर एक आंतरिक राष्ट्र की खोज करता था।
मनोज कुमार का कैमरा हमेशा नीचे से ऊपर की ओर देखता था—जैसे कोई साधक अपने देवता को देखता है। उनके क्लोजअप में आँखें सबसे पहले बोलती थीं, फिर होठ हिलते थे। उस वक्त की तकनीकी सीमाओं के बावजूद, उनका कैमरा मनुष्य की आत्मा को पकड़ने का यंत्र बन जाता था। शायद इसलिए कि वे निर्देशक कम और दृष्टा अधिक थे। उनका कैमरा भी कवि था—जो चेहरों में छिपे दुःख को पकड़ सकता था।
मनोज कुमार का सिनेमा एकांत से उपजा सिनेमा था। उसमें भीड़ नहीं, अनुभव था। वह लोकप्रियता से अधिक पहचान के आकांक्षी थे। उन्होंने कभी ग्लैमर को अपने अभिनय का औज़ार नहीं बनाया, बल्कि उसे एक परिधान की तरह पीछे छोड़ दिया। उनका नायक एक फटी कमीज़ पहन सकता था, पर उसकी आत्मा अभिजात्य थी। वह भूखा हो सकता था, पर मूल्यहीन नहीं। शायद इसी कारण उनके पात्रों में एक गंभीर करुणा और गूढ़ गरिमा होती थी।
वे अभिनेता थे, पर उनका व्यक्तित्व एक संत की तरह था—संयमित, स्वाभाविक और लोकहितैषी। उन्होंने सिनेमा को पूजा की तरह किया। यह बात आज विचित्र लगे, पर वह सचमुच सिनेमा में राष्ट्र की आत्मा को देखना चाहते थे। उन्होंने नाच-गाने, हिंसा और रोमांस को कभी नकारा नहीं, पर उन्हें अपने दार्शनिक दृष्टिकोण से संतुलित किया। उनके गीत—‘मेरे देश की धरती,’ ‘चलो चलें माँ,’ ‘जय जवान जय किसान’—ये सब गीत नहीं, प्रार्थनाएँ हैं, जो मंदिरों में नहीं, जनमानस में गूँजती हैं।
उनकी मृत्यु किसी अभिनेता की मृत्यु नहीं है। वह एक युग का वियोग है। जैसे कोई ऋषि अपनी तपस्या पूरी कर स्वेच्छा से शरीर छोड़ दे, वैसे ही मनोज कुमार हमारी स्मृतियों की चौखट से उठकर कहीं दूर चले गए—जहाँ सिनेमा एक तप है, जहाँ अभिनय साधना है, और जहाँ हर फ़्रेम एक मंत्र है। हम उन्हें सिर्फ श्रद्धांजलि नहीं दे सकते, हमें उनकी बनाई उस सौंदर्यदृष्टि को समझना होगा, जिसमें भारत केवल एक राष्ट्र नहीं, एक भाव है—एक आकांक्षा है।
मनोज कुमार का जाना हमें एक बार फिर इस बात की याद दिलाता है कि सिनेमा मात्र मनोरंजन नहीं, आत्मा की पुकार भी हो सकता है। उन्होंने न तो नए शिल्पों के पीछे दौड़ लगाई, न कभी आधुनिकता का दिखावा किया। वे अपने मूल में रचनात्मक थे, और यही रचनात्मकता उनकी फिल्मों को कालातीत बनाती है। उनका योगदान किसी सूची में नहीं समाया जा सकता। वह नितांत व्यक्तिगत है, नितांत सार्वजनीन।
आज जब हम उनके अवसान पर नमन करते हैं, तो यह नमन एक ऐसे कलाकार को है, जिसने अपने देश, अपनी भाषा, अपने जन और अपने युग के साथ सिनेमा को जोड़ने का प्रयत्न किया—बिना शोर किए, बिना घोषणा किए। वह भारतीय सिनेमा के ऋषि थे—मौन, पर प्रभावशाली। मृत्यु से परे उनकी छवि, उनके संवाद, और उनके गीत, हमारे भीतर जीवित रहेंगे—एक स्मृति की तरह, एक प्रेरणा की तरह।
मनोज कुमार चले गए। पर हर बार जब हम ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’ सुनेंगे, तो उनके स्वरूप की छाया हमारे चारों ओर होगी—मृदुल, गंभीर, और अक्षय। यही उनकी सबसे बड़ी विजय है। यही उनका सबसे बड़ा उत्तराधिकार।