— प्रो. (डॉ.) राहुल पटेल —
“बाबा” के सपनवा के कइसे पूरा करबा,
जबतक अपसई में लड़बा।
भारत के जतियन के कइसे हक़ देवइबा,
जबतक “जात-पात” करबा।
देसवा के बहिनियन के कइसे जय करइबा,
जब “गिद्ध” बनि जाबा।
आपन अधिकरवा कइसे तू समझबा,
जबतक “वोट-बैंक” रहबा।
बाबा के सलहिया के कइसे मान रखबा,
जबतक “शिक्षित” न होइबा।
“इंडिया” के नमवा के “भारत” कइसे करबा,
जे ‘संविधनवा’ न पूजबा।
“संविधनवा” के लजिया कइसे तू रखबा,
अगर “भारतीय” न बनबा।।
“अम्बेडकर” के सपनवा के कइसे पूरा करबा,
जे तू ‘मानुष’ न होइबा।
बहुत सुंदर sir
वर्तमान सामाजिक स्थिति को कविता के माध्यम से रूबरू कराया है

प्रस्तुत काव्य अभिव्यक्ति , बहुत ही सारगर्भित है ।
जो ” गगर में सागर ” युक्ति को चरितार्थ करती है ।
जिसमें आचार्यश्री के द्वारा , बाबा साहब के वैचारिक चिंतन को सामाजिक न्याय , समता और संवैधानिक उपचारों के अनुरूप सामाजिक विकास को गति देने के लिए प्रेरित किया गया है ।
जहां बाबा साहब के विचारों से स्त्री , जाति, बंधुत्व , राजनैतिक चेतना , संवैधानिक उपायों के अनुरूप सामाजिक विकास को राष्ट्रीय मुद्दों को आज की आवश्यकता के अनुरूप लोक भाषा अर्थात सामान्यजन की भाषा में अभिव्यक्त किया गया है ।
सादर अभिनंदन आचार्य श्री राहुल पटेल सर
विभागाध्यक्ष , मानवविज्ञान विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय , प्रयागराज ।
बहुत सुंदर sir
वर्तमान सामाजिक स्थिति को कविता के माध्यम से रूबरू कराया गया है l