— कनक तिवारी —
डाॅ. भीमराव अम्बेडकर तटस्थ मूल्यांकन के बनिस्बत अतिशयोक्ति अलंकार बनाए जा रहे हैं। उन्हें संविधान के आर्किटेक्ट या निर्माता के रूप में वीर पूजा की भावना से प्रचारित किया जाता है। कटु आलोचक अरुण शौरी जैसे लोग अंबेडकर को प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में कमतर महत्व देते हैं। अम्बेडकर आजादी के आंदोलन के योद्धा नहीं थे। संविधान सभा में गांधीजी की मदद से जीतकर पहुंचे थे। इतिहास ने सिद्ध किया गांधी का फैसला देश और भविष्य की भलाई का था। अम्बेडकर नहीं होते तो आईन की आयतों के चेहरे के कंटूर उस तरह स्थिर नहीं किये जा सकते थे। अम्बेडकर कानून की नैसर्गिक प्रतिभा के सबसे जहीन पैरोकार थे।
जाति व्यवस्था की सड़ांध का दंश अम्बेडकर ने अपने स्नायुओं में झेला था। वेदना को सामाजिक क्रोध, फिर इंकलाब के आह्वान, फिर कानूनी इबारत में ढालकर अंधेरी पगडंडियों को राजमार्ग में बदलने का मौलिक काम बाबा साहेब अम्बेडकर ने किया। संविधान सभा के प्रमुख हस्ताक्षर जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, गोपालस्वामी आयंगर, अलादि कृष्णास्वामी अय्यर, वैधानिक सलाहकार श्री बीएन राव और खुद अम्बेडकर संविधान की व्याख्या की अंगरेजियत के मुरीद थे। निर्णायक निर्माताओं ने पुश्तैनी भारतीय दृष्टि का चश्मा भी ठीक से नहीं लगाया।
हर पार्टी भारतरत्न अम्बेडकर को अपनी छाती पर टांकने आतुर और मुकाबिले में है। अम्बेडकर ने आजादी के बाद राज्यसभा में खुला ऐलान किया था। जो संविधान उन्होंने बनाया है। वह एक तरह से बकवास है। उनका बस चले तो उसे जला देंगे। लगभग पूरे वाद विवाद में अम्बेडकर ने अल्पमत बहुमत का संसदीय पहाड़ा पढ़ाए बिना बार बार सर्वसम्मत फार्मूला अपने धाकड़ अंदाज में निकाला। उनकी निर्णायक प्रस्तुति के खिलाफ पेश लगभग सभी संशोधन खारिज होते गए।
अम्बेडकर गांधी की सियासी दृष्टि से संविधान निर्माण के कायल तो क्या विरोधी रहे। सविनय अवज्ञा, धरना, सिविल नाफरमानी, असहयोग, जन आंदोलन और हड़ताल जैसे निष्क्रिय प्रतिरोध के गांधी हथियारों का अपनी कानूनी निष्ठा के कारण विरोध किया। उनकी संवेदना लेकिन एक मुद्दे पर चूक गई। उन्होंने कहा किसी को सरकार से शिकायत हो तो सीधे उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में दस्तक दे सकता है। सड़क आंदोलन की क्या जरूरत है। खस्ताहाली को भी लूटने वाले वकीलों की फीस, जजों की कमी, नासमझी, चरित्रहीनता और ढिलाई तथा मुकदमों की मर्दुमशुमारी से परेशान पूरी व्यवस्था के रहते अम्बेडकर के आश्वासन के बाद जनता का भरोसा बुरी तरह कुचल दिया गया है।
ग्राम स्वराज पर आधारित गांधी की प्रस्तावित शासन व्यवस्था की भी अम्बेडकर ने खिल्ली उड़ाई। उनके आग्रह के कारण शहर आधारित, विज्ञानसम्मत और उद्योग तथा कृषि की मिश्रित अर्धसमाजवादी व्यवस्था का पूरा ढांचा नेहरू के नेतृत्व में खड़ा हुआ। बाबा साहेब के अनुसार गांव गंदगी, अशिक्षा और नादान समझ के नाबदान रहे हैं। वे नहीं मानते थे कि गांव प्राचीन गणतंत्र की मशाल रहे होंगे। अम्बेडकर के कारण ग्राम पंचायतों का गठन मौलिक अधिकार के परिच्छेद में नहीं रखा जा सका। वह कमी राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में पूरी की। उसका अमल नरसिंहराव के कार्यकाल में हो सका।
हिन्दू धर्म के सांस्कृतिक राष्ट्रवादी नेता अम्बेडकर को अपने कांधों पर उठाए घूमते हैं। ऐसा किए बिना सत्ता के तख्तेताउस में दरारें आने की गुंजाइश हो सकती है। अम्बेडकर ने दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण का पुख्ता इंतजाम क्षतिपूर्ति की तरह किया। वे चाहते थे हिन्दू धर्म की कूढ़मगजता और जातीय अत्याचारों के चलते वंचित वर्गों को बड़ी भूमिका मिलनी चाहिए। इसीलिए उकताकर वे लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म में चले भी गए। बुद्ध ने शून्य से लेकर अनंत तक जाने तक के जीवन का धार्मिक विश्वविद्यालय अकेले खड़ा किया। अम्बेडकर को लंबा जीवन नहीं मिला। अन्यथा उनका निर्णय इतिहास में और कारगर सिद्ध हो सकता था।
असाधारण बौद्धिक व्यक्तित्व के बाबा साहेब के निजी जीवन में दुखों के अंबार थे। उनके कई कथन और राजनीति के कुछ पड़ाव विवादास्पद और विरोधाभासी भी रहे हैं। गांधी और अम्बेडकर का संवाद समीकरण आजादी के पहले के भारत का महत्वपूर्ण परिच्छेद है। गांधी ने बड़े बौद्धिक मतभेदों के रहते भी अम्बेडकर को देश हित में भूमिका सौंपी। उसके बिना गांधी का अहंकार सुरक्षित रह सकता था। लेकिन देष को अपनी बुनियाद पर खड़ा होने में आजादी के बाद कई अज्ञात खतरों से खेलना पड़ता। गरीब, लाचार, अशिक्षित, मजलूम मनुष्यों के समूह से लेकर अमीर, पूंजीपति और भ्रष्ट नौकरशाहों तक के उपचेतन में संविधान की हिदायतों का एक कोरस आज अंतध्र्वनि की तरह गूंजता रहता है। इस समझ का बीजारोपण करना आसान नहीं था। अम्बेडकर संविधान संगीत की सिम्फनी रचने के आर्केस्ट्रा में शामिल थे। उसका राग तो नेहरू ने अपने प्रसिद्ध भाषण में उद्देषिका के जरिए तय किया था। बाद में संगीत की वह ध्वनि निर्देशक अम्बेडकर के हवाले कर दी गई। वह अनुगूंज आज भारतीय जीवन की है। अम्बेडकर नहीं होते तो तरन्नुम रचना अनिश्चित हो सकता था।