जेपी-लोहिया पर सी.आई.ए.का एजेंट होने का आरोप लगाना दिमागी दिवालियापन

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— सुरेंद्र किशोर —

क किताब का सहारा लेकर एक व्यक्ति ने हाल में लिख दिया कि जेपी और लोहिया सी.आई.ए.के एजेंट थे। जहां तक मेरी जानकारी है, इससे बड़ा झूठ कुछ और नहीं हो सकता। किसने लिखा ,उनका नाम मैं यहां जानबूझ कर नहीं लिख रहा हूं।क्योंकि मैं किसी के साथ किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहता। हालांकि सोशल मीडिया पर उनका नाम तैर रहा है।

जेपी के बारे में

जिस इंदिरा गांधी को जेपी ने 1977 में सत्ताच्युत किया,उन्होंने भी जेपी को सी.ए.आई.का एजेंट नहीं कहा।हां,जेपी की ओर इशारा करते हुए प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने इतना जरूर कहा था कि जो लोग पूंजीपतियों (जाहिर है कि उनका इशारा भारतीय पूंजीपतियों की ओर था।)के पैसों पर पलते हैं,उन्हें हमारी सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने का कोई नैतिक हक नहीं है। जेपी ने उसके जवाब में बताया था कि मेरा निजी खर्च कैसे चलता है।जेपी के निजी आय-व्यय का पूरा विवरण तब की साप्ताहिक पत्रिका ‘एवरीमैन’ में छपा था। मेगासेेसे अवार्ड के पैसों के सूद से जेपी का खर्च चलता था।गांव से अनाज आता था।कपड़े वगैरह उनके दोस्त बनवा देते थे।आदि आदि जेपी के निजी सचिव को रामनाथ गोयनका वेतन देते थे–कागज पर एक्सप्रेस का उन्हें पत्रकार बना कर। मैंने जेपी का जीवन स्तर करीब देखा था। उतना बड़ा नेता सी.आई.ए.का एजेंट होता तो उसके जीवन स्तर पर भी उसकी झलक साफ दिखाई पड़ती।

डा.राममनोहर लोहिया

सन 1967 के आम चुनाव के बाद प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने आई.बी.से इस बात की जांच करवाई थी कि चुनावों में किन -किन दलों और नेताओं को विदेशी धन मिले। इंदिरा जी को शक था कि प्रतिपक्षी नेताओं ने विदेशी पैसों के बल पर ही कांग्रेस को सात राज्यों में चुनाव में हरा कर सत्ता से बाहर कर दिया।(याद रहे कि कुछ ही समय बाद मध्य प्रदेश और यू.पी.में दल बदल से कांग्रेस सरकार हटी थी।) उधर आई.बी.की रिपोर्ट आ गई।पर वह रिपोर्ट कांग्रेस के लिए भी असुविधाजनक थी।विदेशी पैसा लेने वालों में कांग्रेसी नेताओं के भी नाम थे। इसलिए रिपोर्ट को दबा दिया गया। पर,न्यूयार्क टाइम्स ने उस रिपोर्ट को छाप दिया।सन 1967 में संभवतः अप्रैल या मई में उस रिपोर्ट पर संसद में भारी हंगामा हुआ। उस हंगामें के बाद गृह मंत्री वाई.बी.चव्हाण ने संसद में कहा था कि ‘‘खुफिया ब्यूरो की उस रपट को सार्वजनिक करना उचित नहीं होगा।क्योंकि उससे इस देश के उन विभिन्न राजनीतिक दलों की बदनामी होगी जिन पर चुनाव के दौरान विदेशों से पैसे लेने की सूचना मिली है।’’

रिपोर्ट में यह लिखा हुआ था–सी.आई.ए. ने कुछ दलों के नेताओं को धन दिया।के.जी.बी.ने कुछ अन्य दलों के लोगों को धन दिया। कांग्रेस के नेताओं में से कुछ ने सी.आई.ए. और कुछ अन्य लोगों ने के.जी.बी.से पैसे लिये।सिर्फ एक राजनीतिक दल के किसी नेता ने किसी देश से कोई पैसा नहीं लिया,वह दल डा.लोहिया का था–यानी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी।

दरअसल शीत युद्ध के जमाने में इस देश के जो नेता व अन्य सी.आई.ए.से पैसे लेते थे,वे अपने विरोधी नेताओं के बारे में प्रचार करते थे कि वे के.जी.बी.से लेते हैं। के.जी.बी.(मित्रोखिन पेपर्स में सब दर्ज है)से पैसे लेने वाले अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ यह प्रचार करते थे कि वे सी.आई.ए. से लेते हैं।

अरे भई, हर नियम का अपवाद भी होता है। डा.लोहिया वही अपवाद थे। लोहिया के जीवन काल में उनके दल के किसी नेता को भी चाहते हुए भी विदेश से कोई पैसा लेने की हिम्मत ही नहीं थी।

लोहिया दो बार सांसद रहे–फिर भी अपनी निजी कार नहीं थी। सी.आई.ए.अपने एजेंट को दिल्ली की सड़कों पर लोहिया की तरह पैदल चलने नहीं देता था।बल्कि साधन मुहैया करा देता था। यहां तक कि साठ के दशक में इस देश के एक बडे़ औद्योगिक घराने के पे -रोल पर विभिन्न दलों के पंाच दर्जन  सांसद थे।जाहिर है कि लोहिया उनमें भी शामिल नहीं थे।

जिस सज्जन ने जेपी-लोहिया को बदनाम करने की कोशिश की है, उनसे एक आग्रह है– अमेरिका के न्यूयार्क शहर में उनका कोई मित्र हो तो 1967 के उस न्यूयार्क टाइम्स की उस खबर की फोटो काॅपी मंगवा लें।उसमें भारतीय एजेंट नेताओं के नाम मिल जाएंगे या फिर न्यूयार्क टाइम्स के नई दिल्ली ब्यूरो के प्रधान से संपर्क करें, शायद उनसे मदद मिले। अस्सी के दशक में नई दिल्ली ब्यूरो के प्रमुख माइकल टी काॅफमैन पटना में मुझसे मिले थे।अब वे इस दुनिया में नहीं हैं।यदि होते तो मैं उनसे संपर्क कर सकता था।

और अंत में

सही सूचनाओं के आधार पर कोई भी लेखक-पत्रकार किसी के खिलाफ सच बात लिखता है ,भले राजनीतिक दुराग्रह के तहत ही एकतरफा ही क्यों न लिखे, तो उसके लिए मेरे मन में आदर पैदा होता है।पर निराधार बातों से खुद लेखक की साख खराब होती है।उसकी किसी दूसरी सही बात पर भी शंका होने लगती है।

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