— परिचय दास —
वह एक साँझ थी, जब धरती की माटी ने हल्की-सी साँस ली और बादलों ने चुपचाप उसे अपनी छाया में भर लिया। उस दिन हवा में एक अलग तरह की गंध थी—पेड़ों की भीनी सिसकी और नदियों की चुप्पी में लिपटी आशा की कोई उजली डोर। अप्रैल की उस तारीख़ पर, जैसे समय खुद पृथ्वी के चरणों में बैठकर उसका आँचल सँवार रहा था।
एक दिवस, जिसे हमने नाम दिया—पृथ्वी दिवस। पर क्या कोई एक दिन ही पर्याप्त है उस माँ के लिए, जो हर क्षण हमारे लिए साँस, अन्न, जल और जीवन बनकर धड़कती है? वह जो थकती नहीं, टूटती नहीं, बस चुपचाप देती रहती है, जैसे तुलसी की लौ, जैसे आँचल में छिपी वह चुप पुकार जिसे हम सुनते तो हैं पर सुनना नहीं चाहते।
2025 का यह पृथ्वी दिवस—एक प्रतिज्ञा की तरह हमारे सामने आया है। इसकी थीम है—”हमारी शक्ति, हमारा ग्रह”। यह कोई नारा नहीं, यह आत्मा की पुकार है। एक स्मरण है कि इस नीले ग्रह की धमनियों में बहता हर रंग, हर गंध, हर आर्तनाद—हमसे जुड़ा है, हमारी ज़िम्मेदारी है।
हमारी शक्ति… क्या है वह शक्ति? क्या केवल बाँध बना लेना? क्या आकाश छूती इमारतें? क्या समुद्र को काट कर सड़कें बना देना? नहीं, हमारी शक्ति वह है जो एक छोटे से बीज को मिट्टी में डालकर पेड़ बनने का स्वप्न देखती है। वह शक्ति है जो हवा को हल्की सी धुन में बदल देती है, जिसमें चिड़ियाँ गा सकती हैं। वह शक्ति जो यह जानती है कि विकास का अर्थ विनाश नहीं होता।
ग्रह हमारा है… यह केवल भूगोल की एक उक्ति नहीं, यह रागात्मक संबंध की पुनर्पुष्टि है। यह वही बोध है जो हमें मिट्टी की सौंध में मिलता है, जब पहली बारिश गिरती है और बालक झूम उठता है। यह वही ग्रह है, जहाँ हम पहली बार चींटी को देखकर चकित हुए थे, और जहाँ हम अंतिम बार किसी फूल को निहारते हुए मौन हुए थे।
इस वर्ष की थीम हमें चुनौती देती है, जैसे माँ अपने बेटे को पहली बार हल चलाते देखकर कुछ नहीं कहती पर भीतर से उसकी आँखों में एक अघोषित विश्वास चमक उठता है। हमारी शक्ति—सामूहिक चेतना की वह आग है, जो लाखों वर्षों की स्मृति में छिपी है, जो आदिम मनुष्य की आँखों में थी जब उसने पहली बार आग को छुआ और जो आज भी है जब कोई किशोर एक पुरानी बैटरी को सौर पैनल में बदल देता है।
स्वच्छ ऊर्जा की बात होती है। 2030 तक तीन गुना स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन। यह कोई नीति का लक्ष्य नहीं—यह कविता की वह पंक्ति है, जो भविष्य के लिए लिखी जा रही है। वह भविष्य जिसमें आसमान नीला होगा, नदियाँ अपने नामों की तरह पवित्र होंगी, और बच्चे ज़मीन पर बैठकर चित्र बना सकेंगे बिना इस डर के कि कोई धुआँ उन्हें रोक देगा।
यह सुगद्य नहीं—प्रार्थना है। एक ऐसी प्रार्थना जो पेड़ की छाया की संवेदना है, जहाँ शब्दों में हरियाली है और वाक्यों में नदी की चाल। इसमें आँसू भी हैं, ग्लानि भी और साथ ही वह उम्मीद भी जो हर सूर्योदय से पहले की अंधेरी घड़ी में चमकती है।
धरती की देह को हमने बार-बार नापा है—उसके पर्वतों की ऊँचाई, समुद्र की गहराई, रेगिस्तान की तपिश, और गुफाओं की नमी तक को हमने आँका है—पर क्या कभी उसकी आत्मा को छूने की कोशिश की? क्या हमने महसूस किया है उस चट्टान की स्मृति, जिस पर आदिम मनुष्य ने पहली बार कोई चित्र बनाया था? क्या हमने कभी किसी जड़ को हाथ में लेकर देखा है, उसकी थकान को जाना है?
आज जब हम ‘हमारी शक्ति, हमारा ग्रह’ कहते हैं, तो यह स्मरण भी ज़रूरी है कि शक्ति का अर्थ केवल नियंत्रण नहीं होता—उसमें करुणा भी होती है, सह-अस्तित्व का बोध भी, और सबसे बढ़कर—उत्तरदायित्व। हम इस ग्रह के उत्तराधिकारी नहीं, उसके रक्षक हैं।
इस सदी का यह मूक सत्य है कि हमें अब ऐसे मनुष्य की आवश्यकता है, जो पेड़ से आँख मिलाकर बात कर सके, जो पत्थर को केवल वस्तु नहीं, स्मृति मान सके। जो हवा में उँगली घुमाकर उसकी चाल पहचान सके और जो जानता हो कि सूरज की रोशनी केवल रोशनी नहीं, जीवन की पहली पुकार है।
पृथ्वी दिवस केवल एक दिन नहीं है। यह एक गीत है, जिसे पृथ्वी खुद हमारे भीतर से गा रही है—कभी माँ की लोरी में, कभी किसान के माथे की रेखाओं में, कभी उस बच्चे की मुस्कान में, जिसने पहली बार मिट्टी से घरौंदा बनाया।
चलो, इस बार हम वचन दें, पर केवल शब्दों में नहीं—अपने कर्मों में। चलो एक पेड़ लगाएँ पर उसे दोस्त कहकर; चलो नदी के किनारे बैठें, पर उसे सुने बिना नहीं जाएँ; चलो बिजली के हर स्विच को बंद करने से पहले उस कोयले की खदान की गंध याद करें, जहाँ अँधेरा पसीने में घुला होता है।
धरती से प्रेम करना कठिन नहीं। बस इतना करना है कि एक क्षण ठहरें। अपनी साँस को महसूस करें। उस हवा को जानें, जो हमारे भीतर है, और फिर उसकी दिशा को पहचानें। वह हमें ले जाएगी—उन रास्तों पर जहाँ कोई वृक्ष हमारी प्रतीक्षा कर रहा है, कोई चिड़िया अपनी कहानी कहने को आतुर है, और कोई फूल… बस खिलने ही वाला है।
यह समय केवल सोचने का नहीं, करने का है। और यह करना किसी आंदोलन के बड़े मंचों पर नहीं बल्कि छोटी-छोटी बातों में छिपा है—जैसे काग़ज़ के दोनों ओर लिखना, प्लास्टिक की बोतल को फिर से भरना, या एक पौधे को यह कह देना कि ‘मैं तेरे साथ हूँ।’
हमारी शक्ति, हमारा ग्रह—इसमें “हम” ही सबसे ज़रूरी शब्द है। वह “हम” जिसमें मैं और तुम नहीं, बल्कि सब कुछ समाहित है—पेड़, पशु, नदियाँ, पत्थर, और वे सपने जो अभी केवल बीज हैं और तब, जब अगला पृथ्वी दिवस आएगा, हम शायद इसे एक उत्सव की तरह नहीं, एक मौन संतोष की तरह मनाएँगे—कि हमने अपने हिस्से की धरती को थाम रखा है, सँभाल रखा है और उसमें एक नन्हीं -सी मुस्कान बो दी है।
वह घड़ी जब पृथ्वी थमती है—सिर्फ एक क्षण के लिए—तो वायुमंडल की झील में हलचल की जगह स्थिरता उतर आती है। जैसे धरती कहती हो—”अब तो मुझे सुनो। अब तो मेरे भीतर उतर कर देखो कि मेरे सीने पर कितने बोझ हैं।” यह बोझ सिर्फ जलवायु परिवर्तन या प्रदूषण के आँकड़े नहीं, यह वे मौन क्रंदन हैं जो पर्वतों के भीतर गूंजते हैं और जिन्हें हम तकनीक के शोर में अनसुना कर देते हैं।
धरती पर चलना कभी केवल चलना नहीं था। यह एक संवाद था। जब हम नंगे पाँव धूल में चलते थे तो वह धूल हमारे तलवे पढ़ लेती थी—हमारे स्वप्नों की गति, हमारी थकान की छाया, हमारी दिशा की सच्चाई। अब हम जूतों की मोटी परतों में लिपटे हैं और धरती तक पहुँचने में हमारा हृदय थक जाता है।
“हमारी शक्ति, हमारा ग्रह”—यह कहना अपने-आप में एक संकल्प है पर वह शक्ति कैसी हो? क्या वह केवल ऊर्जा संयंत्रों में सिमटी रहे? या फिर वह उस किसान की कुदाल में हो जो बिना शिकायत हर मौसम की पीठ पर बोझ ढोता है, ताकि किसी अजनबी की थाली में रोटी पूरी रहे? शक्ति वह भी है जो फूल को काँटे के बगल में मुस्कुराने देती है, और वह भी जो वृक्ष को अपने फल छोड़ने के बाद भी छाया देना सिखाती है।
हमने प्रकृति को केवल एक संसाधन माना। उसे उपयोग की दृष्टि से देखा और उसने हमें केवल ममता दी। कितनी बार हमने नदियों से छीना, पर्वतों को चीर डाला, और हवा को कैद किया और उसने फिर भी हमें जीवन दिया, श्वास दी, छाया दी। क्या यह हमारी शक्ति नहीं कि हम अब उसे पुनः आदर दे सकते हैं?
कभी सोचिए, यदि एक दिन धरती बोलने लगे—वह क्या कहेगी? वह शायद हमें किसी सख़्त सज़ा की धमकी नहीं देगी, न ही कोई शिकायतों की सूची खोलेगी। वह बस चुपचाप हमारा हाथ पकड़कर किसी जलते हुए जंगल में ले जाएगी, और कहेगी—”यह तुम्हारा ही घर था। अब देखो, क्या बचा?”
वह हमें समुद्र की ओर ले जाएगी, और वहाँ खड़े होकर पूछेगी—“क्या तुम्हें याद है यह वही लहरें हैं, जिनके किनारे तुमने बचपन में घरौंदे बनाए थे? अब देखो, वे किनारे कहाँ हैं?” और फिर वह हमें एक बीज की तरह अपने हृदय में रोप देना चाहेगी—एक बीज, जिससे फिर से जीवन फूट सके।
हमने न केवल अपनी ज़रूरतों के लिए पृथ्वी से लिया बल्कि अपनी असुरक्षाओं के लिए भी। कभी हमने जंगलों को इसलिए काटा क्योंकि हमें भय था कि वे हमें घेर लेंगे। कभी हमने नदियों को बाँधा क्योंकि हमें डर था कि वे बाढ़ लाएँगी और इस डर में हमने वही सब नष्ट किया जो हमें जीवन देता था।
पृथ्वी दिवस 2025, हमें यह कहने नहीं, सुनने आया है। यह दिन उस मौन की तरह है जो शब्दों से अधिक बोलता है। वह मौन जो वृक्षों की टहनियों में गूंजता है, पक्षियों के पंखों में काँपता है और मिट्टी की नम गंध में साँस लेता है।
हम यह भी याद रखें कि शक्ति का एक अर्थ होता है—दया। और यह दया सबसे पहले हमें स्वयं से करनी है। अपनी आदतों को, अपने उपभोग को, अपने निर्णयों को उस धरती की कसौटी पर कसना है, जो हमें हर दिन जीवन देती है। जब हम प्लास्टिक का एक थैला छोड़ते हैं, वह केवल वस्तु नहीं गिरती—वह हमारी समझदारी की एक परत झड़ती है।
कविता लिखने से अधिक धरती के लिए जीना एक तपस्या है। यह वह काव्य है, जिसमें केवल शब्द नहीं, कर्म भी चाहिए। ऐसा कर्म जो निस्संग हो, नम्र हो और दीर्घकालिक हो।
धरती के साथ हमारा संबंध निरंतर है। यह निरंतरता ही उसकी सच्ची आराधना है। न कोई दिन, न कोई पर्व—बस एक सतत प्रयास, एक जीता-जागता प्रण।
हम फिर लौटते हैं—उसी धरती की गोद में बैठकर, उसकी उँगलियाँ थामे और उस गीत को सुनने की कोशिश करेंगे जो वह हमें चुपचाप वर्षों से गा रही है।
रात्रि के गहनतम क्षणों में जब आकाश मौन होता है और तारे अपनी नमी में डूबे होते हैं, तब पृथ्वी सबसे अधिक जागती है। वह हमारी नींदों के नीचे करवटें बदलती है, वह हमारे स्वप्नों के नीचे करवटें बदलती है, और चुपचाप हमारे हृदय की स्पंदन-रेखा पर अपना हाथ रख देती है—जैसे किसी माँ ने अपने बच्चे की धड़कनों की जाँच की हो।
क्या आपने कभी मिट्टी की नब्ज सुनी है? वह मौन में बोलती है। वह कभी कोई आदेश नहीं देती, कोई क्रोध नहीं दिखाती—बस अपने क्षय को समर्पण में बदल लेती है। एक टूटा हुआ पत्थर, एक सूखी हुई पत्ती, एक बहती हुई नदी—हर कोई वहाँ सीख देता है कि परित्याग भी एक प्रकार की करुणा हो सकती है।
अब जब विज्ञान और बाजार ने मिलकर आकाशगंगा को मापा है, तब पृथ्वी अपने ही आँगन में उपेक्षित हो गई है। हमारी शक्ति, जो सौर पैनलों, अंतरिक्ष उड़ानों और कृत्रिम बुद्धियों में उलझी है, क्या वह यह भी जानती है कि एक उगती हुई दूब की जिद में कितनी ऊर्जा छुपी होती है?
यह शक्ति वह नहीं जो प्रकृति पर शासन करे—यह वह शक्ति है जो प्रकृति के साथ संवाद करे। एक बूँद पानी के लिए संघर्ष करते खेतों की दरारें हमें यह नहीं बतातीं कि हम असहाय हैं, बल्कि यह बताती हैं कि हमने अपनी शक्ति को विस्मरण के जल में डुबो दिया है।
हमारी शक्ति क्या वह नहीं होनी चाहिए जो एक पक्षी के घोंसले को न गिराए? जो समुद्र की लहरों को सुन सके, बिना शोर के? जो यह पहचान सके कि कोई पेड़ केवल ऑक्सीजन नहीं देता, वह हमारे अंदर वह भाव जगाता है जो शब्दों से परे है।
धरती हमें शक्ति नहीं देती, वह शक्ति में विश्वास जगाती है। वह हमें लड़ने नहीं, जोड़ने सिखाती है। उसका प्रत्येक तत्त्व—मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, आकाश—कोई दान नहीं, कोई ऋण नहीं बल्कि एक सह-अस्तित्व की रचना है।
अब जब पृथ्वी दिवस, 2025 धीरे-धीरे अपने आलोक में उतर रहा है तो यह समय है कि हम शक्ति को फिर से परिभाषित करें। न वह शक्ति जो बाहरी विजय की भूखी हो, न वह जो आंकड़ों की दीवारों पर चढ़े, बल्कि वह जो एक पौधे के अंकुर से भी प्रेरणा ले सके।
एक बच्चा जब पहली बार पृथ्वी को छूता है, वह उसे सिर्फ ज़मीन नहीं लगता—वह उसे कोई आदिम कहानी लगता है, जो उसके पूर्वजों की हड्डियों से बनकर मिट्टी बनी हो। और यही वह गहराई है, जिसे हमने कंक्रीट के नीचे दबा दिया।
पृथ्वी दिवस केवल धरती के लिए नहीं, हमारे लिए एक अवसर है—अपने भीतर की उस गंध को खोजने का जो धूल में, धूप में, और बूँद में छिपी रहती है। उस गंध को जिसने कभी हमारे पुरखों को गीतों में बाँधा, ऋचाओं में रचा और वनों में गाया।
एक निमंत्रण है—धरा के आलिंगन में लौटने का। वहाँ जहाँ कोई शोर नहीं है, पर सब कुछ बोला जा रहा है। वहाँ जहाँ शक्ति का अर्थ केवल ऊर्जा नहीं, अनुभूति भी है और तब, जब हम पृथ्वी से कहेंगे—”यह ग्रह हमारा है,” तो वह मुस्कुराकर कहेगी—”और तुम मेरे हो।”
प्रकृति कभी अपने सौंदर्य का बखान नहीं करती। वह न फूलों को कहती है कि वे खिले रहें, न पत्तियों को कि वे हरे रहें। वह केवल उपस्थित रहती है—संपूर्णता में, उदारता में, एक ऐसी मौन गरिमा के साथ जिसे छू पाना आत्मा का सौभाग्य है। और वही प्रकृति जब पृथ्वी कहलाती है, तो वह केवल एक खगोलीय पिंड नहीं, अपितु एक जीवित कविता बन जाती है—जिसे हम रोज़ अपने पैरों से रौंदते हुए भी पढ़ते हैं।
पृथ्वी की सबसे कोमल अभिव्यक्ति शायद वह क्षण होता है जब एक माँ अपने शिशु को मिट्टी में खेलने देती है। वह जानती है कि वह मिट्टी केवल धूल नहीं, एक आदिम भाषा है, जो उसकी संतति को उसकी जड़ों से जोड़ देगी। जब बच्चे की उंगलियाँ उस मिट्टी को छूती हैं, तब वे अक्षर नहीं, अनुभव सीखते हैं—वह सीख जो किसी पाठ्यक्रम में नहीं होती।
आज जब हम पृथ्वी दिवस पर ‘शक्ति’ की बात करते हैं, तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सच्ची शक्ति केवल निर्माण में नहीं, धैर्य में भी होती है। पृथ्वी ने बिना शिकायत लाखों सालों से हमारे प्रत्येक विक्षोभ को सहा। जंगलों के कटने, नदियों के सिकुड़ने, आकाश के धुँधलाने और समुद्रों के क्रुद्ध होने तक—वह सब कुछ सहती रही, ठीक वैसे ही जैसे एक चुप प्रेमिका, जो प्रिय के क्रोध को भी उसकी व्यथा समझकर स्वीकार कर लेती है।
यह शक्ति का वह रूप है, जो रोदन से नहीं, मौन से उजागर होता है। जो पर्वतों की चुप्पी में गूंजता है, जो रेगिस्तानों की तपिश में तपस्या बन जाता है, जो बर्फ की श्वेत शांति में सघन करता है हमारी आत्मा को।
‘हमारा ग्रह’—यह वाक्य तब अर्थवान होता है जब ‘हमारा’ का अभिप्राय अधिकार नहीं, अपनत्व हो। अपनत्व जिसमें लिप्सा नहीं, लय हो। जिसमें हम पृथ्वी के साथ नहीं, पृथ्वी के भीतर जीने लगें। जब हम किसी नदी के किनारे बैठकर उसके बहाव को न सिर्फ देखें बल्कि उसे अपने भीतर होते बहाव के साथ जोड़ें। जब किसी चिड़िया का गीत हमें संगीत नहीं, संवाद लगे।
हमारे दौर की त्रासदी यह नहीं कि हम पृथ्वी को नष्ट कर रहे हैं बल्कि यह है कि हम उसे जानने की इच्छा खो चुके हैं। हमने उसे आंकड़ों में, ग्राफों में, पॉलिसियों में बाँध दिया है—और उस सबके बीच वह अस्फुट स्वर गुम होता जा रहा है, जो कहता था—”मैं तुम्हारे प्रथम स्वप्न की भूमि हूँ। मुझे पहचानो, जैसे तुम अपने पूर्वजों की स्मृति को पहचानते हो।”
आज जब ‘पृथ्वी दिवस 2025’ की थीम “हमारी शक्ति, हमारा ग्रह” गूंज रही है तब यह केवल उद् घोष नहीं, आत्म-स्मरण होना चाहिए। एक आह्वान कि हम फिर से देखना सीखें, सुनना सीखें और सबसे बढ़कर—रहना सीखें। बिना घाव किए, बिना तोड़े, बिना थोपे।
कभी-कभी किसी गांव के एकांत में, एक बूढ़ा वृक्ष, एक निर्जन कुआँ और दोपहर की एकांत हवा मिलकर एक ऐसा अनुभव रचते हैं जो सभ्यताओं के महान लेखन को भी चुनौती देता है और वह अनुभव पृथ्वी का दिया हुआ है। उसकी गोद में बैठे रहना, कोई महान कार्य नहीं, एक मौलिक अवस्था है। एक ऐसी अवस्था, जिसमें मनुष्य होना अपने आप में एक काव्य बन जाता है।
पृथ्वी हमें रोज़ बुलाती है—कभी ओस की बूँद में, कभी किसी बगीचे के फूल में तो कभी किसी चरवाहे की बाँसुरी में और हम उसके आमंत्रण को अक्सर उपेक्षा की भाषा में ठुकरा देते हैं। लेकिन यह समय है लौटने का—उस सौंदर्य, उस शांति, उस सादगी की ओर जो हमें पूर्ण बनाती है।
पृथ्वी दिवस को केवल एक दिन नहीं, एक स्थितिवाची गीत बना दें—जिसे हर साँस में जिया जाए, हर दृष्टि में देखा जाए और हर स्पर्श में महसूस किया जाए क्योंकि यदि पृथ्वी बची रहेगी, तभी हमारे गीतों में मधुरता, चित्रों में रंग और जीवन में कविता शेष रह पाएगी।