डॉ राव बेबाकी से बोलते थे, सबकी पोल खोलते थे। इमरजेंसी के प्रखर विरोध के कारण उन्हें सदा याद रखा जाएगा। किसान संघर्ष समिति ने वरिष्ठ पत्रकार, निडर ट्रेड यूनियनिस्ट और भारतीय कामकाजी पत्रकार महासंघ (IFWJ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. के. विक्रम राव के निधन पर अपनी गहरी संवेदनाएं व्यक्त की। डॉ. के. विक्रम राव का निधन 12 मई, 2025 को लखनऊ के एक निजी अस्पताल में सांस संबंधी बीमारी के कारण हुआ। आठ दशक तक निरंतर चलने वाली कलम खामोश हो गई। डॉ के विक्रम राव के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष डॉ सुनीलम ने कहा कि देश-दुनिया के पत्रकारों और मीडियाकर्मियों को एकजुट कर उनके हक-हकूक की लड़ाई को धार देने वाले राव साहब के जाने से IFWJ को गहरा आघात लगा है।
डॉ सुनीलम ने कहा कि मेरी मुलाकात राव साहेब से कई वर्षों तक जॉर्ज साहेब के निवास पर दिल्ली में होती थी। बाद के वर्षों में लखनऊ उनके निवास पर मुलाकात होती रही। एक दौर में वे नेताजी मुलायम सिंह यादव जी के भी अत्यंत नजदीकी रहे। तमाम शिकायतों के बावजूद समाजवादी उनका सम्मान करते रहे। उन्होंने कहा कि डॉ राव बेबाकी से बोलते थे, सबकी पोल खोलते थे। विक्रम राव भारतीय पत्रकारिता में एक विशाल व्यक्तित्व थे और भारत के लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे अंधेरे दौर में साहस का प्रतीक थे। टाइम्स ऑफ इंडिया के बड़ौदा संवाददाता के रूप में, उन्होंने आपातकाल (1975-77) के खिलाफ भूमिगत प्रतिरोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस के साथ कुख्यात बड़ौदा डायनामाइट मामले में सहयोग किया। उनके इस साहस की भारी कीमत चुकानी पड़ी—उन्हें गिरफ्तार किया गया, नौकरी से निकाल दिया गया, और उनकी पत्नी, जो एक रेलवे डॉक्टर थीं, को उनके दो छोटे बच्चों के साथ राजस्थान के एक सुदूर सीमावर्ती शहर में स्थानांतरित कर दिया गया। फिर भी, उनका हौसला नहीं टूटा, और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के हस्तक्षेप से, 1977 में जनता पार्टी के सत्ता में आने पर उन्हें पूर्ण वेतन बकाया के साथ बहाल किया गया। इस सुनहरे साहस को याद करते हुए प्रधानमंत्री ने उन्हें फ्रीडम फाइटर पत्रकार का सम्मान भी प्रदान किया था।
राव का पत्रकारिता में योगदान उनकी रिपोर्टिंग से कहीं आगे था। हिंदी में एक धुरंधर लेखक के रूप में, उन्हें धर्मयुग के दौरान धर्मवीर भारती और गणेश मंत्री जैसे दिग्गजों ने बहुत सराहा। तमाम भाषाओं पर मजबूत पकड़ रखने वाले राव साहब ने देश के विख्यात अखबारों में काम किया और दशकों तक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में दुनियाभर के पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख छपते रहे। अंग्रेजी और हिंदी में उनका समान अधिकार था, इसके अलावा तेलुगु और दुनिया की कई अन्य भाषाओं में भी उनकी गहरी पकड़ थी। उनकी लेखनी की यह खासियत थी कि वे दोनों भाषाओं में धाराप्रवाह लिखते थे, जो सामान्यतः दुर्लभ है। बीच के पचास वर्षों में शायद ही पचास दिन ऐसे गुजरे हों, जब उनकी कलम ने विश्राम किया हो।
IFWJ के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में, राव साहब ने दुनियाभर की पत्रकार बिरादरी से सीधा रिश्ता कायम किया। कई देशों में फैली पत्रकार यूनियनों का संचालन करते हुए उनकी कलम भी अनवरत चलती रही। श्रमजीवी पत्रकारों और अखबार कर्मियों की लड़ाई लड़ने वाले राव ने आपातकाल में तानाशाही के खिलाफ भी दो-दो हाथ किए और जेल की सजा भुगती। वे पत्रकारिता की यूनिवर्सिटी और जानकारियों का खजाना थे। उनकी एक विशेषता जो हमेशा याद रहेगी, वह थी उनकी युवा पत्रकारों को प्रोत्साहित करने की आदत। उस दौर में, जब मोबाइल फोन नहीं थे, लेकिन लैंडलाइन आम हो चुके थे, राव साहब हर सुबह शहर के हर अखबार पढ़ते थे और किसी युवा पत्रकार की बायलाइन खबर देखकर उन्हें फोन कर हौसला बढ़ाते थे। उनकी तारीफ का फोन किसी अवार्ड से कम नहीं लगता था।
ट्रेड यूनियन आंदोलन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता विवादों में रही, क्योंकि IFWJ को संगठनात्मक और राजनीतिक मुद्दों पर विभाजन का सामना करना पड़ा। कुछ लोग कहते हैं कि आपातकाल के बाद उनके लेखों में सत्ता पर सवाल उठाने का माद्दा कम दिखाई दिया, जिसने पाठकों को निराश किया। फिर भी, प्रेस स्वतंत्रता और जनहित के प्रति उनकी निष्ठा को कोई नकार नहीं सकता।
उनके लेख न केवल प्रतिष्ठित अखबारों में, बल्कि सोशल मीडिया पर भी हर दिन छाए रहते हैं।
डॉ सुनीलम ने कहा कि अपने अंतिम वर्षों में भी राव साहेब एक योद्धा बने रहे, साप्ताहिक डायलिसिस होती रही, पत्नी और बच्चों ने अधिकतम संभव सेवा की। हम उनके परिवार, मित्रों और सहयोगियों के प्रति अपनी हार्दिक संवेदनाएं
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