— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
“शक्ति-विहीन सिद्धांत बाझं होता है, उसी तरह विचारहीन शक्ति राक्षस बन जाती है।”
यह सूक्ति डॉक्टर लोहिया ने कही थी। बदकिस्मती से यह सबसे ज़्यादा उनके द्वारा बनाए संगठनों पर हूबहू लागू हुई।
हिंदुस्तान की सियासत में जितने भी विमर्श, सिद्धांत, नीतियां, कार्यक्रम, रणनीतियाँ पर आज चर्चा जारी है, उसको 50 के दशक में ही डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने गढ़ा, बोला और लिखा था। भारत के पहले आम चुनाव में सोशलिस्टों को कांग्रेस के बाद सबसे अधिक 10.59 प्रतिशत वोट तथा 12 लोकसभा सदस्य चुने गए थे।
1967 के आम चुनाव में अकेले संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के 23 सदस्य, जो कि मुल्क के हर प्रांत—बंगाल, उड़ीसा, केरल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, मणिपुर, असम, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा इत्यादि से—जीतकर आए थे। उसी तरह सोशलिस्टों के दूसरे ग्रुप, प्रजा समाजवादी पार्टी के भी 13 सदस्य जीतकर आए थे।
1975 में आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी में सोशलिस्ट पार्टी का विसर्जन कर दिया गया। एक तरह से, 1934 में शुरू हुई “कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी”, जो विचारधारा, सिद्धांत, नीतियों, कार्यक्रम पर आधारित थी, उस परंपरा का अंत हो गया।
वैसे तो कहने के लिए उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह द्वारा स्थापित पार्टी, जिसके मुखिया अब अखिलेश यादव हैं, वह भी सोशलिस्ट पार्टी के नाम से चलाते हैं। लालू यादव के “राष्ट्रीय जनता दल” को भी कुछ लोग सोशलिस्टों की वंश परंपरा में मानते हैं। हकीकत में उनका समाजवाद से कितना जुड़ाव है, कहा नहीं जा सकता।
विचार के मोर्चे पर आज भी सोशलिस्टों का कोई सानी नहीं। परंतु संगठन के नाम पर कुछ छोटे-छोटे समूहों, व्यक्तियों तक ही वह सिकुड़ कर रह गया है—ऐसा क्यों हुआ?
57 वर्ष की अल्पायु में डॉ. लोहिया की असामायिक मौत के बाद वैचारिक प्रशिक्षण, शिक्षण शिविरों, समसामयिक विषयों पर “जन”, “मैनकाइंड” जैसी पत्रिकाओं के लेखों, बहसों, विचार-विमर्श, दिशा-निर्देशन—जिसके कारण नई पीढ़ी का ज्ञानवर्धन, भर्ती, जत्थेबंदी, साथीपन का एहसास होता था—वह खत्म होता गया।
आम आदमी के सवालों को लेकर सड़कों पर होने वाला संघर्ष अतीत का इतिहास बन गया। जाति, मजहब की गोलबंदी के आधार पर विधानसभा, लोकसभा वगैरह में प्रवेश ही सियासत का एकमात्र मकसद और जरिया बन गया।
आज भी हम देखते हैं कि जो लोग समाजवादी भट्टी की वैचारिक आग से तपे थे, वे अपनी ज़िंदगी के अंतिम पहर में भी आज तक उससे जुड़े हैं तथा अपनी भरसक कोशिश में लगे रहते हैं। आज मेरे हाथ आज से 54 साल पहले, 27 जून 1971 से 29 जून 1971 को हैदराबाद में हुए अखिल भारतीय समाजवादी युवजन सभा के राष्ट्रीय सम्मेलन में पास हुए प्रस्तावों और दस्तावेजों की पुस्तिका लगी। उसको पढ़कर पुरानी यादें जाग उठीं। वैचारिक मंथन, सिद्धांतों के लिए लड़ने तथा अपनी सरकार के विरुद्ध ही उनके गैर-समाजवादी निर्णयों के विरोध करने का संकल्प—गैर कांग्रेसवाद—की आज उसके विरोधियों द्वारा अपने-अपने कारणों से आलोचना की जा रही है, परंतु युवा समाजवादी अपनी सरकारों के गलत निर्णयों के विरुद्ध भी टकरा रहे थे।
क्या आज किसी राजनीतिक दल में यह संभव है कि वह अपने सुप्रीमो अथवा पार्टी के विरुद्ध एक शब्द कहने की भी हिम्मत रखता हो? कहने को तो समाजवादी युवजन सभा, सोशलिस्ट पार्टी की एक युवा शाखा थी, परंतु उसका कोई औपचारिक रिश्ता नहीं था। वह एक स्वतंत्र संगठन था।
लोहिया द्वारा गैर कांग्रेसवाद रणनीति की रचना की गई थी, जिसके कारण संयुक्त सरकारों का निर्माण हुआ था। लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद के लिए समयबद्ध न्यूनतम कार्यक्रम के क्रियान्वयन के लिए लगाई गई आवश्यक शर्तों, बंदिशों के खिलाफ ही संयुक्त सरकारें काम करने लगी थीं। उस पर सम्मेलन ने अपनी राय व्यक्त करते हुए लिखा—
“इस सत्य से हम इनकार नहीं कर सकते कि औपचारिक रिश्ते न रहने के बावजूद भी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और उसकी राजनीति से समाजवादी युवजन सभा आंदोलित और उत्प्रेरित दोनों होती रही है। 1967 के बाद की घटनाओं और उस संदर्भ में समाजवादी आंदोलन के कर्णधारों की अक्षमताओं ने हमें ऐसी जगह लाकर पटक दिया, जिसकी आशा नहीं थी। प्रश्न यह था कि गैर कांग्रेसवाद की राजनीति के नाम पर हम क्या सरकारों के उन कामों का भी समर्थन करते जाएंगे, जिनके विरोध में समाजवादी युवजन सभा और समाजवादी आंदोलन अपने जन्म काल से लड़ता आया है। स.यु.स. की बराबर यह मांग रही कि छात्र संघों की सदस्यता अनिवार्य हो और पदाधिकारी का प्रत्यक्ष चुनाव हो; निवारक नजरबंदी जैसे गैर-प्रजातांत्रिक कानून समाप्त किए जाएं। उत्तर प्रदेश की सरकार ने इन दोनों अध्यादेशों को लागू किया। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी एक घटक थी। प्रश्न था कि इन कानूनों को गैर कांग्रेसवाद के नाम पर मान लिया जाए या उसका विरोध किया जाए? स.यु.स. का विचार था कि इसके मान लेने से संविद की राजनीति का ही आधार खत्म हो जाता है।”
डॉ. लोहिया ने सितंबर 1967 के जन में लिखा—
“हम खाली चिपके रहने में विश्वास नहीं करते। ऐसी हस्ती का क्या फायदा जिसमें आदमी खाली ज़िंदा भर रहे, कुछ कर ना सके। हम चाहेंगे कि इसके बजाय गैर कांग्रेसी सरकारें परंपरा को तोड़कर ऐसे काम करें, जिससे हालात बदले, जो समाज के पुराने संबंधों को बदले और फिर से गढ़े।”
फिर दूसरी जगह उन्होंने लिखा—
“आखिरकार संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का उद्देश्य केवल किसी प्रदेश की सरकार में हिस्सा पा लेना ही तो नहीं है। दल के कार्यों की सार्थकता तो सारे देश में सामाजिक क्रांति की सफलता में ही है।”
सम्मेलन में कई प्रस्ताव पास किए गए। संगठन संबंधित प्रस्ताव में लिखा गया—समाजवादी युवजन सभा का आठवां अखिल भारतीय सम्मेलन केंद्रीय समिति और हर छोटी से छोटी इकाई तथा सक्रिय सदस्यों को निर्देश देता है कि अगले दो सालों में अपने संगठन और आंदोलन के लिए निम्नलिखित कार्यक्रम तथा मांगों पर जोर देते हुए, समय-समय पर संदर्भ के मुताबिक नई मांगें जोड़े, तथा नई राष्ट्रीय समिति को निर्देश देता है कि निम्नलिखित मांगों को अमलीजामा पहनाने के लिए एक राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन की तिथि निर्धारित करें:
(क) रचना:
हर इकाई निश्चित रूप से महीने में या पखवाड़े में एक बार विचार गोष्ठी का आयोजन तथा साल में एक बार शिविर करौंघी ग्राम (समता विद्यालय) में आयोजित करते हुए समाजवादी मूल्यों एवं समस्याओं पर सदस्यों को जागरूक बनाए।
(ख) बेरोजगारी:
बेरोजगारी के खिलाफ निम्न मांगों को लेकर सभा, सम्मेलन, प्रदर्शन और आंदोलन शुरू करें—
(1) 18 वर्ष के बालिग हर युवजन को काम का अधिकार संविधान के मूल अधिकारों में जोड़ा जाए; काम न मिलने पर बेकारी का भत्ता दिया जाए।
(2) बेरोजगारी के सही आंकड़े जुटाने के लिए व्यापक स्तर पर रोजगार दफ्तर खोले जाएं, जिनमें सारे बेकारों तथा अर्थबेकारों को दर्ज किया जाए।
(3) गांव के युवजनों की हकदारी के लिए भूमि सुधार तथा खेतीहर मजदूरों, युवजनों की शिक्षा के लिए ‘गांव की ओर बढ़ो’ आंदोलन चलाया जाए।
(ग) शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन:
इन मांगों पर विद्यार्थी आंदोलन और संघर्ष संगठित किया जाए।
विद्यार्थी पत्रक की मांगें इन आंदोलनों का आधार रहेंगी।
“देश की स्थिति और युवजन”
पर सम्मेलन में मैंने प्रस्ताव प्रस्तुत किया तथा साथी मुरलीधर शर्मा, सतना ने इसका समर्थन किया। साथी गंगाधर पटने (महाराष्ट्र) का संशोधन स्वीकार कर लिया गया।
प्रस्ताव में कहा गया—एक लंबे अरसे की लड़ाई के बाद 1947 में दुखद बंटवारे के साथ देश आज़ाद हुआ। सत्ता का नेतृत्व उच्च मध्यम वर्ग के उन लोगों के हाथ में गया जो पश्चिमी सभ्यता में पले थे। उनमें समता और संपन्नता की सही दृष्टि का अभाव था। वे उत्पादन के आधुनिकरण के बदले खपत के आधुनिकरण, फिजूलखर्ची और अय्याशी के शिकार थे। ऐसे लोगों के नेतृत्व में देश तबाह होता गया।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही शिक्षित, अर्थशिक्षित एवं अशिक्षित बेरोजगारों की संख्या 10 करोड़ से अधिक हो गई। आर्थिक सत्ता का केंद्रीकरण देश के 75 परिवारों में हो गया। बड़े पूंजीपतियों की पूंजी में बढ़ोतरी हुई और 30 करोड़ जनता चार आने रोज़ पर मरती रही। दिन-प्रतिदिन भोजन और वस्त्रों में कमी होती गई। गुलामी काल की शिक्षा पद्धति बदस्तूर जारी रही। देश की सीमाएं सिकुड़ती गईं। फिजूलखर्ची, अय्याशी और शर्म की सरकार किसी भी तरह जनता की ज़रूरतों और आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रही।
20 वर्षों की सड़ांध के प्रति आक्रोश की सीमित अभिव्यक्ति 1967 के आम चुनाव में हुई। जनता ने सत्तारूढ़ दल को झटका दिया। इसके बाद एक नई प्रतिक्रिया शुरू हुई। परिवर्तन की राजनीति का वातावरण बना और देश के बहुत बड़े भूभाग में केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधियों की मिली-जुली सरकार बनी। दुर्भाग्य से कुछ अपवादों को छोड़कर ये सरकारें परिवर्तन की वाहक नहीं बन सकीं। वर्ग-स्वभाव और सत्ता के मोह ने इन्हें भी ग्रस लिया। सत्ता से उत्पन्न सभी बुराइयाँ वहाँ भी देखने को मिलीं। राजनीतिक अस्थिरता बदलाव की वाहक नहीं बन सकी। इसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों रूपों में यथास्थितिवाद, सामंतवाद, संप्रदायवाद और पूंजीवाद की शक्तियाँ मज़बूत हुईं।
इस परिस्थिति में 1971 का मध्यावधि चुनाव हुआ। यथास्थितिवादी, पूंजीवादी और फिरकापरस्ती को बढ़ावा देने वाले प्रमुख दल ने तथाकथित प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढ़ लिया। 1969 से 1971 के बीच नए प्रयोग की असफलताओं ने सत्ता-रूढ़ कांग्रेस को जनता को गुमराह करने का मौका दिया। फलतः केंद्र में उसे दो-तिहाई बहुमत मिल गया और शक्ति का केंद्रीकरण हुआ। इस शक्ति ने तुरंत बाद ही अपना असली रूप दिखाना शुरू कर दिया।
इस चुनाव के तुरंत बाद निवारक नजरबंदी कानून का अध्यादेश पुनः संपूर्ण देश पर लागू किया गया। प्रधानमंत्री ने यह कहना शुरू कर दिया कि हमारे हाथ में कोई जादू का डंडा नहीं है जिससे गरीबी और बेरोजगारी को दूर किया जा सके। देश के करोड़ों बेकार युवजनों के साथ 50 करोड़ रुपए की तथाकथित रोजगार योजना के रूप में मज़ाक किया गया। अपने को प्रगतिशील कहने वाली वामपंथी शक्तियों का एक हिस्सा सरकार-परस्त बन गया। दूसरी ओर, राष्ट्रवाद और प्रजातंत्र की दुहाई देने वाली शक्तियाँ समता और संपन्नता के मामले में आधारहीन रहीं।
ऐसी स्थिति में एक सही विकल्प की ज़रूरत है। सही विकल्प वैसे समाजवादी ही बन सकते हैं जो समता, संपन्नता, राष्ट्रीयता और ईहलोकवादिता के प्रति न केवल प्रतिबद्ध हों बल्कि संघर्षशील भी।
समाजवादी युवजन सभा के भूतपूर्व अध्यक्ष तथा लोकसभा के सदस्य रह चुके किशन पटनायक ने चिट्ठी लिखी कि सम्मेलन में जाने के लिए रेल का आरक्षण करवा चुका था, लेकिन संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का ज़रूरी सम्मेलन 27 तारीख को हो रहा है, इसलिए आ नहीं पा रहा हूँ—माफ़ी चाहता हूँ। फिर भी कोशिश कर रहा हूँ। अगर कुछ पैसे इकट्ठा करने में सफल हो जाऊंगा और सीट मिल जाएगी तो 29 तारीख को भी हवाई जहाज़ द्वारा पहुँचने की कोशिश करूंगा।
अपने को समाजवादी दल कहने वाली पार्टियाँ मिल रही हैं, लेकिन समाजवादी आदर्श, कार्यक्रम और क्रांतिकारी चरित्र का अवसान हो रहा है। समाजवादी दलों के थके हुए और हताश नेताओं से युवा पीढ़ी को कोई प्रेरणा नहीं मिल पा रही है।
……………..
युवजन सभा के एक महत्वपूर्ण सदस्य साथी शिवानंद तिवारी, जो कि किन्हीं कारणों से सम्मेलन में आ नहीं पा रहे थे, उन्होंने एक संदेश सम्मेलन में भेजा, जिसमें उन्होंने लिखा—
“मैं आप प्रतिनिधियों से अपील करता हूं कि आप इस संगठन के ढांचे में आमूल परिवर्तन करें। बगैर मजबूत और क्रांतिकारी संगठन के किसी क्रांति की कल्पना संभव नहीं है। आप हम सभी इसकी जरूरत महसूस कर रहे हैं। फिर मैं आप ही पर इस निर्णय का भार छोड़ता हूं कि आप इस संगठन को लेकर सामाजिक और आर्थिक बदलाव करने चलेंगे, अथवा इसी में पहले आमूल परिवर्तन करेंगे।
वैसे, यदि अखबार में बयान देने तथा अपनी सामाजिक हैसियत बनाने के लिए हम इस मंच का इस्तेमाल करना चाहते हैं, तो कोई बात नहीं। ऐसी स्थिति में मैं तो अपनी मुक्ति ही चाहूंगा। लेकिन इस संगठन का मोह बार-बार यही कहता है—हम क्रांतिकारी राजनीति चलाएं। यह सच है कि आप कभी क्रांतिकारी राजनीति चलाते थे, लेकिन अब प्रायः हम सभी लोग भड़ैती कर रहे हैं। अंत में पुनः आपसे आग्रह करूंगा कि आप संगठन के ढांचे को ज़ोरदार बनाएं, अन्यथा मेरा त्यागपत्र समझें। —शिवानंद तिवारी।
विचारों, सिद्धांतों पर आधारित सोशलिस्ट पार्टी और उसके युवा संगठन को विरासत में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, युसूफ मेहर अली, डॉ. राममनोहर लोहिया, कमला देवी चट्टोपाध्याय, फरीदुल हक अंसारी जैसे जंगे-आज़ादी में अपना सब कुछ लुटाने वाले महान नेताओं के ज्ञान, त्याग और संघर्ष की विरासत मिली थी। परंतु अफसोस, वह आज ओझल हो गई है।
हालांकि यह भी सही है कि विचार का बीज कभी मरता नहीं। भविष्य में समता और संपन्नता में यकीन रखने वाले, नई पीढ़ी के जुझारू, लड़ाकू, वोट, जेल, फावड़े के अस्त्रों की बुनियाद पर फिर सोशलिस्ट तहरीक का परचम, सोशलिस्ट पुरखों की रवायत को और भी प्रखरता के साथ मंजिल पर ले जाए—इसी आशा और विश्वास के साथ।