कबीर : आज

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Parichay Das

— परिचय दास —

।। एक ।।

साँस के भीतर साँस के बात कहे वाला ऊ जुलाहा कबीर, जइसे घाम से बुनल गइल होखे। ना कवनो बड़का घराना, ना पोथी-पतरा के ढेर, ना बहस-विवाद के बड़बोलापन — बस जीवन के सूत से बुनत, नेह आ सवाल से रंगत, एगो कपड़ा। ई कपड़ा ना सिलल जाला, ना पहिरल जाला — ई त भीतर फइल जाला, आत्मा के चमड़ी पर चुपचाप फुल जाला। कबीर के बूझल जइसन होखे कि पानी में आग खोजल — बाकिर ऊ त खुदे पानी से आग बनावे वाला बाड़ें, आ आग से करुणा।

ऊ कवि नइखन, ऋषि त कतई नइखन। ऊ त जइसे एगो दीया हउअन — जेकर जलल रहनहीं असली कविता ह। उनकर बोली में ना डर बा, ना मिन्नत। एगो टटक निरभीकता बा, जइसे खेत में खड़ा होके कवनो किसान सूरज से आपन दुख कहत होखे। उनका बात में माटी के गंध बा, घाव के भाषा बा, आ आँख के सीधा चमक। ऊ कवनो धरम ना रचतें, ऊ त धरमन के छाननी से छानत बाड़ें, जइसे कवनो औरत घरे-आँगन में पीर बीनत होखे — जे मंच से ना, चाक पर बइठ के जीवन गढ़े।

कबीर एके बेर खारा आ मीठ बाड़ें। जइसे गंगाजल में कवनो सागर के बूँद घुल गइल होखे। ऊ उलझावे वाला नइखन, बाकिर जे सादगी से बोलत बाड़ें, उहे सादी में परम गूढ़ बात के गिरा देत बाड़ें। राम के ऊ पुकारत बाड़ें — बाकिर ना तुलसी वाला राम, ना वाल्मीकि वाला। ई राम त भीतर के राम ह, जे खपड़ैल के छाँह में बइठेला, तवा गरम करेला, चूल्हा के अगिन ह। ऊ राम जेसे बतकुच्चन कइल जा सके, जेके रोटी में बाँटल जा सके।

कबीर के जीवन गद्य ह — बाकिर ओकरा में कविता गूंजेला। कविता उनका लगे कंठ ना, फेफड़ा ह। जब ऊ कहेलन — “जाति न पूछो साधु की”, त ई तर्क ना, आत्मा के पुकार ह, एगो दुख भरल हँसाई, जे समाज के रेखा के पोंछ देवे के चाहत रखेला। कबीर ब्रह्म के बात ना करतें, ब्रह्म के तोड़ देतें — आ ओकर टूटल टुकड़ा में आदमी के चेहरा देखत बाड़ें। ई काव्य के ऊ रूप ह, जे अनुभव आ सोच के बीच बहत रहेला।

उनकर दोहा हथौड़ा ना ह, थपकी ह — बाकिर भीतर के चट्टान चुपचाप तोड़ देला। ऊ साधु के टोकत बाड़ें, पंडित के गरियावत बाड़ें, मांस खइला वाला आ साग खइला वाला दुनो के आइना देखावत बाड़ें। उनका लगे ना माला के मोल बा, ना जटा के — मोल बा त बस ई कि आदमी के भीतर कतना चुप्पी बा। उनका लगे भजन रियाज़ ना, आग के पियास ह। राम नाम मंत्र ना ह, अनुभव ह — चुप्पी जवन बोलेला।

कबीर कवनो विचार ना, कवनो मजहब ना — ऊ त एगो बातचीत ह, जे जीवन से होला। ऊ ना वेद के ऋचा ह, ना संगीत के राग — ऊ त नदी के धार जइसन ह, जे पियासल के मुँह तक खुदे चल आवे। ऊ हर ओह व्यवस्था के खिलाफ बाड़ें, जे आदमी के बाँटे — चाहे ऊ ज्ञान से होखे, चाहे भगवान से।

एहीसे, कबीर समय के राख से निकलल एगो सुलगता फूल हउअन — जे ना बुतावल जा सके, ना पूजल जा सके। बस जीयल जा सके।

।। दू ।।

कबीर के बातन में जइसन धार बा, ओहमें कहीं से पंडिताई के घमंड नइखे। ऊ मठ के बंधन तोड़ देत बाड़ें, मठाधीश के चादर खींच देत बाड़ें। कबीर कवनो सिध बाबा के गीत नइखन, ऊ त बियाह घर के लोकगीत जइसन बाड़ें — जनमन के गहिराई से निकसल, बिना लय के भी लय में। ऊ ‘अनहद’ के बात करत बाड़ें, बाकिर शब्द उनका लगे संकोच नइखे — उनका शब्द त एही लोक के गोबर, राख, आ लहु से बनल बा।

उनका के सुनल जाव, त लागेला जइसे कोस-कोस के माटी बोले लागल होखे। उनका में जवन बिद्रोह बा, ऊ तलवार ले के ना आवेला — ऊ त बिन धार के धार ह। कबीर जब कहत बाड़ें — “मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे,” त ऊ खोज के मर्म बतावत बाड़ें, ना कि पूजा के विधि। कबीर के राम मंदिर में ना, मन के भीतर बसल बा। ई राम कोमल भी बा, कठोर भी — बिना चाबी के खुल जाए, आ चाभी से बंद ना होखे।

उनकर बानी जइसे अँजोरिया ह — जे आधी रात में जागल आंख के साथी बन जाला। ऊ मनुष्य के भीतर के दुख, मोह, आ दम्भ के फाड़ के राख देत बाड़ें। कबीर के दोहा मजाक जइसन लागेला, बाकिर भीतर से ई अगिन-बाण ह — “पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय” — एतना कह के ऊ पंडिताई पर हँस देत बाड़ें। ज्ञान के ऊ दुकान ना बनावेलन, ज्ञान के खेत बनावेलन — जहाँ हर कोई बिया बो सके, काट सके।

कबीर के मुँह से जब ‘राम’ निकलेला, त ओहमें सच्चाई के धड़धड़ाहट होला। ऊ राम से लड़ेलें भी, रूठलें भी, बतियावलें भी। ई राम ओकरा लिए एहसास ह, साँच ह, गंध ह। आ जे साँच के राम ना समझे, ऊ त कबीर के नजर में मूरख ह। कबीर के राम निराकार ह — बाकिर ऊ निराकार के दर्शन भी रोटी पर बैठ के करावत बाड़ें।

जब कबीर कहत बाड़ें — “निस दिन खेलत राम के संग,” त ई खेले के मतलब साधना ना ह, ई त गाढ़ आत्मीयता ह — जइसे मन आ आत्मा एके रंग में भींज जाव। ई कबीर के भक्ति नइखे, ई कबीर के गवाही ह — जीवन के, प्रेम के, अकेलापन के। कबीर के भक्ति ना रोवत बा, ना ढोल पीटत बा — ऊ त भीतर के धड़कन में चुपचाप बहे वाला सरगम ह।

कबीर मरत नइखन। ऊ जे बोल गइलें, ऊ आजुओ सड़ल समाज के बीच खड़ा बा — माटी के लुग्गा ओढ़ले, हाथ में संदेसा लेके। उनका के भुलावल ना जा सके, ना उनकर वाणी से बचे के रास्ता बा। ऊ तो अइसन चुप्पी ह, जेहमें आवाज घुल के आत्मा बन जाला।

एह खण्ड के अंत में कबीर के स्वर, रामधुन के नाहीं, लोक-धुन के गूँज ह। ई गूँज जीवन से टकरा के जइसन एहसास छोड़ जाला, ऊ कवनो दर्शनशास्त्र से ना आवेला। कबीर के मतलब बा — शब्द से आगे, पूजा से आगे, आ डर से आगे जीयल जीवन। आ एही में उनका कविता के अंतिम सत्य बा — न जटिल, न सरल — बस संपूर्ण।

।। तीन।।

कबीर के काव्य में जवन प्रकृति बा, ऊ ना त राजकुल के सोने-जड़ावल भाषा में लिपल बा, ना कवनो मठ के संस्कृतनुमा संजीवनी में। ऊ त भिखमंगा के फटी धोती जइसन सहज बा — जेकर हर चीरा में एक कहानी बा। कबीर के बोल खाली जन बोली नइखे, ऊ जन आत्मा ह। ओह बोली में धूप बा, गंध बा, चिंगारी बा, आ कुछ अइसन अदृश्य कंपन्न जवन सिर्फ दिल सुनेला, किताब नइखे सुन सकत।

ऊ कहेलन — “चलती चाकी देख के, दिया कबीरा रोय” — ई कहावत ना ह, ई आत्मा के भूचाल ह। चाकी खाली गेहूँ के ना पीसत बा, आदमी के भी पीसत बा — समाज के व्यवस्था, जाति के चक्की, मजहब के चक्की, पंडिताई के चक्की, आ ओह में फँसल आत्मा रोवत बा, कबीर ओह रोअत आत्मा के वाणी बन जालें। कबीर के रोअल भी गरिमा से भरल बा — ऊ गरिमा जवन पीड़ा से आवेला, ना कि अभिमान से।

कबीर के नजर में धरम अगर बँटवारा करे, त ऊ धरम ना, अधर्म ह। उनका लगे पूजा तबहीं सच्चा ह, जब पूजा करे वाला के आँख में दया होखे, आ मन में निर्भयता। कबीर के संसार में अगर तू चौरासी लाख जात के फेर में पड़ल बाड़, त तू अबहियों उहे ‘ढाई आखर’ से दूर बाड़, जेकरा में सारा वेद समाइल बा। ई ढाई आखर — प्रेम। ना किताब में, ना मंदिर में, ना रोजा में — ई त मन में उपजल एगो अजगुत फूल ह, जे जेतना चुपचाप खिले, ओतने ओकरे गंध।

कबीर के भाषा एगो खेत के भाषा ह — जहवाँ हर बात बीया होखेला। कबीर जब कहेलन — “माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,” त ई ना खाली पाखंड के निंदा ह, ई एगो टूटल मन के पुकार ह — जे करेजा में झाँकत बाड़े। उनकर कहनाम कड़वा हो सकत बा, बाकिर ओह कड़वाहट में एगो मिठास बा — जइसे नीम के रस से देह सुधरत बा, ओइसहीं कबीर के शब्द से आत्मा सुधरेला।

कबीर के दृष्टि ओह कुलीन मनई पर नइखे, जे पूजा-पाठ के ठेका लेके बैठल बा। उनका सगरी भरोसा ओह पर बा, जे हाथ में हल धरले बा, जे नदी किनारे गीत गावत बिया, जे ईमानदारी से आपन दुःख काटत बिया। उनका कविता ओह आदमी के साथ बा, जेकरा पास ना शास्त्र बा, ना भाषा — बाकिर जे रोटी तोड़ के बाँटे के बात समझेला। कबीर के कविता चउरा पर बइठल एगो बूढ़ा के कहानी ह, जे राम-नाम के फुसफुसाहट में आपन जीयल जीवन सुनावत बा।

एह खण्ड में कबीर के ओह रूप के देखल जाला, जे सवाल पूछे ला — भगवान से, पुरोहित से, खुद से। आ जे जवाब खोजे ला — चूल्हा में, खेत में, चाक पर, आ कबहूँ-कभार चुप्पी में। कबीर के चुप्पी भी गूंजेला — जे बोले त शब्द ना निकले, बाकिर आत्मा काँप जाव। ई कबीर के असल काव्य ह — ना गीति, ना विरह, ना श्रृंगार — बाकिर सबके भीतर के एक लोहा जइसन सत्य, जवन जाके छू लेला त आदमी बदल जाला।

कबीर हमनी के साँस में बइठल बाड़ें, हमनी के सवाल में, हमनी के मौन में। ओह में रामो बा, श्यामो बा, कबीरो बा — आ सब बेजान शब्द के बीच एगो जियत नजरिया। जेकरा खातिर ना मंदिर चाहीं, ना मस्जिद — बस एगो खुलल मन, एगो डर से खाली आत्मा। आ एही से, कबीर आजो नया लगेलन — जइसे ओह बीतल कल में ना, आज के साँस में जनमल होखें।

।। चार ।।

कबीर के काव्य ना त समय के दायरे में सिमटेला, ना समाज के परिभाषा में। ऊ ना अतीत में अटकल बाड़ें, ना भविष्य के स्वप्न में — ऊ त एकदम आज के पल में जीयत, साँस लेत, और मनुष्य के भीतर के अन्हार में बाती जइसन जलत बाड़ें। कबीर के कवित्व शब्दन के सजावट ना ह, ऊ जीयल अनुभव ह, पीठ पर लादल जीवन ह, आ आंख में जमे पानी ह।

ओकरा में विरासत बा, मगर दंभ नइखे। ओहमें बगावत बा, मगर नफरत नइखे। कबीर के बानी बुझल त नइखे, बाकिर बुझइला के रास्ता बनावे वाली बा। ऊ कवनो पंथ के द्वारपाल नइखन, ऊ त भीतर जाए के दरवाजा हउअन — जे टेढ़ो-सपाटो मनई खातिर खुलल बा। ना ऊ देवता के गाथा गावत बाड़ें, ना स्वर्ग के लालच देत बाड़ें — कबीर त मनुष्य के आत्मा के आईना हउअन, जे कहेला — देखऽ, भीतर जा, आ ऊ देख जे बाहर ढूंढत-ढूंढत थाक गइल बाड़।

आज जब समाज जाति, मजहब, औपचारिकता आ दिखावा के बोझा में दबल बा, कबीर के स्वर अइसन बा जइसे दूब पर ओस — चुपचाप चमकत, मगर जिनगी के सबसे कोमल आ साँच पहलू के छू देवे वाला। कबीर हमनी से उपदेश ना देतें, ऊ हमनी संगे चलत बाड़ें — जे कदम-कदम पर पूछे ला — “कहाँ जात बाड़, का खोजत बाड़, आ भीतर के आवाज के काहे नजरअंदाज करत बाड़?”

एही से कबीर के काव्य, कबीर के विचार, कबीर के मौन — सबकुछ अइसन थाती ह, जेकरा के बार-बार पढ़े के, सुने के, अउर अपने भीतर बसावे के जरूरत बा। ऊ कबीर ना, जे बस दोहा कह गइलें — ऊ कबीर हउअन, जे आजो हर सजग मनई के भीतर साँच के लपट जइसे जलत बाड़ें।
कबीर ना खाली कवि बाड़ें, ना मसीहा — ऊ त एगो जीवन हउअन, जवन डर के पार जा के, नेह, साँच, अउर सहजता के भाषा बोलेला।

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